अनुभव: चौथा नोएडा पुस्तक मेला

 

नोएडा बुक फेयर की झलकियाँ

पुस्तक मेले की खबर मिलती है तो मैं उत्साहित होने से खुद को नहीं रोक पाता हूँ। पाठक के तौर उधर जाना मतलब दोस्तों से मिलना जुलना हो जाता है। कई दोस्तों से जिनसे व्यस्तता के चलते मिलना नहीं हो पाता है उनसे भी मिलना हो जाता है। साथ में पुस्तकों की खरीद तो होती है। 

पर अब मेरे पास पुस्तक मेले में जाने के दो कारण होते हैं। पाठक के रूप में वहाँ जाने की खुशी तो रहती है लेकिन फिर चूँकि अब साहित्य विमर्श प्रकाशन का हिस्सा भी हूँ तो पुस्तक मेले से अलग तरह का संबंध भी होता था। यानी दुकान के इस तरफ और उस तरफ रहने का मौका मिलता है। पर इसमें भी एक पेंच है। साहित्य विमर्श प्रकाशन एक तरह से सभी साथियों का पैशन प्रोजेक्ट है। हम लोग शौक की तरह इसे चलाते हैं और मुख्य काम कुछ और करते हैं तो हर पुस्तक मेले में प्रकाशक के तौर पर शरीक हो पाना हमारे लिए संभव नहीं हो पाता है। फिर भी जब आसपास मेला लगता है और मौका मिलता है तो मेले में हम शामिल करने की कोशिश करते हैं। इसके पीछे एक कारण तो पुस्तकों को पुस्तक मेले के माध्यम से पाठक तक ले जाना होता है लेकिन इसके साथ साथ शामिल होकर पाठकों से बातचीत करना भी एक मकसद होता है। पाठकों से बातचीत करके  ये जानने का अवसर मिलता है कि उन्हें आजकल क्या पसंद आ रहा है। यह जानकारी प्रकाशक के तौर पर हमारे लिए बड़ी काम की होती है क्योंकि आगे क्या प्रकाशित करना है ये निर्णय लेने में ये हमारी मदद करता है।

ऐसे में जब नोएडा पुस्तक मेले की खबर मिली तो यही सब सोचकर उसमें शामिल होने का प्रोग्राम हम लोगों ने बना लिया। क्योंकि नोएडा में मेला था तो मेरे लिए नजदीक ही था। ऐसे में मुझे शामिल होंने में कोई दिक्कत नहीं थी। इसके साथ साथ हमने एक वालन्टीर भी मदद के लिए रख दिया था। 

साथ में एक टीम के सदस्य को आना था लेकिन अचानक तबीयत बिगड़ने के चलते उनका आना स्थगित हो गया। वो सदस्य आखिरी दिन आए थे और मेले को समेटने में उन्होंने मदद की थी।  

पहले हमें लगा था क्योंकि दिल्ली के पुस्तक मेले में ठीक ठाक संख्या में पाठक आ जाते हैं तो यहाँ भी अच्छे स्तर पर पाठक पहुँच जाएँगे लेकिन जैसे जैसे पुस्तक मेले के दिन बीतते रहे वैसे वैसे चीजें साफ होती रहीं। यह पुस्तक मेला नोएडा हाट में 7 से 15 अक्टूबर तक चला था और आखिर के दिन को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर दिनों में मुश्किल से ही कोई इक्का दुक्का पाठक मेले में मौजूद था। 

इससे एक चीज तो ये हुई कि मेरे पास पूरा दिन खाली था और मेरे काम में मुझे दिक्कत नहीं आई। सब काम समय पर होता रहा। फिर दूसरा फायदा ये हुआ कि बहुत दिनों बाद मेट्रो का दो ढाई घंटे से ऊपर का एक तरफ का सफर करने को हुआ और मेले में भी काम के बाद काफी समय मिल गया तो काफी रचनाएँ पढ़ने का मौका मिल गया। 

इसके साथ साथ जितने भी लोग मेले में आए थे उनमें से जितनों से बात हो पाई और जितना मैं पाठकों के रवैये को देखकर जान पाया वो कुछ यूँ था:

  1. पाठक आज भी हिंदी की पुस्तकें पढ़ना चाहते हैं लेकिन चूँकि हमारे पास कैटलॉग कम है तो उनके लिए उतने विकल्प नहीं थे। हाँ, अधिकतर पाठक प्रेमचंद, शिवानी, सुरेन्द्र मोहन पाठक इत्यादि से आगे नहीं बढ़ पाए हैं। उन्हें नए लेखकों को पढ़ने के प्रेरित करने के लिए अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती है। उन्हें मनाना पड़ता है और कई पाठक मान भी जाते हैं। एक पाठक तो बाल साहित्य में भी प्रेमचंद को खोज रहे थे जबकि प्रेमचंद अपने बाल साहित्य के लिए इतना नहीं जाने जाते हैं। उन्होंने जब सुना कि प्रेमचंद का बाल साहित्य हमारे पास नहीं है तो वो इतनी तेजी से स्टॉल से निकले जैसे उन्हें डर हो कि मैं जबरदस्ती अपने नए लेखकों की रचना उन्हें न थमा दूँ। 
  2.  हिंदी बाल साहित्य की भी मेले में काफी माँग थी। ये आश्चर्य में डालने वाली बात थी कि इस समय अभिभावक चाहते थे कि उनके बच्चे हिंदी साहित्य पढ़े। यह इसलिए  भी था बच्चों को उन्होंने हिंदी से इतना अलग कर दिया है कि अब हिंदी उनके लिए कठिन भाषा हो चुकी है। ऐसे में हिंदी में अच्छे अंक लाना उनके लिए टेढ़ी खीर हो जाती है। शायद इसलिए भी बच्चे हिंदी पढ़ने से कतराते हैं। क्योंकि जहाँ अभिभावक चाहते थे बच्चे हिंदी की पुस्तक पढ़ें वहीं अधिकतर बच्चे इंग्लिश पढ़ने की बात ही कर रहे थे। अभिभावकों के कई बार कहने पर भी वो हिंदी की पुस्तक चुनने के लिए राजी नहीं थे। परंतु जब बच्चों से मैंने पूछा कि अंग्रेजी में क्या पढ़ना पसंद करते हैं तो उन्हें अंग्रेजी की पुस्तकों के बारे में भी इतना नहीं पता था। मैं यह इसलिए भी जानना चाहता था क्योंकि साहित्य विमर्श में तरह तरह का बाल साहित्य लाने में जोर दे रहे हैं। ऐसे में कोशिश की थी देखा जाए हिंदी में कमी क्या है और उस कमी को अपने लेखकों से साझा किया जाए। फिर साथ-साथ हम पैलेट बुक्स के माध्यम से अंग्रेजी में लिखी रचनाएँ भी ला रहे हैं। ऐसे में पाठकों की राय जाननी जरूरी हो जाती है पर इधर पसंद की रचनाओं का सवाल नहीं था। बस उन्हें ये पता था कि उन्हें अंग्रेजी में ही पढ़ना है। यह देखना थोड़ा खराब लगा था क्योंकि रुचि सामग्री को लेकर नहीं भाषा को लेकर थी। यहाँ मैं ये नहीं कहूँगा कि हिंदी और अंग्रेजी बाल साहित्य के मामले में बराबर है। अभी भी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के बाल या किशोर उपन्यास हमारे पास हिंदी में नहीं आते हैं। चूँकि मैंने अंग्रेजी बाल और किशोर साहित्य काफी पढ़ा है और अभी भी उसमें रुचि रखता हूँ तो मुझे ये पता है अंग्रेजी में बाल पाठकों के लिए काफी कुछ है जिसका आधा प्रतिशत भी हिंदी में नहीं होगा। ऐसे में भले ही बच्चे अंग्रेजी में अभी नाम नहीं गिना पा रहे हों लेकिन जैसे जैसे वो साहित्य की दुनिया में जाएँगे तो वो इतने नाम जान लेंगे कि हिंदी के रचनाकार अपने आप प्रतिस्पर्धा से बाहर हो जाएँगे। ऐसे में अब हिंदी के रचनाकारों पर ये अतिरिक्त भार है कि कैसे वो अंतर्राष्ट्रीय स्तर की रचनाएँ लाते हैं। इससे एक तो उनका पाठक वर्ग बढ़ेगा साथ ही अगर अंग्रेजी में उनका अनुवाद होगा तो ऐसे बच्चे जो हिंदी नहीं पढ़ना चाहते हैं वो भी उन्हें पढ़ेंगे। फिर शायद वो मूल रचना पढ़ना चाहें। खैर ये तो आगे की बात है लेकिन इधर बच्चों की  हिंदी न जानने की परेशानी जायज थी और इसलिए मैंने कुछ अभिभावकों को कहा कि वो अखबार या पत्रिका घर में लगाएँ और साथ में उन्हें उन प्रकाशनों के स्टॉल जैसे कि नैशनल बुक ट्रस्ट,साहित्य अकादेमी और एकतारा  के स्टॉल पर भेजा जो बाल और किशोर साहित्य ही प्रकाशित करते हैं। अभिभावकों ने हमारी पुस्तकें तो खरीदी ही लेकिन ये देखकर अच्छा लगा कि उन्होंने वहाँ जाकर भी पुस्तकें ली। 
  3. तीसरा अनुभव नया नहीं है और ये तो अक्सर होता है। वो है किताबों  का महंगा लगना। पर इस बार ये संख्या कम थीं। आज भी व्यक्ति को किताबों पर खर्च करना महंगा लगता है। वो इसी फिराक में  रहते हैं कि पचास प्रतिशत चालीस प्रतिशत डिस्काउंट में चीजें मिल जाएँ जो कि हम जैसे स्वतंत्र प्रकाशक के लिए मुश्किल ही होता है। ऐसे में ना चाहते हुए भी हमें सेल से इंकार करना पड़ता है। इस बार तो पब्लिक भी कम थी तो ऐसे लोग भी कम थे लेकिन फिर भी थे। हाँ, 100 रुपये प्रति किताब वाले स्टॉल में बिक्री होती थी। आज भी लोग सेकंड में सस्ता खरीदना चाहते हैं। इसमें कुछ गलत भी नहीं है। मैंने भी उधर से काफी किताबें ली थीं। 
  4.  चौथा अनुभव ये था कि क्योंकि पुस्तक मेला एनसी आर में है तो इसका मतलब ये नहीं कि लोग आएँगे ही। एक अच्छा आयोजक होना भी जरूरी है। इस बार जो आयोजन उडीची फाउंडेशन द्वारा किया गया था लेकिन उनकी पब्लिसिटी इतनी अच्छी नहीं थी। नोएडा हाट में मेला था और नोएडा सिटी सेंटर नजदीकी मेट्रो स्टेशन था पर वहाँ भी बैनर नहीं था। कम भीड़ होने का एक कारण ये भी था। अगर प्रचार अच्छा होता तो शायद पाठक अच्छी तादाद में आते और स्टॉल लेने वाले खुशी खुशी जाते पर इस बार तो सबके चेहरे उतरे हुए थे। खैर, हम तो नौसीखिए हैं लेकिन उधर ऐसे कई लोग थे जिनका मुख्य काम ही यही है और वो भी पाठकों की कम भीड़ होंने के कारण परेशान थे। आखिरी मैपल प्रेस का स्टॉल देखने वाले भाई से बातचीत हुई थी तो उन्होंने बताया कि इससे ज्यादा पाठक तो कई बार ऐसे मेलों में आते हैं जो दो दिन के लिए ही होता है। मेरी बात उन बुजुर्गवार से भी हुई थी जिन्होंने 100 रुपये प्रति किताब वाला स्टॉल लगाया था। वो भी इसी बात से दुखी थी कि आम पुस्तक मेले से कम खरीद थी जबकि पुस्तक मेले में सबसे ज्यादा भीड़ उनके यहाँ थी।  इस बात ने मुझे और टीम वालों को काफी कुछ सोचने के लिए दिया था। 
  5. इसके अतिरिक्त लेखक बनने के इच्छुक लोगों, साहित्यकारों से भी मिलना हुआ। प्रसिद्ध कवि लीलाधर मंडलोई जी स्टॉल पर आए थे तो वो भी ये जानने के इच्छुक थे कि आजकल क्या पढ़ा जा रहा है और कौन सी जॉनर (genre) के उपन्यास अधिक बिकते हैं। पेंगविन बुक्स में संपादक सुशांत झा जी भी स्टॉल पर आए थे तो उनसे भी थोड़ी बातचीत हुई। 

खैर, मेले के ये दस दिनों में पाठक भले ही नामात्र आए हों लेकिन इसने अनुभवों में काफी इजाफा किया। जितने पाठक आए उनसे हुई बातचीत ने समृद्ध ही किया। कुछ नवीन लेखकों से भी बातचीत हुई। 

मेले में उत्तराखंडी लोग भी मिले। एक भाई साहब ने जब मेरे अनुवादों में देखा तो मुझसे पूछा कि मैं कहाँ का हूँ और फिर पाँच दस मिनट हम गढ़वाली में ही बातचीत करते रहे। इसके अतिरिक्त एक मैम जो कि संस्कृत की टीचर थीं ने बातों के दौरान पूछा कि क्या मैं पहाड़ से हूँ तो मेरे हामी भरने पर उन्होंने बताया कि वो संस्कृत की टीचर हैं। वो रानीखेत की थीं। पहाड़ से कोई मिले तो अच्छा लगता है। 

साथ ही काफी कुछ पढ़ने का मौका मिला और आखिरी के दिन कुछ काफी कुछ खरीदारी भी की। 

मेले में जिन लोगों ने काफी मदद की वो थे:

हर्ष 

वालन्टीर के रूप में हर्ष साथ में आए थे। वो नौ दिन साथ में रहे। उन्होंने अभी अनिमेशन की पढ़ाई की है। साहित्य में उनकी इतनी रुचि नहीं थी लेकिन वहाँ बैठकर उनकी जिज्ञासा जागृत हुई थी और उन्होंने काफी सवाल दिए थे। उनसे काफी बातचीत वहाँ बैठे बैठे हुई। जिसमें मुझे भी मज़ा आया। स्टॉल पर जितने लोग आते थे उनकी फोटो खींचने का जिम्मा उनका ही था। अपना काम उन्होंने सही तरह से निपटाया था। 

मनीष भाई

मेले के पहले दिन मदद के लिए मनीष भाई आए थे। मनीष भाई साहित्य विमर्श टीम के हिस्से हैं। वो एक भाषाविद हैं और स्पेनिश के जानकार हैं। फ्रीलांस काम करते हैं और साहित्य विमर्श के सदस्य हैं। साथ में स्टॉल सजावट के एक्सपर्ट हैं तो वो ही आकर सजा कर चले गए थे। मुझे ये सजावट वाले काम नहीं होते और अगर वो निर्देश न देते तो उतनी अच्छी तरह से स्टॉल सज न पाता। (मनीष भाई के साथ मैंने ग्वालियर की यात्रा की है जो कि मजेदार हुई थी। उसका वृत्तांत आप यहाँ क्लिक कर पढ़ सकते हैं। )


इसके अतिरिक्त कुछ दोस्त भी मेले में मिलने आए। उनके आने से बोरियत भरा वक्त आसानी से कट गया। 

पराग डिमरी जी नोएडा की तरफ ही रहते हैं। वो अपनी धर्मपत्नी के साथ आए थे और उन्होंने मेरी पुस्तक लेकर मुझे प्रोत्साहन दिया। इसके साथ ही संगीत से जुड़ी कुछ अच्छी पुस्तकें उन्होंने ली थी जिन्हें उन्होंने बड़े चाव से मुझे दिखाया।  पराग जी की संगीत में विशेष रुचि है और उनके साथ कई म्यूज़िकल नाइट्स में जाने का मौका मिला है। इसके अलावा उन्होंने संगतीतज्ञ ओ पी नैयर पर किताब दुनिया से निराला हूँ, जादूगर मतवाला हूँ, कहानी संग्रह अधूरा अव्यक्त किंतु शाश्ववत और संगतीतज्ञ श्रवण राठोर पर किताब हाँ, एक सनम चाहिए आशिकी के लिए भी लिखी है इन्हें पाठकों से भरपूर प्यार मिला है। 

पराग जी के अलावा मेले के आखिरी दिन योगेश्वर भाई और शशिभूषण भी आए और स्टॉल खत्म करने तक साथ में  रहे। योगेश्वर भाई और शशि भई बड़के पाठक हैं। ली चाइल्ड के बड़े वाले फैन हैं योगेश्वर भाई और यात्रा वो रीचर की तरह कम से कम सामान के साथ करना पसंद करते हैं। योगेश्ववर भाई भी बड़े पढ़ाखूँ हैं। हिंदी अंग्रेजी सब पढ़ते हैं। वहीं शशि भाई ने लोकप्रिय साहित्य को घोंटकर पिया है और साथ ही बिमल मित्र के भी काफी बड़े फैन हैं। ऐसे में शशि भाई और योगी भाई से बात करने के लिए काफी कुछ मिल जाता है। (योगी भाई के साथ तो एक किताबी यात्रा भी की है जिसमें बड़ा मजा आया था । उस यात्रा के विषय में यहाँ क्लिक करके पढ़ा जा सकता है।) उन्होंने न केवल बातचीत कर मन बहलाया बल्कि स्टॉल को समेटने में भी काफी मदद की। 

साथ में साहित्य विमर्श टीम के अन्य सदस्य अभिषेक राजावत भी आए थे। उनका अपना एक उपक्रम बुक बाबू स्टूडियो है जहाँ वो किताबों के ट्रेलर, कवर इत्यादि पर कार्य करते हैं। साथ में ऑडियो शो लेखन भी करते हैं और उपन्यास हो या कहानी संग्रह उसे रॉकेट की स्पीड से पढ़ना पसंद करते हैं। वैसे तो उन्होंने पूरे नौ दिन रहना था लेकिन अचानक से तबीयत खरीब होने के चलते आना न हो पाया। आखिरी के दिन भी मैंने जबरदस्ती बुलाया ताकि बची हुई किताबें उनके पास पहुँचा दी जाएँ। उनकी तबीयत अभी भी नासाज ही लग रही थी। खैर, वो आए और आखिरी दिन हमने काफी किताबें भी खरीदीं। 

खैर, इतने दिनों बाद दोस्तों से मिलना जुलना हो गया जिसमें मुझे तो बहुत मज़ा आया। 

अब चलिए पुस्तक मेले की कुछ तस्वीरें देखिए:


मनीष भाई (बाएँ) और हर्ष (दायें)। मनीष भाई मेरी तरह साहित्य विमर्श टीम के सदस्य हैं। उन्होंने शनिवार को आकर स्टाल सेट अप करने में मदद की थी और उसे सजाया सँवारा था। मैं इन सजाने सँवारने वाले मामलों में थोड़ा पीछे ही रहता हूँ। हर्ष इन नौ दिनों में मेरे साथ थे और उन्होंने भी काफी मदद की थी। हर्ष ने अभी कॉलेज खत्म किया है और अब नौकरी ढूँढ रहे हैं तो उनके लिए भी ये सीखने वाला अनुभव रहा होगा। मेले में  अधिकतर  फोटो हर्ष ने ही ली थीं। 




लेखक और मित्र पराग डिमरी जी के साथ। फोटो मैम, पराग जी की धर्मपत्नी जी,ने ली थी

मैं योगी भाई और शशि भाई ; बाएँ से दायें। सामने मैपल प्रेस वाले स्टॉल के भाई अपने अनुभव साझा करते हुए 


स्टॉल पर आये कुछ पाठक

स्टॉल पर आये कुछ पाठक

स्टॉल पर आये कुछ पाठक

स्टॉल पर आये कुछ पाठक






किताब खरीद 

पुस्तक मेला हो और किताबें न खरीदें ऐसे तो हो नहीं सकता था। इस पुस्तक मेले में मैंने सोचा था कि आखिरी दिन मैं खरीददारी करूँगा। ऐसा इसलिए भी था क्योंकि पुस्तकों के स्टॉल पर जब मैं जाता हूँ खुद को कुछ पसंद का खरीदने से नहीं रोक पाता हूँ। अपने प्रण को मैंने मेले के 7 दिन तक सफलता पूर्वक निभाया। 


पर एक दिन पहले ही मेरा साहित्य अकादेमी जाना हुआ और वहाँ से 20 प्रतिशत के डिस्काउंट पर क्योंकि पुस्तकें मिल रही थीं तो मैंने वो ले लीं। गया तो मैं नैशनल बुक ट्रस्ट के स्टॉल पर भी था लेकिन क्योंकि उधर डिस्काउंट नहीं था तो `उधर से कुछ नहीं लिया। नैशनल बुक ट्रस्ट की वेबसाईट से खरीद करने पर दस से बीस प्रतिशत डिस्काउंट मिल जाता है। ऐसे में साइट से ही खरीद करना मुझे मुफीद लगा और मैं किताबों के नाम नोट करके ले आया। 

आखिरी दिन मैं एक और स्टॉल पर गया जहाँ 100 रुपये में किताब मिल रही थी। मैं काफी दिनों से रिक रिऑर्डन के उपन्यास पढ़ना चाहता था। उधर कुछ दिखे तो लेने से खुद को रोक नहीं पाया। लेते लेते ये आँकड़ा अट्ठारह पुस्तकों पर जाकर रुका और एक पुस्तक स्टॉल के मालिक ने उपहार स्वरूप दे दी।  मेरे साथ साथ अभिषेक और योगी भाई ने भी पुस्तकें ली।  

आम पुस्तक मेले के हिसाब से तो ये खरीद कम ही थी। खैर, जो पुस्तकें ली वो निम्न हैं:

पुस्तक मेले से की गई खरीद

  1. पर्सी जैक्सन एण्ड द लाइटिनिंग थीफ - रिक रिऑर्डन (पर्सी जैक्सन एंड द ऑलिम्पियन्स #1)
  2. पर्सी जैक्सन एंड द  लास्ट ऑलिम्पियन - रिक रिऑर्डन(पर्सी जैक्सन एंड द ऑलिम्पियन्स #5) 
  3. द मार्क ऑफ एथेना - रिक रिऑर्डन  (हीरोज ऑफ ऑलिंप्स #3)
  4.  द टायरेंट्स टूम -  रिक रिऑर्डन (द ट्रायल्स ऑफ अपोलो #4)
  5. द हाउस ऑफ हेडस - रिक रिऑर्डन  (हीरोज ऑफ ऑलिंप्स #4)
  6. द सन ऑफ नेपट्यून - रिक रिऑर्डन (हीरोज ऑफ ऑलिंप्स #2) 
  7. द अल्टीमेट हिचहाइकर्स गाइड टू गैलक्सी - डगलस एडम्स
  8. प्रिटीज़ - स्कॉट वेस्टरफेल्ड 
  9. इनवीसीबल सिटी - एम जी हैरिस 
  10. आर्टीमिस फाउल एण्ड द अटलांटिस कॉम्प्लेक्स - ओहन कॉलफ (आर्टमीस फाउल #7)
  11. पॉइंट ब्लैंक - एंथोनि होरोविट्ज 
  12. फ़्रीडम - जोनाथन फ़्रेनजन 
  13. होरोविट्ज हॉरर - एंथनी होरोविट्ज 
  14. मैगपाई मर्डर्स - एंथनी होरोविट्ज 
  15. क्लब यू टू डेथ - अनुजा चौहान 
  16. माय फ्यूडल लॉर्ड - तहमीना दुरानी 
  17. थ्री ग्रेट मिस्टरी स्टोरीज - एनिड ब्लाइटन 
  18. बारथलेमस एण्ड द रिंग ऑफ सोलोमन - जोनाथन स्ट्राउड 
  19. द इंटरव्यू - मुकुल कुन्द्रा 
  20. जंगल के खजाने की खोज - सलीम सरदार मुल्ला 
  21. पक्या और उसकी गैंग - गंगाधर गाड़गील
  22. वनदेवी -  'कल्वी' गोपालकृष्णन 

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तो ये थे नोएडा पुस्तक मेले के अनुभव और उसमें की गई खरीद। क्या आपको पुस्तक मेला जाना पसंद है? वो आखिरी पुस्तक मेला कौन सा था जिसमें आप शामिल हुए थे? आपका उधर का अनुभव कैसा रहा था?

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