रैबार | कहानी | विकास नैनवाल 'अंजान'

 

तस्वीर कैनवा से ए आई के माध्यम से बनाई है, लिंक


नोट: यह कहानी पाँच वर्ष पहले लिखी थी....13 नवंबर 2018 को फेसबुक पर दुईबात के पृष्ठ से पोस्ट की थी। उसमे दर्ज था कि पोस्ट करने के एक दिन पहले लिखी थी। कहानी की बात करें तो चीजों को साफ साफ लिखने के बजाए इशारा दे देना भर मुझे अच्छा लगता है... फिर ये पढ़ने वाले पर होता है कि वो किस इशारे को किस तरह से लेता है... खैर, इस कहानी को पढ़कर मम्मी ने कहा था, आखिर कहना क्या चाहते हो। मेरी लिखी अलिखी कहानियाँ अक्सर वही सबसे पहले सुनती हैं। और अक्सर कहती हैं रात में डरावनी कहानी मत सुनाया कर। लेकिन ये प्रतिक्रिया पहली बार आई थी।  


खैर, इस कहानी की बात करूँ तो यह कहानी मन में उपजी एक तस्वीर से शुरू हुई थी।  


एक आदमी है,उसके हाथ में शराब का गिलास है,वो कुर्सी पर बैठा है। सामने बिस्तर है। बिस्तर पर एक लड़की सो रखी है। 


इसी को लेकर लिखना शुरू किया था। इसके साथ ही जब गाँव तक सड़क नहीं गई थी तो कई गाँव पार कर पैदल गाँव तक जाना होता था। बीच में कई गदेरे भी पड़ते थे जिनके बारे में प्रचलित था कि वहाँ कई पारलौकिक ताकतें  भी रहती हैं जो राह चलते लोगों को परेशान भी करती हैं। शायद उस बियाबान में बोर हो जाती होंगी। या कुछ कहना चाहती होंगी जो कभी किसी से कह न पाई हों।  इसे भी कहानी में मैं बहुत समय से दर्शाना चाहता था। साथ में और कुछ भी जोड़ना चाहता था जिससे ये समय में आगे पीछे घूमती धुँध में डूबी हुई रचना बनी। 


कभी भविष्य में जब लगेगा कि कुछ लिखने के काबिल हो गया हूँ तो इसे एडिट करने की कोशिश रहेगी। अभी भी थोड़ा बहुत की है। हो सकता है भविष्य में और जरूरत लगे। बहरहाल अभी तो इसे ही पढ़िए।


******

(1)

इश्क!


क्या है इश्क? मुझे इसका कोई गुमान नहीं है। अपनी चालीस साला जिंदगी में मैंने काफी बार इस प्रश्न को अपने से पूछा है और हमेशा मेरे मन ने जवाब के बजाय एक चुप्पी ही दी है। 


आज मैं चालीस साल का हो गया हूँ। मेरे हाथ में एक गिलास है। गिलास में शराब है और कुछ बर्फ के टुकड़े हैं। गिलास मेरे कुर्सी के बगल में मौजूद एक छोटी सी टेबल पर रखा हुआ है। गिलास के ठंडे जिस्म पर पानी की बूँदे उग आई हैं। मैं कभी गिलास को देखता हूँ और कभी अपने बिस्तर में लेटी उस आकृति को।


मुझे कभी इश्क नहीं हुआ है। यह बात सच है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि मुझे औरत की जरूरत महसूस नहीं हुई है। समय समय पर एक गर्म जिस्म की चाह मुझे घेर लेती है। पहले मैं इसे ही इश्क समझता था लेकिन फिर अपनी गलती का एहसास हुआ। इस मामले में मैं एक बच्चे की तरह हूँ। आपने देखा है जब उसे किस चीज की चाह होती है तो वो कैसे उस चीज को पाने के लिए मचलने लगता है। जब तक वह उस चीज को हासिल न कर दे तब तक उसकी तड़प ऐसी होती है जैसे अगर उसे उसकी चाह न मिले तो वो मर ही जायेगा। ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी होता है। लेकिन फिर जब एक भूख शांत हो जाती है तो उस चीज के होने न होने से फर्क नहीं पड़ता है।

मैं पहले इस चाह हो इश्क समझने की भूल करता था। लेकिन एक दो टूटे दिलों के बाद शायद मुझे अब अपनी गलती का एहसास हो चुका है। फिर भी भूख तो  मुझे लगती है। उसे मैं शांत भी कर देता हूँ। पेट की भूख का सामान घर तक पहुँचाने वाले भले अब आये हों लेकिन जिस्म की भूख का सामान... आप समझदार है। बस आपके पास पैसा होना चाहिए।


मैं शराब का गिलास को उठाता हूँ और सामने मौजूद सोती हुई आकृति को देखता हूँ। मैं एक घूँट लेता हूँ। 


*****

(2)

मैं सत्रह अट्ठारह साल का हूँ। पिताजी गाँव छोड़कर कस्बे में इसलिए आये थे ताकि हमे अच्छी तालीम मिल सके। मेरे क़स्बा छोड़ कर शहर आने का भी यही कारण था। मैंने इंजीनियरिंग के प्रथम वर्ष का एग्जाम दिए हैं। अब कुछ दिन आराम है। मैं गाँव जाने की सोचता हूँ।


मेरा गाँव पहाड़ में है। उधर तक सड़क नहीं जाती है। जहाँ तक सड़क जाती है वहाँ से दो तीन गाँव पार करते हुए मुझे अपने गाँव तक आना पड़ता है। यह सब रास्ता पैदल ही करना होता है। इन दो तीन गाँवों के बीच में घने जंगल भी पड़ते हैं जिनको भी राहगीरों को पार करना होता है। यह आम सी बात है। बचपन से लेकर अब तक काफी बार हम ऐसे ही आये हैं।


मैं देहरादून से पहले पौड़ी आता हूँ और कुछ दिन उधर रहने के बाद गाँव के लिए रवाना हो जाता हूँ। गाँव में शायद ही कोई होगा लेकिन इस बार मेरा एडवेंचर का मन है। ऐसा क्यों है? मुझे नहीं मालूम। लेकिन मैं बस से सड़क तक पहुँचता हूँ और फिर उधर से पैदल चलने लगता हूँ।


गाँवों से होता हुआ। जंगली पगडंडियों से होता हुआ मैं अपने गाँव की तरफ बढ़ता जा रहा हूँ। रास्ते में गदेरा पड़ता है। पहाड़ी इलाकों में गदेरे होते हैं। पहाड़ के कुछ हिस्से जिधर से पानी अक्सर बहता रहता है। बारिश में ये विकराल रूप धर लेते हैं लेकिन साल भर भी इधर से पानी बहता रहता है। यह पानी किधर से आता है। मुझे इस विषय में कोई ज्ञान नहीं है। कोई कहता है बर्फ पिघलती है तो आता है। कोई कहता है कि बारिश का पानी धीरे धीरे रिसता हुआ अपनी जगह बनाता हुआ बहता है और इस रूप में धरती उसे उगलती रहती है। पर मुझे इससे कोई लेना देना नहीं है। दिमाग खपाने के लिए वैसे भी कई मामले हैं। 


गदेरे के दायें बायें जंगल हैं। पानी बहता हुआ रास्ते में आता है। रास्ते के नीचे जंगल है। और पानी रास्ते से होता हुआ जंगल के माध्यम से नीचे चला जाता है। आम दिनों में इधर इतना पानी नहीं होता है लेकिन बारिश में इधर से जाना जान हथेली पर रखकर जाने के बराबर है। अभी बारिश नहीं है इसलिए मेरे लिए यही रास्ता ठीक है। वरना घूमकर जाना पड़ेगा और इससे दूरी में डेढ़ दो किलोमीटर का इजाफा हो जाएगा। अक्सर यही रास्ता लोग पसंद करते हैं। थोड़ा सा भीगने में दूरी से डेढ़ दो किलोमीटर घटते हैं तो क्या बुरा है।

 

गदेरे के कल कल  बहते पानी का शोर जंगल की स्तब्धता को भंग कर रहा है। मैं रुक कर आस पास देखता हूँ। इस बियावान जंगल में कहीं कोई नहीं है। केवल गदेरे में बहता पानी है, पेड़ हैं, झाड़ियाँ हैं और मैं हूँ। हल्की हल्की सरसराहट जिधर होती है मैं उस तरफ देखने लगता हूँ। मेरे दिल की धड़कन बढ़ जाती है लेकिन झाड़ी से अक्सर कोई चिड़िया ही निकलती है। मेरे मन के किसी होने में डर का नाग अपना फन उठाता है और मेरे कदमों की रफ्तार बढ़ सी जाती है। यह पहाड़ का ऐसा हिस्सा है जहाँ अभी धूप भी नहीं है। मैं तेजी से चलते हुए गदेरा पार करता हूँ। आगे मोड़ पर मुझे धूप सी दिख रही है। सीढ़ी नुमा खेतों की शुरूआत इधर से होती है। मैं इस धूप को पाने के लिए तेज चलने लगता हूँ। मेरे दिल की धड़कन बड़ी हुई है। मैं भागकर धूप तक पहुँचना चाहता हूँ लेकिन मैं अपनी इस इच्छा को दबा देता हूँ। भागना ये जाहिर करना होगा कि मैं डर गया हूँ। और इस बियाबान में अपने डर को उजागर करना। नहीं। यह सोच ही मेरे रोयें खड़े करने के लिए काफी है।


मैं तेज क़दमों से चलते चलते खेतों तक पहुँच जाता हूँ। धूप चमक रही है। मैं खेतों के बीच से बने रास्ते पर खड़ा हूँ। मेरे ऊपर भी एक खेत है और मेरे नीचे भी खेत हैं। पहाड़ के इस कोने पर खड़े रहकर वह गदेरा और उसके आस पास का वातावरण से उपजा डर हास्यास्पद लगता है। फिर भी मेरी साँस धौकनी सी चल रही है। मैं अपनी साँस  में काबू पाता हूँ और उन हॉरर उपन्यासों को एक भद्दी गाली निकालता हूँ जिनके पन्ने चाटने का मुझे शौक रहा है। मेरे चेहरे पर एक मुस्कान है। मैं सूरज की गर्मी को महसूस करता हूँ। वो पहाड़ के पीछे की तरफ बढ़ रहा है।

 

मैं सूरज की तरफ अपनी गर्दन घुमाता हूँ।


और !!!


मैं अब नीचे वाले खेत में गिरा हुआ हूँ। ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरी गर्दन घुमाते ही मुझे एक जोरों का धक्का दिया हो। कुछ देर के लिए मेरे आँखों के आगे अँधेरा है। खेत हाल फिलहाल में खुदा हुआ है तो मुझे ज्यादा छोट नहीं लगी है। मैं हथेली से आँखों को ढककर ऊपर देखता हूँ। ऊपर एक आकृति है।


उसे देखकर मेरा शरीर काँपने लगता है। मैं उसे पहचान चुका हूँ। उसकी बादामी आँखें मैं कैसे भूल सकता हूँ।  मुझे अब  एक आवाज़ सुनाई देती है:

"वेथे बोलि मि प्वार गदेरा मा वेकु इन्तजार करणू छौं। बते दे वे थे।"(उससे कहना मैं उस गदेरे में उसका इन्तजार कर रही हूँ। उसे यह बात बता देना।)


मेरे शरीर की कँपकपाहट बढने लगती है और फिर मेरी आँखे मुंद जाती है।


****

(3)

मेरी आँखे खुलती है। मैं खेत में नहीं अपने घर में मौजूद हूँ। अट्ठारह का नहीं चालीस का हूँ। वो अब भी मेरे सामने लेटी है। उसके स्याह बाल उसके चेहरे को ढके हुए हैं। उसके शरीर कम्बल से ढका है। उसकी आँखें मुंदी हुई हैं लेकिन पूरी तरह से बंद नहीं है। जब ये आँखें खुली हुई होती है तो आकार में बादाम के जैसे दिखती हैं। वो कुछ देर सोना चाहती थी। शायद इन आँखों और शराब का ही असर है। 


मैं उसे देखता हूँ और अपना फोन उठाता हूँ।


"डन।", मैं टाइप करता हूँ।


कुछ देर बाद उधर से रिप्लाई आता है: 'एन्जॉय!'


यहाँ सब कुछ खरीदा बेचा जाता है। आपको पता होना चाहिए आपको सामान  किधर से खरीदना है। अक्सर मैं सामान किराये पर लेता हूँ। आज मैंने इसे खरीदा है। 


मेरे शरीर में हरकत होने लगती है। मैं अपना पेग खत्म करता हूँ। लाइट बंद कर देता हूँ।  पूरा फ्लैट अँधेरे में डूब गया है। मैं इस फ्लैट के जर्रे जर्रे से वाकिफ हूँ। मैं उठता हूँ।


निस्तब्ध फ्लैट के सन्नाटे को बाथरूम के फवारे से बहते  पानी की आवाज़ तोड़ रही है। 


मैं बाथरूम की तरफ बढ़ता हूँ। अँधेरे बाथरूम में शावर का अपने आप चलना मेरे लिए आम बात है। कई मिस्त्रियों को दिखा चुका हूँ लेकिन उनके अनुसार ये बिल्कुल ठीक है। कइयों के अनुसार तो ये भूतिया शावर है और मेरे अनुसार वो इससे तुकबंदी करने वाले शब्द जैसे लोग। मेरे चेहरे पर एक मुस्कान आ जाती है। शायद मैं जानता हूँ आगे क्या होने वाला है। 


मैं शावर बंद करता हूँ और बाथरूम की लाइट जलाता हूँ। बाथरूम में शीशे में कुछ दिखता है। एक झलक और फिर गायब हो जाती है। बस रह जाती तो उन बादामी आँखों की याद और ये आवाज:


"वेथे बोलि मि प्वार गदेरा मा वेकु इन्तजार करणू छौं। बते दे वे थे।"(उससे कहना मैं उस गदेरे में उसका इन्तजार कर रही हूँ। उसे यह बात बता देना।)


मेरा सिर घूमने लगा है। मैं बाथरूम के दरवाजे का सहारा लेकर खड़ा हूँ।  मैं बाथरूम से बाहर कमरे में नजर मारता हूँ। वो आकृति ऐसे ही लेटी है। या तो आवाज हुई नहीं है या उसकी नींद को नहीं भेज सकी है। 


फिर मेरे घुटने मुड़ने लगते हैं। 'ज्यादा पी ली यार', मैं बुदबुदाता हूँ और वहीं पर धराशाही हो जाता हूँ। 


*****

(4)


कुछ साल बाद। 


रात के बारह बज रहे हैं। एक जरूरी मीटिंग निपटाकर मैं अपने फ्लैट में लौट रहा हूँ। 


एक लिफाफा मेरा इंतजार कर रहा है।


मैं हैरान हूँ। लिफाफा इस जमाने में? मैं लिफाफा उठाता हूँ। उसे फाड़ता हूँ। मेरी उंगलियाँ न जाने क्यों काँप रही हैं।


मैं लिफाफा किसी तरह फाड़ता हूँ। उसके अन्दर एक तस्वीर है। एक लड़की है जो मुस्करा रही है। उसकी बादामी आँखों में वो सूनापन नहीं है। ख़ुशी की चमक है। उसकी बाँहों में एक बच्ची है। उसके साथ एक आदमी है। वो खुश दिख रहे हैं। इश्क में दिख रहे हैं। उनकी खुशियों की गर्माहट तस्वीर से निकलकर मुझे छू सी रही है। मेरी नजर खुदबखुद बिस्तर की तरफ उठती है और फिर बाथरूम की तरफ चली जाती है। बाथरूम खाली है। शावर बंद है। मैंने उसे काफी पहले हटवा दिया है। 


मैं धम से जमीन पर बैठ जाता हूँ। काँपते हाथों से सिगरेट जलाता हूँ। एक लम्बा कश खींचता हूँ और फिर एक गहरी साँस छोड़ता हूँ।


मेरे चेहरे पर मुस्कान है। मेरे सीने में एक दर्द सा हो रहा है। जैसे कोई कील सी धँसी हुई हो।


मैं सिगरेट का कश खींचता हूँ। मैं धुँआ छोड़ता हूँ। मेरे हाथ का कंपन  थोड़ा कम हुआ है। मैं लाइटर निकालता हूँ और उसकी लौ को तस्वीर के एक कोने में लगाता हूँ। तस्वीर जल रही है। मैं एक और कश लेता हूँ और फिर धुँआ छोड़ता हूँ। मैं खुश होना चाहता हूँ लेकिन एक तरह की टीस है जो मन के किसी कोने में उठ रही है। मेरी आँखे मुंद जाती है।


*****

(5)

मैं कौथिग के लिए गाँव आया हूँ। साथ में बुआ हैं,मम्मी हैं और दूसरे भाई बहन हैं। हम लोग पैदल ही गाँव तक आ रही हैं। मैं सबसे आगे आ गया हूँ। दिन का वक्त है। मेरे सारे भाई बहने पीछे हैं। मैं भागता हुए आगे जा रहा हूँ। मैं गदेरे के निकट पहुँचता हूँ। मैं थोड़ा सहम जाता हूँ। मैं उधर से निकलता हूँ तो मुझे वही झाड़ी में कुछ हलचल सी महसूस होती है। मैं उधर देखता हूँ और झाड़ी की तरफ बढने लगता हूँ।


मैं झाड़ी के नजदीक पहुँचता हूँ तो वो उधर बैठी है। वो मुझे देखती है। उसकी बादामी आँखें मुझे देख रही है। मेरे चेहरे पर उसे देखकर मुस्कराहट आने को होती है लेकिन उसके चेहरे पर मौजूद भावों को देखकर गायब हो जाती है। वो प्रेमा है। नेपाली मूल की है। हमारे गाँव में रहती है। मैं जब भी गाँव आता हूँ उसके साथ खेलता हूँ। वो मुझसे काफी बड़ी है। वो बीस-पच्चीस  साल की होगी और मैं दस साल का हूँ।

 

दो तीन साल पहले की बात है जब शाम को वो घर जाने लगी तो मैं रोने लग गया था। मैं रोते हुए कह रहा था- "यख ही रुक ना प्रेमा। यु भी त तेरु ही घौर च। आज रात यख ही रुक जा।(यहीं रुक जा न प्रेमा। ये भी तो तेरा ही घर है। आज रात यही ही रुक जा।)" 


मेरे परिवार वाले हँसने लगते हैं। मेरी माँ कहती है - "अरे वख वी कु पति च। पति का घौर ही असल घौर होंदु। भोल ए जाळी व। अरे उधर उसके पति का घर है। पति का घर ही असल घर होता है। कल आ जायेगी वो।)"


"न न मिन नि जाण देन। मिन ब्यो करण प्रेमा दगड़ी। फिर हम साथ रोला।(नहीं नहीं मैं नहीं जाने दूँगा। मैं प्रेमा के साथ शादी करूँगा। तब हम साथ रहेंगे।)"


मेरे इस तर्क पर सभी हँसने लगते हैं। प्रेमा भी खिलखिलाने लगती है। उसकी बादामी आँखों में चमक है। उसकी हँसी देखकर मैं भी रोने भूल जाता हूँ और मेरे होंठो पर भी हँसी आ जाती है।


"मेरि दगडी ब्योह कर लि। थोड़ा बडू त ह्वे जा तब करला ब्यो। ठिक च।(मेरे साथ शादी करेगा। थोड़ा बड़ा तो हो जा। फिर करेंगे शादी। ठीक है।)" वो मेरे सिर को सहलाते हुए कहती है।"अभि मि थे जाण दे।(अभी मुझको जाने दे।)"


मैं कुछ नहीं बोलता हूँ लेकिन वो मेरे गालों को चूम लेती है।"अब भोल मिल्ला ठिक च। (अब कल मिलेंगे ठीक है।)"


मैं उसे जाता हुआ देखता हूँ। मेरे आँखों में आँसू बह रहे हैं। फिर मैं एक कमरे में जाकर रोते रोते सो जाता हूँ। मुझे यकीन है वो नहीं आएगी। और ऐसा ही हुआ था। हमे वापस आना पड़ा था और अगले साल ही प्रेमा से मिला था। वो प्रेमा अलग प्रेमा थी। जैसे कोई फूल मुरझा गया हो। उस साल मैं उसके लिए रोना चाहता था लेकिन रोया नहीं था। वो मेरे साथ खेली नहीं थी बड़ों के साथ ही काम में लगी हुई थी।


और अब मैं उसे इस झाड़ी के पीछे देख रहा हूँ। उसकी बादामी आँखों में एक दहशत है। वो मुझे देखती है और कहती है।


"गौ जाणी छे।(गाँव जा रहा है।)"


मैं सहमति में सिर हिलाता हूँ। और रास्ते की तरफ देखता हूँ। वो भी देखती है फिर हल्के से कहती है।


"गौ में रव्वी थे बोळी मि य्ख्मा वे थे जग्वाळणू  छौं। जल्दि ए जा। वे थे पता चल ग्यायी। वु पागल हुयूं च।(गाँव में रवि से कहना मैं इधर इन्तजार कर रही हूँ। जल्दी आ। उस पता चल गया है। वो पागल हो गया है।)"


मैं घबरा जाता हूँ। वो मुझे झाड़ी से दूर हटाते हुए बोलती है। "जा अब के और थे न बताई कि मि यख छौं।(जा अब। किसी और से मत बताना कि मैं यहाँ हूँ।)"


मैं आगे भाग जाता हूँ और वो झाड़ी के बाद जंगल में ओझल हो जाती है। मैं थोड़ी देर बाद अपने रिश्तेदारों का इंतजार करने लगता हूँ। अकेले जाने की हिम्मत मुझ में  नहीं है।


वो आते हैं तो मैं बुआ से पूछता हूँ - "यु रव्वी कु कूडु कु च।(ये रवि का घर कौन सा है?)"


"पंदरे का नजदीक च(पंदरे के नजदीक है।)", वो मुझे सवालिया निगाहों से देखते हुए कहती हैं,"किले? (क्यों?)"


"इन्नी पुछ्णु छौं। पिछला बार आयूँ छौ त ऊँ मिथे टॉफ़ी दी छायी और हमन क्रिकेट भी खेली छौ।(पिछले बार आया था तो उन्होंने टॉफ़ी दी थी और उनके साथ क्रिकेट खेला था।)", मैं झूठ बोल देता हूँ। बुआ हमारे साथ पिछले बार नहीं थी। उन्हें क्या पता चलेगा।


हम गाँव पहुँचते हैं। गाँव में रव्वी के घर के बाहर खड़े होकर बुआ उसके विषय में पूछती है। वो उसी सुबह दिल्ली के लिए दूसरे रास्ते से निकल चुका होता है। मैं चुप हो जाता हूँ। और उस रात बिना किसी से ज्यादा बात किये सो जाता हूँ।


सुबह नींद देर से खुलती है।  दिन निकल आया है। नौ दस बजे का वक्त होगा। छुट्टी है तो घर वालों ने भी उठाने की जहमत नहीं की है। मैं चाय के लिए किचन की तरफ बढ़ता हूँ। किचन के बाहर बुआ और माँ आपस में बात कर रहे हैं।


"जंगल मा मिली।(जंगल में मिली।)"


"कैन मारी होलु।(किसने मारा होगा?)"


"वे न ही। पहली शराब पीकर मरदू छौ। अर अब...(उसी ने ही। पहले शराब पीकर मारता था। और अब....)"


तब तक माँ की नजर मुझ पर पड़ती है और उनका वाक्य अधूरा छूट जाता है। मेरा दिल बैठा जा रहा है। मैं पूछता हूँ,"कै थे मारि?(किसे मारा?)"


"कै थे न। तिन चाय पीण? चाय बनाण प्व्डली। चल तब तक ब्रश करे आ। (किसी को नहीं। तूने चाय पीनी है? चाय बनानी पड़ेगी। चल तब तक ब्रश करके आ।)" कहते हुए माँ मुझे लेकर बाहर जाती है और बुआ को इशारा करती है। 


इसके बाद कुछ ज़िक्र नहीं होता है। मैं भी भूल जाता हूँ।


प्रेमा!! हाँ वो मुझे उसके बाद नहीं दिखती है। 


****

(6)


मैं आँखें खोलता हूँ। सिगरेट का एक कश और लेता हूँ। फोटो अधजली से सामने पड़ी है। मैं दोबारा उसे आग से छुआता हूँ और जब तक जलती नहीं है तब तक उधर बैठा रहता हूँ। फिर मैं लिफाफा उठाता हूँ। उसमें मेरे सिवा किसी और का पता नहीं है। मैं उसे भी आग के हवाले कर देता हूँ। फिर मैं उठता हूँ और अपने लिए एक पेग बनाने के लिए बढ़ता हूँ।

 

मेरे हाथ में एक जाम है। मैं उसमें बर्फ मिलाता हूँ। और फिर  घूँट लेता हूँ। गिलास के एक हिस्से में पानी की बूँदे उग आई हैं। मैं उसे उठाकर आँखों के सामने ला जाता हूँ। सब कुछ भूरा भूरा सा लग रहा है। और इसी भूरे में मुझे अपने सामने एक आकृति खड़ी दिखती है। मेरे हाथ से गिलास छूट जाता है।  फर्श पर गिरकर वो टूटता नहीं है बस उससे शराब छलक कर बाहर आ जाती है। वो अभी भी मेरे सामने है। उसकी बादामी आँखों में आज दहशत नहीं है। उसकी आँखों में चमक है। ख़ुशी की चमक है।  मेरी आँखों के आगे अँधेरा छाने लगता है। मैं धम से बैठ जाता हूँ।


*****

(7)


मैं होस्पिटल में हूँ। मैं आँखें खोलता हूँ।  डॉक्टर का कहना है हार्ट अटैक है। आजकल चालीस साल की उम्र में आ जाता है। उसका कहना है अच्छा हुआ जल्दी इलाज मिल गया। वरना मैं बच नहीं सकता था।


पता चलता है चौकीदार से कॉल किया था।


****

(8)

मैं घर पहुँचता हूँ। बिल्डिंग के चौकीदार का शुक्रिया अदा करता हूँ। मैं उसे पाँच हजार रूपये देता हूँ। शुक्रिया करने का इससे बेहतर तरीका मुझे नहीं आता है। वो लेने से मना करता है। लेकिन मैं ज़िद करता हूँ तो वो पकड़ लेता है।


"आखिर तुम्हे पता कैसे लगा।"


"प्रेमा मैडम का कॉल आया था। वो लापरवाही से कहता है।"


मैरे आँखों में उठते प्रश्न को वो ताड़कर कर कहता है। 


"आपके फ्लैट से ही कॉल आया था। आपके मोबाइल से ही। उन्होंने कहा वो नयीं है इधर तो उन्हें कोई आईडिया नहीं है।"


"मैं हैरान सा उसे देखता हूँ। वो कहाँ गई।"


"पता नहीं। जब फ्लैट में पहुँचा तो वो नहीं थी। वैसे भी मुझे लगा आपकी दोस्त होंगी।",वो मुझे इशारे से कहता है। मुझे पता है वो किन दोस्तों की बात कर रहा है।


मैं सहमति  में सिर को जुम्बिश देता हूँ। मैं अपने फ्लैट की तरफ बढ़ने लगता हूँ।


इश्क! मुझे नहीं पता वो क्या है। हाँ, कभी वो मौत लाता है और शायद कभी दर्द। 


अच्छा हुआ मुझे कभी इश्क नहीं हुआ। 

        समाप्त


रैबार - सन्देश 


© विकास नैनवल 'अंजान'


11 टिप्पणियाँ

आपकी टिपण्णियाँ मुझे और अच्छा लिखने के लिए प्रेरित करेंगी इसलिए हो सके तो पोस्ट के ऊपर अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा।

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" रविवार 19 नवम्बर 2023 को लिंक की जाएगी ....  http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !

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    1. हलचल विद फाइव लिंक्स में मेरी रचना को शामिल करने हेतु हार्दिक आभार।

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" रविवार 19 नवम्बर 2023 को लिंक की जाएगी ....  http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !

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  3. आपकी इस उत्कृष्ट रचना की तुलना उस मदिरा से करना उचित होगा जिसका नशा धीरे-धीरे चढ़ता है और उसके बाद लम्बे समय तक दिलोदिमाग़ पर छाया रहता है। इस रचना के सम्पूर्ण प्रभाव को आत्मसात् करने में मुझे निश्चय ही समय लगेगा तथा वह प्रभाव अस्थायी नहीं होगा।

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  4. अच्छी कहानी है। शब्दो का अच्छा प्रयोग।
    प्रेम और इश्क के सही मायने बताती आपकी यह कहानी दिल को छू जाती है। बधाई

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  5. बरसों पहले अंग्रेज़ी में एडगर एलन पो की कहानियाँ पढ़ी थीं। हिन्दी में वैसा कुछ पढ़ा नहीं था। अंग्रेज़ी में ही MISTY या MISTRY कॉमिक्स में भी बड़ी उम्दा-उम्दा कहानियाँ पढ़ी थीं। जिन्हें पढ़ते ही दिल और दिमाग स्पीड से दौड़ने लगता था। कुछ खलल सी भी पैदा हो जाती थी दिमाग में।
    कुछ रोमांचक आईडियाज़ भी सूझने लगते थे।
    यह कहानी भी कुछ कुछ वैसी ही हरारत उत्पन्न करने वाली है।

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    1. कहानी के विषय में आपके विचार जानकर अच्छा लगा। आपकी टिप्पणी और बेहतर लिखने के लिए प्रोत्साहित करेगी।

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