संस्मरण: मिलना जीत सिंह से

 'दुबई गैंग' लेखक सुरेंद्र मोहन पाठक द्वारा रचित जीत सिंह शृंखला का बारहवाँ उपन्यास है। यह उपन्यास जल्द ही साहित्य विमर्श प्रकाशन द्वारा प्रकाशित होगा। पेश है जीत सिंह मेरी पहली मुलाकात का संस्मरण। 





हो सकता है सुरेंद्र मोहन पाठक के दूसरे पाठकों को उनके अन्य किरदार पसंद आए हो लेकिन मेरे लिए जीत सिंह सभी किरदारों से अलग स्थान और अहम स्थान रखता है। इसका अपना कारण भी है। 
जीत सिंह की कोलाबा कॉन्सपिरेसी ही वह उपन्यास था जिससे मेरा उनकी लेखनी से परिचय हुआ था और फिर मैंने उनकी मार्केट में मौजूद में हर पुस्तक को ढूंढ ढूंढकर पढ़ा था। 

उन दिनों मैं मुंबई में रहा करता था। लोकल ट्रेन से वीरार से चर्चगेट आना जाना होता था। कमरा वीरार ईस्ट में था और दफ्तर कोलाबा में रेडियो क्लब के नजदीक। यानी वीरार से चर्चगेट और चर्चगेट से वीरार का लगभग एक डेढ़ घंटे का सफर करना ही होता था। अब लोगों के लिए यह सफर झेल हो सकता हो लेकिन मेरे लिए यह एक मौका होता था। मैं आते जाते किताबें पढ़ा करता था और अक्सर पचास साठ पेज एक तरफ के सफर में खत्म कर दिया करता था। मुंबई में रहकर इसलिए कई पुस्तकें पढ़ी गईं। 

जब ट्रेन में लोग अपने अपने ग्रुप में व्यस्त रहकर पत्ते खेलते थे, भजन करते थे, गाने गाते थे या कानों में हेडफोन ठूस फिल्में देखा करते थे तो मैं किरदारों में खोया रहता था। ऐसे ही दिन बीत रहे थे।

मुंबई लोकल की एक खास बात ये भी होती है कि अक्सर हर बड़े स्टेशन पर आपको एक न बुक स्टॉल मिल ही जाता है। ऐसे ही एक बड़ा स्टॉल चर्च गेट पर मौजूद था। यह स्टॉल मेरे लिए वही आकर्षण रखता था जैसे कि किसी बच्चे को टॉफी या खिलौने की दुकान का होता है। अक्सर ऑफिस जाने से पहले मैं यहाँ एक नजर मार देता था ताकि देख सकूँ कि कमरे की तरफ जाते हुए क्या लेना है। उस दिन भी रोज की तरह मैं इस स्टॉल पर गया। अपनी पसंद का कुछ न पाकर मैं ऑफिस की तरफ स्टॉल के बगल से निकला तो मेरी नजर स्टॉल के साइड में लगी कुछ किताबों पर लगी। यह किताबें शेल्फ में ऐसी लगी थी कि स्टॉल के बगल से गुजरते हुए भी आप इनके कवर देख सकते थे। इन्हीं के बीच एक ऐसा कवर था जिसने बरबस ही मेरा ध्यान खींच लिया और मेरे कदम रोक लिए थे। वो कोलाबा कॉनसपिरेसी का कवर था। 

कोलाबा कॉन्सपिरेसी



मेरा दफ्तर चूँकि कोलाबा था तो नाम ने ध्यान आकर्षित करना ही था। ऑफिस के लिए देर हो रही थी इसलिए उस वक्त तो मैं ऑफिस के लिए चला गया लेकिन नाम जहन में अटक गया। 

ऑफिस पहुँचा और रोज मर्रा के काम निपटाकर होम शॉप 18 की वेबसाईट खोल ली। उन दिनों किताबें मैं अक्सर इसी वेबसाईट से मँगवाता था। कुछ किताबें लेनी थी मुझे। ऐसे में सुबह देखी किताब का नाम टाइप किया तो वो भी उधर मिल गई और मैंने बिना किसी देरी के उसे मँगवा दिया। 

अब यहाँ बता दूँ कि किताबो को लेकर मेरी एक बुरी आदत भी है। मैं उत्साहित होकर किताबें मँगवा तो लेता हूँ लेकिन उसे पढ़ता आने के कई दिनों (कई बार तो वर्षों) बाद ही हूँ। इसका मुख्य कारण ये है कि तब तक किताब के प्रति सारी उत्सुकता और अपेक्षाएँ खत्म हो जाती हैं और मेरा अनुभव रहा है कि बिना किसी अपेक्षा से आप किसी किताब को पढ़ो तो आप उसका लुत्फ अधिक उठा पाते हो। जबकि खरीदते वक्त क्योंकि आप उसके ब्लर्ब या किसी रिव्यू या किसी के सजेशन के कारण ही किताब खरीदी होती है हो तो तुरंत पढ़ें पर एक  तरह की अपेक्षा आपकी किताब से बँध जाती है। फिर अपेक्षा से अलग किताब निकले तो आप उसका लुत्फ नहीं उठा पाते हो। 
खैर, किताबे ऑर्डर करने के कुछ दिन बाद आई। कोलाबा उनके साथ आई थी और वो भी बकियों के साथ कोने में रख दी गईं।  

इस घटना को हुए दो तीन माह गुजर चुके होंगे। अब तक कोलाबा को पढ़ना नहीं हुआ था तो एक दिन कोलाबा को मैंने उठा लिया और उसे पढ़ना चालू किया। 

जीत सिंह के किरदार ने मुझे बाँध लिया। वह एक ऐसा व्यक्ति था जिसने प्रेम के खातिर गुनाह की ज़िंदगी में घुसने का फैसला किया और जब वो अपना वादा पूरा करके अपनी मोहब्बत के पास पहुँचा तो पाया कि वो वादा करने वाली किसी और की हो गई थी। अब वो ही मोहब्बत दोबारा जीत के सामने थी और जीत को उसकी जान सांसत से निकालनी थी। किरदार और कथानक ने मुझे बाँध दिया था। पर होनी को तो कुछ और मंजूर था। तभी ऐसी घटना हो गई कि जिसे मेरी पुस्तक खरीदने की प्रक्रिया में थोड़ा फेर बदल कर दिया। 

हुआ यूँ कि कथानक जब अपने अंत के करीब था (यानी लगभग पचास साठ पृष्ठ बचे थे) और एक एक शब्द महत्वपूर्ण हो चुका था तभी मेरे ऊपर गाज सी गिरी। रोमांच की जद में आकर ज्यों ही मैंने पृष्ठ पलटे तो पाया कि दो पृष्ठ खाली थे। उसके बाद फिर पृष्ठ पलटे तो पाया कि आगे के दस बारह पृष्ठ बाद ये खेल प्रकाशक द्वारा फिर मेरे साथ किया गया था। दो और पृष्ठ खाली थे। कुछ देर तक तो मैं सकते की ही हालत में बैठा रहा। 

किताब मँगवाए हुए काफी वक्त जो गुजर चुका था और पुस्तक वापस करने की मियाद भी खत्म हो चुकी थी। अब वो रास्ता तो बंद था। अब या तो नई पुस्तक मँगवाई जा सकती थी या फिर खाली पृष्ठों को अपनी कल्पना के माध्यम से भरना था। मैंने दूसरा रास्ता चुना था क्योंकि मैंने कोलाबा आधी पढ़कर ही सुरेंद्र मोहन पाठक के दूसरे उपन्यास ऑर्डर कर दिए थे। सबसे पहला काम तो मैंने उन्हें चेक करने का किया और सबके पेज ठीक पाए और फिर अपनी काहिली को दोष देता उपन्यास खत्म करने में लग गया। 

आखिरकार उपन्यास खत्म हुआ। जीत सिंह के दूसरे उपन्यास मेरी राह देख रहे थे। लेकिन एक बदलाव तो मेरे अंदर आ गया था। अब जब भी किताब ऑनलाइन आती है तो मैं उसके पृष्ठ जरूर चेक करता हूँ। ऐसे झटके बार बार सहने की जो हिम्मत नहीं है। 

तो दोस्तों ये थी मेरी जीत सिंह से हुई पहली मुलाकात। 

जीत सिंह से पहली बार मिलकर मुझे एक ऐसे नये रचना संसार से वाकिफ हुआ था जिससे तब तलक अंजान ही था। 

अब दुबई गैंग आ रहा है तो फिर से उसे पढ़ने के लिए उत्साहित हूँ। यकीन मानिये भी झूठी औरत और पाँच दिन  मैंने अभी तक नहीं पढ़ा लेकिन जीते से उसके आते ही मिल लूँगा।

क्या आप जीत सिंह से मिले हैं? बताइए तो कैसी थी वो मुलाकात? 



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नोट: यह पोस्ट साहित्य विमर्श प्रकाशन में चल रही एक प्रतियोगिता के कारण लिखी गई थी। चूँकि मैं प्रकाशन से जुड़ा हुआ हूँ तो प्रतियोगिता में भाग तो नहीं ले सकता लेकिन फिर भी चूँकि विषय पसंद का था तो खुद को लिखने  से न रोक पाया। 

साहित्य विमर्श की पोस्ट ये रही:









आप भी चाहें तो अपना संस्मरण फेसबुक पर लिखकर पोस्ट कर सकते हैं। क्या पता आप ही दुबई गैंग की एक प्रति उपहार स्वरूप पा लें। 

8 टिप्पणियाँ

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  1. एक साँस में पढ़ गये। कितना अच्छा लिखते हैं, बहुत रोचक,उत्सुकता बनी रही अंत तक,लगा थोडा और पढ़ने मिल जाता...।
    --------
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार ९ जनवरी २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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    उत्तर
    1. जी संस्मरण आपको पसंद आया ये जानकर अच्छा लगा। धन्यवाद मैम। पाँच लिंकों का आनंद में जगह देने हेतु भी हार्दिक आभार।

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  2. आपके खट्टे-मीठे अनुभव आपके प्रशंसकों को कुछ शिक्षा भी देते हैं तथा आपके व्यक्तित्व के कुछ अधिक निकट भी लाते हैं। आभार आपका। मेरी दृष्टि में 'कोलाबा कॉन्सपिरेसी' जीत सिंह के श्रेष्ठ उपन्यासों में सम्मिलित है। जीत सिंह के प्रथम उपन्यास 'दस लाख' के उपरांत यही उपन्यास है जिसने भावनात्मक स्तर पर मुझे स्पर्श किया था।

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    उत्तर
    1. जी आभार सर। कोलाबा से ही जीत से जुड़ाव हुआ था तो मेरे लिए उसका विशेष स्थान है। कोलाबा आपको भी पसंद आया यह जानकर बहुत अच्छा लगा।

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