मेरठ की एक शाम, संगीत,नृत्य और साहित्य की जुगलबंदी के नाम

यह यात्रा 30 सितम्बर 2018 को की गई 

चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स में लगा पुस्तकों का स्टाल


पिछले सप्ताह की शुरूआत में चित्रकूट जाने का प्लान बना था। उधर दीपक भाई रहते हैं और उन्होंने समूह के सारे सदस्यों को आमंत्रित किया था। मेरा भी जाने का पूरा विचार था पर होनी को कुछ और मंजूर था। यह योजना अचानक बनी थी तो ट्रेन के टिकेट मिलना मुश्किल हो गई थी। अब मेरी बात मनीष भाई और योगेश्वर भाई से हो रही थी। उन्होंने विकल्प पूछा तो मैंने ढूँढकर यह ही बताया कि दिल्ली से झाँसी सीधा जाया जा सकता है और फिर फिर झाँसी से चित्रकूट दो सौ किलोमीटर से थोड़ा ऊपर था तो बस से जाया जा सकता था। ऐसे में यात्रा जरा मुश्किल हो जाती लेकिन करी जा सकती थी।

उसी वक्त एक और इवेंट के विषय में पता चला जो कि 30 को मेरठ में होने वाला था। मेरा मन इस इवेंट में जाने को हो रहा था। एक कारण तो यह था कि यह इवेंट साहित्य से जुड़ा था जिसके कारण मेरी रूचि इसमें थी। मीत भाई ने भी कई बार आने को बोल दिया था। और दूसरा कारण इसमें अंकुर भाई की किताब भी लांच हो रही थी। अंकुर भाई कानपुर में एक बैंक में कार्यरत हैं। उनके साथ मुलाकात कानपुर मीट  के दौरान हुई थी। इस मीट को उन्होंने भी पुनीत भाई के साथ मिलकर ही होस्ट किया था। ऐसे में इधर जाना बनता था। चित्रकूट में घूमना होता तो इधर भी दोस्तों के साथ अच्छे पल बिता सकता था और साथ अंकुर भाई को सप्पोर्ट भी कर सकता था। क्या किया जाये? कौन सा विकल्प चुना जाए? इसे पशोपेश में पूरा हफ्ता गुजरा और गुरुवार आया।

गुरूवार में मनीष भाई से बात हुई तो उन्होंने कहा कि वो तत्काल में टिकेट करवा रहे हैं और शुक्रवार शाम चार बजे की ट्रेन है। इसके लिए उन्होंने शुक्रवार को आधे दिन की छुट्टी ले ली है। मेरा छुट्टी लेने का इरादा नहीं था। वहीं योगेश्वर भाई का भी शुक्रवार को जाना मुश्किल था और मनीष भाई ने कहा मैं उनसे एक बार बात कर लूँ क्योंकि योगी भाई शनिवार शाम को जाने की बात कर रहे थे। वैसे मेरा शनिवार शाम को जाने का विचार नहीं था। ऐसा इसलिए क्योंकि सोमवार की छुट्टी नहीं थी। शनिवार शाम को निकलता तो रविवार सुबह पहुँचता और फिर रविवार शाम को वापस निकलना पड़ता। यह भाग दौड़ का काम हो जाता।

मैंने योगी भाई से यह बात की और उन्हें यह बताया। बातों के दौरान उन्होंने मुझे कहा कि अगर उनका चित्रकूट जाने का प्लान नहीं बनता है तो वो हरिद्वार जाना चाहेंगे और साथ में रविवार वाले इवेंट के लिए भी आना चाहेंगे। उन्हें स्नान करना था।मैं इसके लिए तैयार हो गया। मैंने उनसे कहा कि हम शनिवार रात को निकल सकते थे और सुबह हरिद्वार पहुँच जाते। वह स्नान करते और फिर हम हरिद्वार में भारत माता मंदिर घूमते। और दिन के वक्त मेरठ के लिए निकल जाते। इससे एक पंथ दो काज हो सकते थे।

उस वक्त वो इसके लिए तैयार हो गए थे। यह शुक्रवार रात की बात थी। शनिवार आया। दिन साधारण तरीके से बीता। मैं जिम भी गया और  योगी भाई का इंतजार करने लगा। उन्होंने प्लान पूछा तो बताया कि हरिद्वार के लिए गाड़ियाँ देर रात तक तो चलती हैं। उन्हें ही देख लेंगे। परन्तु यह प्लान भी डिब्बे में डालना पड़ा। ऐसा इसलिए करना पड़ा क्योंकि वो ग्यारह बजे तक तो काम में ही फँस गए थे। अब केवल मेरठ वाले इवेंट में जाना था। उसमें कोई कोताही नहीं चल सकती थी। यह सोचकर मैं सो गया।

सुबह उठा और वेद जी का उपन्यास लाश कहाँ छुपाऊँ पढ़ने लगा। इवेंट चार बजे से शुरू था। मैंने थोड़ा बहुत पता लगाया था तो अंदाज था कि दिल्ली से मेरठ तीन से चार घण्टे में पहुँचा जा सकता था।  मेरा ग्यारह बजे तक निकलने का प्लान था। और इससे पहले मैं वेद जी का उपन्यास लाश कहाँ छुपाऊँ पढ़कर खत्म करने की सोच रहा था। उपन्यास पढ़ते हुए,चाय पीते हुए और नाश्ता करते हुए ग्यारह कब  बज गए पता ही नहीं चला। उपन्यास को खत्म करके मैं तैयार हुआ और मेट्रो के लिए निकला। इसी दौरान कुलदीप भाई और योगी भाई से बातचीत हो चुकी थी। वो भी आने को तैयार थे। साथ मे शशि भाई और मीत भाई जो कि इवेंट में सूरज पॉकेट बुक्स की टीम में थे निकल गए थे। मीत भाई ने आने के लिए इतनी बार बोल दिया था कि मुझे शर्म सी आने लगी लगी। अब भी मैं न पहुंचता तो खुद को ही लानत देता।

कुलदीप भाई और योगी भाई से बात करके यह निश्चित कर लिया था कि वे लोग आनंद विहार बस अड्डे पर मुझे मिलेंगे।योगी भाई से फोन पर दोबारा बात हुई तो उन्होंने ट्रैन का विकल्प भी सुझाया। पर मुझे ट्रैन का कोई आईडीया नहीं था और ट्रेन के लिए एक बजे हजरत निज़्मुद्दीन पहुंचना पड़ता तो भागम भाग हो जाती। फिर उन्होंने ज्यादा फ़ोर्स नहीं किया। बाद में लगा कि उनकी बात मान लेनी चाहिए थी। उन्हें थोड़ा तो दबाब बनाना चाहिए था।

मैं वेद जी का उपन्यास तो पढ़ चुका था। अब मेट्रो से आनन्द विहार बस अड्डे तक का सफर करना था। इसके लिए मैं दो किताबें चुन चुका था। एक कुम्भ के मेले में मंगलवासी,जो कि अरविन्द मिश्र जी का विज्ञान गल्प(sci-fi) कहानी संग्रह है, थी और दूसरी जैक कौरक का उपन्यास ऑन द रोड था। मैने सोचा थ कि एक कहानी पढ़कर, उपन्यास शुरू कर लूँगा। मेट्रो का सफर भी कट जायेगा। यही सोचकर एम जी रोड पहुँच गया था और मेट्रो में बैठ गया था। इस दौरान कुलदीप भाई और योगी भाई से भी बात हो गई थी। कुलदीप भाई चूँकि बस से आने वाले थे तो उन्होंने सीधा आनंद विहार बस अड्डे पर ही मिलना था।
लाश कहाँ छुपाऊँ,कुम्भ के मेले में मंगलवासी और ऑन द रोड 

मेट्रो में कहानी संग्रह खोला और किताब की भूमिका और पहली कहानी अलविदा प्रोफेसर पढ़ी। इन सबको पढ़ने में और व्हाट्सएप्प की चैटिंग में पता ही नहीं चला कि मैं कब राजीव चौक पहुँच गया। इसके पश्चात मैंने राजीव चौक से वैशाली के लिए गाड़ी पकड़ी और मैं अब आनन्द विहार बस अड्डे के लिए चल पड़ा। मेट्रो से मैने योगी भाई को कॉल करके बताया कि मैं आनन्द विहार के लिए निकल चुका हूँ और उन्होंने मुझसे कहा कि वो भी आ रहे हैं। इस दौरान मैं व्हाट्सएप्प में लगा हुआ था। एक समूह में बातचीत के दौरान किसी ने कुरता फटने की बात की थी और इसके ऊपर मैंने एक कहानी लिखनी शुरू कर दी थी। छोटे छोटे दो पार्ट्स लिख दिए थे।(यह कहानी किसी और दिन ब्लॉग में डालूँगा। ) कुम्भ के मेले में मंगलवासी को तो मैंने बैग में डाल दिया था। और अब तीसरे पार्ट को लिखने में व्यस्त था। मैं इतना मशरूफ था कि मेरा बैग मेरे पीछे खड़े सज्जन को टच कर रहा था और उन्हें मुझे थोड़ा आगे सरकने को कहना पड़ा। मैंने माफ़ी माँगी और आगे हो गया। फिर लिखने में व्यस्त हो गया। ऐसे ही आनन्द विहार मेट्रो स्टेशन आ गया। मैं उतरा और लिखे हुए को कम्प्लीट करने में जुट गया।

कहानी का भाग खत्म करके उसे ग्रुप में ठेला ही था कि कुलदीप भाई का फोन आ गया। वो पहले ही आनन्द विहार बस अड्डे में पहुँच चुके थे। मैंने उनसे कहा कि मैं मेट्रो स्टेशन में पहुँच गया हूँ। योगी भाई आने वाले हैं तो उनके साथ ही आता हूँ। उन्होंने कहा वो बस अड्डे में थर्टी नाइन वाले प्लेटफार्म में हैं। मेट्रो में शोर था तो मैं थर्टी नाइन और फौर्टी नाइन में कंफ्यूज था। लेकिन यह फर्क तो उधर पहुँच कर कॉल करके मिटाया जा सकता था। अब योगी भाई का इंतजार था। मेट्रो आती तो मैं उसमें से योगी भाई को ढूँढता। मैंने उन्हें बता दिया था कि मैं सीढ़ी वाली जगह के निकट हूँ। इसी दौरान कई लोग मेरे पास आकर मुझसे पूछ रहे थे कि मेट्रो से सीधा बस अड्डे का रास्ता कौन सा जाता है। मैं खुद पहली बार आया था तो उन्हें क्या बताता। कई बार माफ़ी मांगनी पड़ी।

ऐसे ही एक ट्रेन और आई और लोग निकलने लगे। सभी निकल चुके थे और मुझे लगा अब अगली का इन्तजार करना होगा। तभी एक प्रचंड आवाज़ गूंजी ,मुझे लगा कोई आकाशवाणी हुई होगी,फिर सीढियों  की तरफ देखा तो योगी भाई हाथ उठाकर इशारा कर रहे थे। मैं अब उनकी तरफ बढ़ने लगा। उनकी बलशाली आवाज में ही इतना दम था जो मेट्रो के शोर को चीरते हुए मेरे कानों तक पहुँच सकती थी। मैं उनकी जगह होता तो शायद खुद चलकर जाने की सोचता। अब मैं जल्द से जल्द सीढ़ियों की तरफ बढ़ा और उनसे मिला। हम लोग गले मिले और नीचे की तरफ बढ़ चले।

हमे अब एग्जिट से निकलना था। मैंने उनसे पूछा कि आपको आईएसबी टी का रास्ता पता है तो उन्होंने हाँ बोला। अब उस वक्त मुझे नहीं पता था कि यह हाँ मेरे प्रश्न के उत्तर में था या नहीं। हमने गेट पार किया जिस दौरान उन्होंने बताया कि किस तरह वो अपना काफी सामान घर में ही भूल गये थे। जब मैंने सुबह उन्हें फोन किया था तो वो उस वक्त नास्ता कर रहे थे। फिर सब काम उन्होंने जल्द बाजी में किये। और इसी जल्दबाजी का नतीजा यह हुआ कि काफी कुछ घर में भूल गए थे।

 हमने गेट पार किया और एक  ओवरब्रिज क्रॉस करते हुए एक जगह पर उतरे। हम उतरे तो योगी भाई चिल्लाये हम तो रेलवे स्टेशन पर हैं। मैंने उन्हें आश्चर्य से देखा। मैंने कहा- “जब आपको पता था तो आपने क्यों नहीं बताया? अब बस अड्डा किधर है?” उन्होंने सामने इंगित करते हुए कहा कि उधर है।

मैंने देखा हमारे सामने एक बड़ी दीवार थी जिसे पार करके एक सडक थी और फिर बस अड्डा था। मैने यह देखने के लिए नज़र फिराई कि दीवार के पार का गेट किधर है? गेट तो हमे नहीं दिखा लेकिन एक आदमी दीवार फांदता हुआ दिख गया। योगी भाई ने कहा वो देखो जा रहा है। मैंने कहा - “नहीं।”  उन्होंने अपने कंधे उचकाए जैसे कह रहे हों अब इसके सिवा  कोई चारा नहीं है। मैंने कहा-"नहीं! अब ये नहीं करूँगा। हर बार यह होता है। जब भी कहीं के निकलते हैं कुछ न कुछ अतरंगी करना पड़ता है।" "अब करना तो पड़ेगा।" उन्होंने कहा और आगे बढ़ने लगे। "मैं नहीं करूँगा।",मैंने कहा।  और अब उनके पीछे पीछे चलने लगा। मुझे पता था कि अब कुछ नहीं हो सकता था। दीवार फाँदनी ही थी। योगी भाई गेट खोजने के मूड में तो नहीं थे।


इससे पहले कानपुर मीट में गये थे तो भी भाग दौड़ हुई थी। उससे पहले चित्रकूट मीट में भी मैंने भागते हुए ही गाड़ी पकड़ी थी। यानी कुछ न कुछ अतरंगी तो होना ही था। हम अब दीवार की तरफ बढ़ने लगे। दीवार के सामने कुछ पत्थर लगे थे। यह पत्थर एक के ऊपर एक थे और योगी भाई इनका इस्तेमाल करके ऊपर चढ़ गये। मैंने कहा अब उतर तो जाओ। तो योगी भाई ने कहा- “अरे छः फूट की गहराई है। नीचे कुछ पत्थर भी नहीं है। कैसे उतरूँ?”, यह कहकर वो नीचे खड़े एक व्यक्ति से बोले-”भाई,वो ड्रम खाली है क्या? जरा उसे इधर ले आओ। ताकि उतर सकूँ।” मैंने देखा कि ऐसे तो योगी भाई आधा घंटा इधर ही लगा देंगे। मैं बेमन से चढ़ा और फिर उल्टा होकर उतर भी गया। योगी भाई को बोला ऐसे उतरो। उन्होने मुझे देखा और आराम से उतरे। मैंने उन्हें देखा और कहा- “उतर तो गये। क्यों नखरे दिखा रहे थे।”
“अरे आपने शर्ट पहनी है। मैंने टी शर्ट पहनी है। मेरे हाथ छिल जाते तो?” योगी भाई ने इतनी मासूमियत से जवाब दिया कि मुझे हँसी आ गई।

मैंने हँसी जब्त की और उनसे पूछा अब किधर तो उन्होने सामने दिखाया। हमने सड़क पार की और बस अड्डे के अन्दर दाखिल हुए। हमे अब कुलदीप भाई से मिलना था। उन्हें फोन लगाया तो उन्होंने कन्फर्म किया कि वो थर्टी नाइन वाले प्लेटफार्म में थे। हम जल्द ही उनके सामने थे।

कुलदीप भाई से मिलकर हमें अब एक मेरठ वाली बस तलाशनी थी। उधर से कोई बस मेरठ नहीं जा रही थी। एक भाई से पूछने पर पता चला कि बाहर से बस मिलेगी। अब हमे बस अड्डे से बाहर निकलना था। कुलदीप भाई को उधर का आईडिया था तो वही मार्ग दर्शक थे। अड्डे से बाहर निकलकर हम एक तरफ को मुड़े और फिर ओवर ब्रिज क्रॉस करके एक और अड्डे में पहुँचे। इधर हमे मेरठ की बस लगीं दिखी। एक बस चलने को तैयार थी तो हम उस पर चढ़ गये। पीछे सीट थीं तो हम तीनों ने एक एक सीट ले ली। अब हम बस  में तो थे।

इवेंट चार बजे स्टार्ट था। उम्मीद थी कि साढ़े चार बजे तक हम मेरठ बस अड्डे पहुँच जाते। इस बस ने भैंसाली बस अड्डे ही जाना था और उसी के बगल में चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स था जिधर इवेंट चल रहा था। यानी अब बस पर निर्भर करता था कि कब तक हमे उधर पहुँचाती है। बस अभी चलना शुरू नहीं हुई थी। बस में पानी वाले घूम रहे थे और वो पानी की बोतल बेच रहे थे। एक बोतल बीस की थी पानी का नाम एक्वाफ्रेश था। बोतल लेते हुए उस भाई से कुलदीप भाई ने पूछा कि एक्वाफिना(ब्रांडेड) क्यों नहीं रखते हो तो उस भाई ने कहा कि उनके लिए दोनों एक समान है। एक्वाफिना(ब्रांडेड) और इसमें दोनों में उन्हें बराबर पैसा मिलेगा। बस इस लोकल पानी में ठेकेदार को ज्यादा मिलता है तो वो यही चलाता है। अब एक्वाफिना(ब्रांडेड) बेचना हो बस स्टैंड के बाहर बेचना होगा। इधर तो वही बिकेगा जो ठेकेदार चाहेगा। उसकी बात भी सही थी।

मैं उस वक्त यही सोच रहा था कि यह पानी भी कितनों को रोजगार दे रहा है। मैं अक्सर पानी घर से लेकर निकलता हूँ। या अब तो बस स्टैंड और रेलवे स्टेशन पर ऐसी सुविधा हो गई है कि आप पाँच रूपये में एक लीटर आर ओ का पानी भर सकते हैं। अक्सर मैं ऐसे ही अपनी बोतल भर लेता हूँ। जब यह सुविधा हर जगह उपलब्ध हो जाएगी तब ऐसे काम करने वालों को क्या होगा? उन्हें फिर कुछ नया तलाशना पड़ेगा। कई बार सुविधा और तकनीक लोगों के मुँह से ग्रास छीनने का काम भी करती हैं। लेकिन यह आदमी की जीवटता ही है कि वो अपने आप को ढाल लेता है। जो नहीं ढाल पाता है वो विलुप्त हो जाता है जैसे दुनिया में राज करने वाले डायनासौर हो गये थे। वही बचेगा जो खुद को समय और दुनिया के हिसाब से ढाल लेगा। यह बात जीवन के हर पहलू पर लागू होती है।

यही सोच रहा था कि बस चलने लगी। अब बस अपने गंतव्य स्थल तक पहुँचने भर की देर थी। पर यह देर काफी देर में तब्दील हो गई। हमे इतना जाम मिला कि हम भैंसाली बस स्टैंड साढ़े चार की जगह साढ़े पाँच-पौने छः बजे पहुँचे। बस स्टैंड से बाहर निकलने के बाद हमारे दो मकसद थे। एक चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स ढूँढना और दूसरा एक चाय की टपरी तलाशना ताकि चाय की चुस्की ले सकें। बहुत देर से चाय नहीं पी थी और मेरा शरीर इस बस यात्रा के बाद चाय मांग रहा था।

हम बस स्टैंड से बाहर निकले तो एक दो से चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स के विषय में पूछा। एक आध को तो पता ही नहीं था तभी एक सज्जन ने  पूछा - “आपको उधर जाना है जिधर प्रोग्राम हो रहा है?”
हमने सहमति दर्शाते हुए मुंडी हिलाई तो उन्होंने एक दिशा को इंगित करते हुए कहा -”वो गेट देख रहे हैं। उधर चले जाईये।” हमने उनका शुक्रियादा अदा किया और बताये गेट की तरफ बढ़ चले। गेट में दाखिल हुए थे प्रांगण में गाड़ियाँ पार्क हो रखी थी। सामने एक सभागार था जहाँ लोग विराजमान थे। सभागार के बाहर एक स्टाल लगा था जहाँ कुछ किताबें रखी गई थी। हमे पता लग गया कि हम सही जगह पहुँच चुके थे।

शशि भाई स्टाल पर 

हम अंदर दाखिल हुए। अन्दर काफी जाने पहचाने चेहरे थे। स्टाल के पीछे शशि भूषण भाई थे। वो किसी को किताबें दिखाने में व्यस्त थे तो हम अन्दर सभागार में गये। अन्दर एक गायक अपनी गीत की प्रस्तुति कर रहे थे। हमने एक सीट ली और गीत सुनने लगे।  थोड़ी देर बैठे रहे। गीत समाप्त हुआ तो शरीर फिर चाय की मांग करने लगा। हमने पहला मकसद तो पा लिया था लेकिन अब दूसरे मकसद की तलाश थी। फिर अब छः बजने को आये थे और हम सभी ने सुबह नाश्ते के अलावा कुछ नहीं किया था।

हम बाहर जा रहे थे तो कुलदीप भाई ने कहा कि वो थोड़ी देर में आते हैं। वो कँवल सर से मिलकर आ रहे हैं। हमने कहा हम बाद में मिलेंगे। हमे तो पहेले चाय से मिलना था और कुछ पेट पूजा करनी थी। वैसे भी कहा गया है कि पहले पेट पूजा फिर काम दूजा। हम चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स से बाहर निकलने और दाई तरफ मुड़ने के बाद सीधे चलते रहे। कुछ ही देर में हमे चाय वाला स्टैंड मिल गया। योगी भाई चाय नहीं पीते तो वो छोले कुलचे लेने चले गये। मैंने एक चाय का आर्डर दिया। तब तक कुलदीप भाई का भी कॉल आ गया और फिर उन्हें दिशा निर्देश दिए। कुछ देर में कुलदीप भाई भी हमारे साथ थे। हमने एक प्लेट छोले कुलचे पहले निपटा दिए थे। उनके आने के बाद दो प्लेट और निपटाई। एक चाय मैंने छोले कुलचे के साथ पी और दूसरी खाने के पश्चात पी। खाना समाप्त करने के बाद हम लोग वापस आ गये।

वापस आते ही हमे अमित भाई मिले। अमित भाई से पहले माउंट आबू में मिल चुका था। उस वक्त उनका उपन्यास फरेब आने की कागार में था। उनके उपन्यास को आये अब काफी अरसा बीत चुका है। मैंने तो खरीद लिया था अब जल्द ही पढ़ने का इरादा है। यही पे मेशु जी  भी मिले। मेशु जी वरिष्ट लेखक वेद प्रकाश कम्बोज जी के सुपुत्र हैं। बेहद सरल  इनसान है। ज्यादा बातचीत तो न हो सकी लेकिन उम्मीद है कभी आराम से मिलकर बातचीत करेंगे। फिर अंकुर भाई से मिले। वो अपने मित्रों के साथ आये थे। उनकी पहली पुस्तक द  ज़िन्दगी का आज इसी इवेंट में विमोचन होना था। अंकुर भाई से पहली बार कानपुर में मिले थे। फिर विक्रम जी से मुलाकात हुई। विक्रम जी ने वारलॉक नावेल लिखी है। हमने एक दो परफॉरमेंस देखी। जिसमें एक ग्रुप डांस और एक गाना शामिल था।
ग्रुप डांस में शामिल हुए प्रतियोगी 

ग्रुप डांस

बाहर किताबों का स्टाल लगा था जिसमें पुस्तकें डिस्काउंट रेट पर मिल रही थी। हम बाहर आये और अब शशि भाई से मिले। वो स्टाल के काम में मशरूफ थे। मैंने कुछ पुस्तकें ली जो कि निम्न थीं:


  1. रफ़्तार - अनिल मोहन(रीप्रिंट)
  2. पहली आग - परशुराम शर्मा (रीप्रिंट)
  3. दूसरी आग - परशुराम शर्मा(रीप्रिंट) 
  4. आग और शोले - परशुराम शर्मा(रीप्रिंट) 
  5. क़त्ल की पहेली - संतोष पाठक 
  6. प्रेतों के निर्माता - वेद प्रकाश कम्बोज(रीप्रिंट)
  7. कवि बौड़म डकेतों के चंगुल में - अरविन्द कुमार साहू (बाल साहित्य)
  8. किस्सा ढपोर शंख का - अरविन्द कुमार साहू (बाल साहित्य)
  9. द ज़िन्दगी - अंकुर मिश्रा 
  10. Warlock - Vickram E Diwan
  11. जादुई चश्मे - डॉक्टर मंजरी शुक्ला (बाल साहित्य)
  12. मुखौटे का रहस्य - अनुराग कुमार सिंह (बाल साहित्य) 
(आखिर  के दो पता नहीं कहाँ रख दिए। यह ब्लॉग लिखने तक मिल नहीं रहे थे। मिलते ही फोटो अपडेट करता हूँ।) 




पुस्तकें देखते हुए कँवल जी और स्टाल का कार्यभार सम्भाला है फरेब के लेखक अमित श्रीवास्तव जी ने 

पुस्तकों के स्टाल पर मौजूद कुलदीप जी और कँवल जी

पुस्तकें लेने के पश्चात मैंने अन्दर देखा तो परशुराम शर्मा जी के नए कॉमिक किरदार लावा का लांच हो रहा था। मैं झट से दरवाजे पर गया और मैंने एक दो फोटो ली। परशुराम शर्मा जी कई विधाओं में माहिर हैं। अच्छा गाते हैं,संगीत बना लेते हैं,लिखते हैं और अदाकारी भी कर लेते हैं। पूरी शाम हम उनके अलग अलग टैलेंट को देखते रहे। किरदार के चित्र का लांच होने के बाद मैं फिर बाहर आ गया।

अंकुर भाई की पुस्तक लेकर उनके हस्ताक्षर लिए। उनके साथ फोटो खिंचाई।  कंवल शर्मा जी भी बाहर थे उनसे मिले। थोड़ी बातचीत की। कंवल शर्मा जी के चार उपन्यास- वन शॉट,सेकंड चांस,टेक थ्री और देजा वू  अब तक आ चुके हैं। अब वो अपने पाँचवे उपन्यास पर काम कर रहे हैं। उपन्यासों के अलावा उन्होंने जेम्स हेडली चेस के उपन्यासों का अनुवाद भी किया है जो कि रवि पॉकेट बुक्स से प्रकाशित हुए हैं।



लावा का लुक रिलीज़

योगी भाई और अंकुर भाई 



अंकुर भाई के साथ उनकी किताब द ज़िन्दगी पर हस्ताक्षर लेते हुए।  साथ में कुलदीप भाई 

मीत भाई से मिले। मीत भाई ने बाल सूरज से निकलने वाली बाल साहित्य की किताबों के विषय में बताया।  उन्हें पता है कि मुझे बाल साहित्य पसंद है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि मेरा मानना है कि जब तक अच्छा बाल साहित्य उपलब्ध नहीं होगा तब तक हिन्दी का नया पाठक वर्ग तैयार नहीं होगा। इसलिए मैं बाल साहित्य की खोज में लगा रहता हूँ। ताकि परिवार के बच्चों को कुछ गिफ्ट दे सकूँ। इस बार सूरज से तीन बाल साहित्य की पुस्तक रिलीज़ हुई थी : राजकुमारी और जादुई बोने जो कि प्रिंसेस एंड द गोब्लिन का हिन्दी अनुवाद है। अनुराग कुमार जी की मुखोटों का रहस्य और मंजरी जी की जादुई चश्मे। इसके आलावा पहले सूरज वालों ने अरविन्द कुमार साहू जी की दो किताबें किस्सा ढपोरशंख का और कवि बौड़म निकाली थी। अगर आप बाल साहित्य में रूचि रखते हैं या चाहते हैं कि बच्चे हिन्दी पढ़े तो इन्हें देख सकते हैं।

इसके अलावा उन्होंने ये भी बताया कि इस इवेंट में एक और सरप्राइज़ वो देंगे। उनकी एक नई कृति भी इवेंट में लांच होगी। मुझे अब इसका इन्तजार था।

इसके बाद  शुभानन्द जी से मिले। उनके काफी उपन्यास मैंने पढ़े हैं। राजन इकबाल रिबोर्न श्रृंखला तो काफी पढ़ी है। इसके अलावा को जावेद अमर जॉन श्रृंखला के उपन्यास लिखते हैं। इस श्रिंखला में जोकर जासूस, बदकिस्मत कातिल, कमीना और मास्टरमाइंड नाम के उपन्यास आ चुके हैं। मास्टरमाइंड उनका हाल ही में प्राकशित उपन्यास है। जावेद अमर जॉन श्रृंखला के बाद वो एक नई श्रृंखला की शुरुआत कर रहे थे। यह श्रृंखला जासूसी तो होगी लेकिन इसमें मैं फोकस फॉरेंसिक पर होगा। तकनीक के माध्यम से मर्डर मिस्ट्री को सुलझाया जायेगा। मैंने उनसे इसके विषय में पूछा तो उन्होंने ही बतलाया कि उपन्यास लगभग तैयार है। इस श्रृंखला को वो अपनी पत्नी के साथ मिलकर लिखेंगे। और उपन्यास अंग्रेजी और हिन्दी दोनों में प्रकाशित होगा। उपन्यास का कवर लांच आज ही होने वाला था। यह जानकार अच्छा लगा।
प्रतियोगी प्रस्तुति देते हुए 

प्रतियोगी प्रस्तुति देते हुए 

फिर हम अन्दर चले गये। अन्दर हमने एक दो परफॉरमेंस और देखी। इवेंट में नृत्य और गायन दोनों की प्रतियोगिता थी और लोगों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। आलम ये था कि इवेंट ज्यादा लम्बा न हो इसलिए बाद में एक मुखड़ा और एक अन्तरा गाने की इजाजत ही देनी पड़ी।

हम लोग यह सोचकर आये थे कि आठ बजे करीब निकल जायेंगे। पर अब फैसला किया कि इतनी दूर आये हैं तो कवर लांच देखकर ही जाएँ। अब किताब तो ले ली थी तो हम अन्दर बैठे रहे। इसी बीच विक्रम जी से फिर दोबारा मिले और उनसे अपनी किताब के ऊपर हस्ताक्षर करने को कहा और उन्होंने  इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। फिर उनके हस्ताक्षर लिए और फोटो सेशन हुआ।

वॉरलॉक के लेखक विक्रम दीवान जी के साथ 

मीत भाई और मैं 

योगी भाई और मीत भाई 


अब आखिरी की दो तीन प्रस्तुति और हुई। इसके बाद एक कलाकार स्टेज पर आये। उन्होंने पहले गाना गाया। उसके बाद उन्होंने मिमिक्री से सबको गुदगुदाया। मोदी  जी,राहुल जी,अमिताभ जी, धर्मेद्र जी जैसे कई कलाकारों की मिमिक्री उन्होंने की जिससे सब हँसते हँसते लोट पोट हो गये। ये साहब प्रोग्राम का संचालन भी कर रहे थे। बस दुःख इस बात का है मैं उनका नाम भूल चुका हूँ। कोई बताये तो अपडेट कर दूँगा।

अब  पुरस्कार वितरण चालू हो गया था। आठ भी बज गये थे। नृत्य और गायन के लिए अलग अलग श्रेणियों में पुरस्कार दिए गये। पुरस्कार वितरण के पश्चात  हम लोग दोबारा चाय पीने गये। उधर कुलदीप भाई को एटीएम भी जाना था तो इस बार हम काफी आगे गये। एक मंडी जैसी जगह थी जिसमें आगे चलकर एटीएम था। वहीं पर चाय वाले बैठे थे। मैंने कुलदीप भाई से कहा कि मैं चाय पीता हूँ और आप लेकर आओ। जब तक मैं चाय पीता रहा, कुल्दीप एटीएम तक गये। योगी भाई चाय पीते नहीं है तो वो दुकानदार जी से मेरठ की विशिष्ट मिष्टान्न के विषय में पूछने लगे। किसी को भी कुछ आईडिया नहीं था। आखिर में गजक और मूंगफली का ही नाम आया। खैर,कुलदीप भाई आ गये थे। मैंने चाय पी ली थी इसलिए हम वापस लौटने लगे।
प्रतियोगी अपनी प्रस्तुति देते हुए 

प्रतियोगी अपनी प्रस्तुति देते हुए

प्रतियोगी अपनी प्रस्तुति देते हुए

मिमिक्री करते हुए 

संगीत,नृत्य प्रतियोगिता के विजेता 

 चाय पीकर लौटे तो अब विभिन्न पुस्तकों का लांच होना था। हम स्टाल पर गए तो उधर नई बाल साहित्य की पुस्तक जादुई चश्मे और मुखौटों का रहस्य थी। मैंने वो अब जाकर ली थी। इसके अलावा शशि भाई, मैं और योगी भाई ने एक गर्मागर्म चर्चा की। चर्चा परशुराम शर्मा जी के रीप्रिंट के ऊपर था। योगी भाई का मानना  था की उपन्यास आज के लिए अपडेट होना चाहिए जबकि मेरा मानना था कि रीप्रिंट में ऐसा नहीं करना चाहिए। वरना उपन्यास पढ़ने के दौरान जो वो पुराने समय का भाव मन में आता है । योगी  भाई का मन्ना था कि ऐसे में नये पाठक नहीं पढेंगे लेकिन मेरा मानना था कि नये पाठक हिस्टोरिकल फिक्शन पढ़ सकते हैं तो इसे क्यों नहीं पढ़ सकते। फिर ऐतिहासिक समय में जासूसी उपन्यास लिखने की अलग श्रेणी है। इसी बात पर शशि भाई ने एक किस्सा बताया कि इधर तो हिन्दी ही कोई नहीं पढ़ना चाहता। उधर एक मैडम आई थी हिन्दी में बात कर रही थी लेकिन जब पुस्तकें खरीदने की बात आई तो उन्होंने अंग्रेजी की पुस्तक ही माँगी। मैंने कह यह तो सोच सोच पर निर्भर करता है। ऐसे ही बात हो रही थी कि पता चला अन्दर विमोचन कार्यक्रम शुरू हो चुका है। हमने बातचीत स्थगित की और अन्दर चले गये।


सबसे पहले बारी मीत भाई के सरप्राइज़ की थी। उनका लघु उपन्यास वो भयानक रात अब एक कॉमिक्स के रूप में प्रकाशित होगा। अभी कॉमिक का कवर लांच हुआ था। यह जानकर अच्छा लगा। कॉमिक मैं बचपन से लेकर अभी तक पढ़ता आया हूँ और हॉरर कॉमिक्स पढ़ना तो मुझे हमेशा से पसंद रहा है।

इस बार सूरज पॉकेट बुक्स अनिल मोहन जी का उपन्यास रफ़्तार लेकर आये हैं। अब अगले सेट में उनका सूरमा नामक उपन्यास आएगा। इस उपन्यास का कवर लांच भी हुआ।

फिर बारी थी चन्द्र प्रकाश पाण्डेय जी के विज्ञान गल्प उपन्यास अस्तित्व के कवर लांच की।

फिर ड्राप डेड  जो कि क्राइम एम डी श्रृंखला का उपन्यास है। यह श्रृंखला  फॉरेंसिक को ज्यादा तरजीह देती है। इस श्रृंखला के पहले उपन्यास का भी कवर लांच हुआ।

अंकुर जी के पुस्तक द ज़िन्दगी का लोकार्पण भी हुआ। उन्होंने अपनी पुस्तक के विषय में कुछ शब्द कहे। फिर विक्रम दीवान जी के उपन्यास वारलॉक का लोकार्पण हुआ और उन्होंने भी अपने उपन्यास के विषये  में कुछ शब्द कहे। वे हिन्दी में कुछ तैयार करके लाये थे तो उन्होंने यह भी सुनाया। उन्होंने अपने वक्तव्य का अंत इन पंक्तियों के साथ किया जो मुझे पसंद आई:
दर्द कागज़ पर, मेरा बिकता रहा,
मैं बैचैन था,रातभर लिखता रहा....
छू रहे थे सब, बुलंदियाँ आसमान की,
मैं सितारों के बीच, चाँद की तरह छिपता रहा..
जिनको जल्दी थी, वो बढ़ चले मंजिल की ओर,
मैं समन्दर से राज,गहराई से सीखता रहा...!!

इन लोकार्पण और कवर लांच के बाद परशुराम शर्मा जी ने अपनी शिष्या किट के साथ एक डुएट गाकर समा बाँधा।

अब अंकुर जी अपने होटल जा रहे थे। उनके साथ कुलदीप भाई भी हो लिए। उनका उधर कुछ प्रोग्राम था। मैंने पूछा - “कितना वक्त लगेगा?”
कुलदीप भाई - “आधा घंटा। ”
मैं - “ठीक है मैं इधर ही रुकता हूँ। आप होकर आओ।”
कुलदीप भाई और अंकुर भाई ने चलने को कई बार कहा लेकिन मैंने सोचा जब रुकना ही है तो इधर ही रुक लो। आये तो इवेंट में हैं। फिर इससे एक फायदा यह था कि कुलदीप भाई भी उधर ज्यादा देर तक नहीं रुकेंगे। हमे वापिस भी जाना था। हम तीनों ही उधर चले जाते तो शायद फिर सुबह ही निकलते। इसलिए रिस्क लेने का मेरा कोई इरादा नहीं था। योगी भाई के मन में भी यही था और इसलिए हम दोनों ने ही मना कर दिया। कुलदीप भाई चले गये और हम प्रोग्राम में व्यस्त  हो गये।

मीत जी के उपन्यास वो भयानक रात के कॉमिक के आवरण का विमोचन

अनिल मोहन जी के उपन्यास सूरमा के कवर का विमोचन 

चन्द्रप्रकाश जी के उपन्यास अस्तित्व के आवरण का विमोचन

ड्राप डेड के आवरण चित्र का विमोचन

द ज़िन्दगी का लोकार्पण

वॉरलॉक का लोकार्पण

तभी रमाकांत मिश्र जी भी उधर आ गये। वो अब तक व्यस्त चल रहे थे। अब जाकर मौका मिला आराम से बात करने का तो हमने खूब बातें की। उनका एक उपन्यास सिंह मर्डर केस प्रकाशित हो चुका है। यह एक अच्छा थ्रिलर था। अब  उनका नया उपन्यास महासमर आ रहा है। इसका आज कवर लांच होना था लेकिन रमाकांत जी इस पर और काम करने वाले हैं तो इसका विमोचन नहीं किया। यह सही भी था। जब तक फाइनल न हो तब तक जल्द बाजी नहीं करनी चाहिए। धीमी आंच पर पकने से ही दाल में स्वाद आता है। जल्दबाजी के चक्कर में दाल बन तो जाती है लेकिन स्वाद नहीं आ पाता। रमाकांत जी देहरादून के हैं तो इस विचार पर बात हुई कि देहरादून की पृष्ठभूमि को लेकर एक उपन्यास की रचना होनी चाहिए। वो भी सहमत थे। और उन्होंने इस पर विचार करने की बात कही। मैंने इंजीनीरिंग  देहरादून से की है तो हमने देहरादून के आज के हालातों के ऊपर बात की। लगातार होते कंस्ट्रक्शन ने उसको बिगाड़ सा दिया है। फिर पत्रिका में कहानी छपने की बात उठी। उन्होने अपने रोचक अनुभव इस विषय में बताये। मैंने भी बताया था कि कैसे मैंने जो कहानी भेजी उसके लिए न पत्रिका का हाँ में जवाब आया और न ना में जवाब आया। उन्होने कहा यह रवैय्या पुराना ही है। ऐसे ही हम लोगों ने काफी बात की। योगी भाई भी उधर थे और वो भी मेरे साथ रमाकांत जी से बातचीत में हिस्सा ले रहे थे। रमाकांत जी के दो ब्लॉग हैं: जासूसी संसार और साहित्य । जासूसी संसार में वे पुराने लुप्त हो चुके उपन्यासों को पाठकों को मुहैय्या करवाते हैं। और साहित्य में वे नये उपन्यासों की समीक्षा और अपनी लिखी कहानियाँ पोस्ट करते रहते हैं। इसके आलावा उन्होंने ओमप्रकाश शर्मा जी के उपन्यासों को ऑनलाइन पढ़ने के लिए ओम प्रकाश शर्मा जी की साईट पर उपलब्ध करवाया है। पाठक उधर जाकर जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा जी के उपन्यास पढ़ सकते हैं।  रमाकांत जी से ये सारी बात दो हिस्सों में हुई थी एक बाल उपन्यासों के लोकार्पण से पहले और एक बाल उपन्यासों के लोकार्पण के बाद। मैंने सहूलियत के लिए एक ही बार लिख दिया है क्योंकि बातचीत जहाँ से पहले छोड़ी थी उधर से ही वापस शुरू की थी।

फिर बाल उपन्यासों का लोकार्पण हुआ। इसके लिए मुझे भी बुलाया गया। एक अदने से पाठक के लिए सम्मान की बात थी। इसके बाद फोटो सेशन किया। कई कवर के साथ फोटो खिंचवाई और खींची। ऐसे ही दस-साढ़े  बजे करीब तक सारा इवेंट खत्म हो गया था।

परशुराम शर्मा जी और उनकी शिष्या किट

बाल साहित्य की नई पुस्तकों का विमोचन 
मीत भाई और रमाकांत जी 

सामान वगेरह सब पैक कर लिया गया। रमाकांत जी को भी देहरादून जाना था तो वो भी बस स्टैंड की तरफ चले गये। हमने थोड़ा सामान वगेरह पैक कराने में मदद की। मदद के नाम पर खाली कुछ सल्लो टेप ही खोले। बाकी काम तो सबने कर लिया था। उन्होंने रिक्शा किया हुआ था तो हमने उनसे विदा ली।

अब चैम्बर ऑफ कॉमर्स खाली हो चुका था। अब हमे कुलदीप भाई का इन्तजार था। बस स्टैंड बगल में ही था। तो हम  उधर चले गये। पहले लघु-शंका से निवृत होने का विचार था। इसके लिए काफी उछल कूद करनी पड़ी क्योंकि मूत्रालय के बाहर कुछ तरल पदार्थ सा फैला हुआ था। अब यह जल था या कुछ और रात्री के अँधेरे में मेरा पता लगाने का कोई इरादा नहीं था। मैं, योगी भाई और मनीष भाई ने इसे फांदा और गंतव्य स्थल यानी मूत्रालय में दाखिल हुए। मनीष भाई इवेंट में मिले थे। उन्हें नॉएडा तक जाना था। हमें चूँकि दिल्ली तक जाना था तो सोचा कि साथ ही हो ले। हम निवृत्त हुए और फिर बाहर आये और फिर कूदते फांदते उस तरल पदार्थ को पार किया। पानी का बन्दोबस्त उधर नहीं था तो एक बिसलेरी की बोतल खरीद कर उससे ही हाथ धोये। बोतल मनीष भाई ने खरीदी थी। अब कुल्दीप भाई को कॉल लगाई। उन्होने कहा वो पाँच दस मिनट में आ रहे हैं।

तभी रमाकांत जी भी मिल गये। उन्हें देहरादून की बस नहीं मिली थी। अगले दिन उधर हड़ताल थी तो वो चाहते थे कि आज यानी रविवार को ही देहरादून पहुँच जायें। एक विकल्प हरिद्वार से जाने का भी था लेकिन अगर पहले देहरादून मिल जाये तो वही बेहतर रहता। अगर कुछ न मिलता तो उनका रहने  का बन्दोबस्त भी था। हम ऐसे ही बात कर रहे थे कि एक दिल्ली देहरादून वाली गाड़ी दिखी और रमाकांत जी विदा लेकर उसमें चले गये। कुलदीप भाई का कोई पता नहीं था। उन्हें देर लग सकती थी। सामने नॉएडा वाली गाड़ी थी तो मैंने मनीष भाई को कहा कि आप उसमें चले जाओ, हमे तो देर हो सकती है। उन्हें बात ठीक लगी और वो उसमें चढ़ गये। दस बारह मिनट बाद अंकुर भाई कुलदीप भाई को लेकर आये। और थोड़े ही देर में हमे दिल्ली की गाड़ी भी मिल गई। यह गाड़ी देहरादून से आ रही थी। हमने अंकुर भाई से विदा ली और आखिर की सीट में चले गये।

मैं तो जाते ही लेट गया। सीट पकड़ कर लेटा रहा। एक आध फोटो भी खिंचाई। फोन की बैटरी जवाब देने लगी थी। एक फोटो योगी भाई की ले रहा था कि फोन भी टें बोल गया। अब फोन को जेब में डाला और लेट गया। थोड़ी देर नींद भी आई, फिर एक झटका लगा और नींद टूट गई तो बैठ गया। इसके बाद योगी भाई लम्बे होकर सो गये। हम जब बस में बैठे थे तो प्लान था कि सराय काले खां उतरकर ओला वगेरह करेंगे। पर जब नींद खुली तो सामने कश्मीरी गेट था। पहले मैंने सोचा कि कोई जयपुर की गाड़ी मिल जाये तो ठीक रहेगा क्योंकि वो इफ्को चौक तक छोड़ देगी जो कि मेरे लिए नजदीक था। कुलदीप भाई और योगी भाई तो दिल्ली ही रहते थे तो उन्हें आसानी से सवारी मिल सकती थी। कुछ देर हमने इन्तजार किया पर प ऐसी गाड़ी नहीं आई तो सोचा इन्तजार करने से बढ़िया है ओला कर ली जाए। कुलदीप भाई ने ओला कर ली और बुकिंग कुछ ही देर में कन्फर्म  हो गई।

ओला रोड के पार थी। हम लोग ओवर ब्रिज के लिए बड़े। उधर एक पराठे वाला था।  सुबह से केवल छोले कुलचे ही खाए थे। इसलिए चार पराठे पैक करे। पहले छः कर रहे थे लेकिन पराठे बड़े थे और मैं बाहर का खाना ज्यादा  नहीं खाना चाह रहा था। योगी भाई भी एक ही पराठा खाने वाले थे। खाना पैक कराकर हम लोगों ने ओवर ब्रिज क्रॉस किया और ओला तक पहुँच गये। ओला में बैठे और अब चलने लगे। पहले योगी भाई और कुलदीप भाई को उनके घर छोड़ना था और आखिर में मुझे गुडगाँव।

चलो थोड़ा सोया जाए


हमने ओला में घुसकर खाना खाया।  उधर ऐसी नहीं चल रहा था तो खिड़कियाँ नीचे कर दी थी। गाड़ी अपने गंतव्य स्थल के लिए बढ़ रही थी। कुलदीप भाई का खुद का ट्रांसपोर्ट का बिसनेस है। उनकी खुद की गाड़ियाँ भी चलती हैं। वो आराम से ड्राईवर साहब से बात कर रहे थे। बातों बातों में ड्राईवर साहब ने बोला कि उनका कुछ इशू है। इशू इंसेंटिव को लेकर था। कुलदीप भाई ने उन्हें सलाह दी कि क्या करना है और कैसे करना है। उनके फोन से बाकयदा कस्टमर केयर को मेल किया। इसके बाद उन्हें यह सलाह भी दी कि कैसे वो बाहर की सवारी पकड़ कर ज्यादा कमाई कर सकते हैं। मेरे लिए यह सब कुछ अपरिचित सा था और इसलिए मैं सुन रहा था। हमने योगी भाई को छोड़ दिया था। अब कुलदीप भाई को छोड़ना था। एक जगह बैरिकेड लगा था। कुलदीप भाई उसे हटाने गये। उन्होंने ड्राईवर साहब को कहा था कि मेल हर दूसरे तीसरे दिन डालना। ड्राईवर साहब ने मुझसे पूछा मुझे मेल का पता है न? मैंने हाँ में जवाब दिया तो उन्होंने मेल लिखने को बोला और कॉपी पेन मुझे थमा दी। मैंने मेल उन्हें लिख कर दे दिया। पर उस वक्त मैं सोच रहा था कि हम कहाँ रह रहे हैं। उस मेल को अंग्रेजी में लिखना क्यों जरूरी था? क्यों नहीं वो भाई उसे हिन्दी में लिखकर भेज सकते थे? वो दिल्ली में थे। हिन्दी में लिखी मेल को पढ़कर जवाब देना कंपनी का दायित्व था। उन्हें क्यों मुझसे लिखवाना पड़ा। तकनीक का इजाद इसलिए होता है कि वो आदमी को सहूलियत दे। पर क्या अंग्रेजी से आदमी लाचार सा नहीं हो गया है। इस बार तो हम थे। अगली बार उन्हें कौन मिलता। इस बात विचार करना चाहिए। यह घटना इधर की ही नहीं है। मैंने ऑफिस में भी देखा है। सामने वाले को हिन्दी आती है, जो मेल भेज रहा है उसे भी हिन्दी आती है। लेकिन दोनों टूटी फूटी अंग्रेजी में संवाद करते हैं क्योंकि ऑफिसियल मेल है। मुझे इसका कोई औचित्य समझ नही आता। ऐसे ही एक बार जब मुंबई में था को किसी ने मुझे मेल ड्राफ्ट करने को कहा। मैंने उनसे पूछा कि क्या सामने वाले को मराठी आती है? उन्होंने कहा हाँ। तो मैंने खाली इतना कहा कि मराठी में मेल क्यों नहीं लिखते। भाषा केवल विचारो के आदान-प्रद्रान का माध्यम है। वो बात अंग्रेजी में भी वही रहेगी जो हिन्दी या मराठी में रहेगी। आप और संदेश पाना वाला जिस भाषा में सहज हो उसमें ही बात हो तो बेहतर नहीं होगा। पर उन्हें यह बात अटपटी लगी। न जाने किसने यह हमे बता दिया है कि काम काज करना है तो अंग्रेजी में करना है। जबकि ऐसा तो नहीं है। उम्मीद है ज्यादातर लोगों को यह बात समझ आएगी और वो संदेश को तरजीह देंगे न कि उस भाषा को जिसमें संदेश दिया जा रहा है। वरना ऐसे ही होगा। आपको दूसरे की भाषा में अपनी बात रखने के लिए किसी न किसी से याचना करनी पड़ेगी।  इससे जो हीन भावना आती है उसका अंदाजा नहीं होगा शायद आपको। यही एक कारण भी है कि आदमी अपने बच्चों को मातृभाषा से ज्यादा अंग्रेजी को तरजीह देने के लिए विवश करता है। वो नहीं चाहता जैसा असहाय वह महसूस करता है वैसे ही उसके बच्चे करें। आपको सोचना है आपको क्या करना है? खैर, मेल तो मैंने लिख दिया था। उन्होंने ख़ुशी ख़ुशी वो अपने पास रख लिया। पर विचारों का यह झंझावत मेरे दिमाग में उमड़ता-घुमड़ता ही रहा।

कई बार ऐसी चीजें देखता हूँ तो उन लोगों पर गुस्सा आता है जो कहते हैं कि अंग्रेजी दुनिया से जोड़ने वाली भाषा है। भले ही बाहर अंग्रेजी जोड़ती हो लेकिन भारत में तो मुझे वो लोगों को लाचार करती ही दिखती है। सही क्या है,गलत क्या है ये मुझे नहीं पता। मैं अंग्रेजी के खिलाफ नहीं हूँ। कई बार लोगों को कहते सुनता हूँ कि उनपर हिन्दी थोपी जा रही है। उनकी बात सही है पर वो लोग कभी अंग्रेजी थोपने का विरोध नहीं करते। अंग्रेजी अच्छी भाषा है। मुझे सीखने से बहुत अच्छी अच्छी किताबें पढ़ने का मौका मिला और कई चीज जानने का मौका मिला। पर जब इससे उत्पन्न हुई लाचारी को देखता हूँ तो सोचता हूँ कि क्या यह एक खाई सी समाज में पैदा नहीं करती। क्या अंग्रेजी हमारे समाज में जरूरी होनी चाहिए? या समाज ऐसा होना चाहिए कि लोग अपनी भाषा में काम भी कर सकें। और उन्हें ऐसे किसी को मेल ड्राफ्ट करने को या मेल लिखने को न बोलना पड़े।

खैर, यह सब तो चलता ही रहेगा। हम लोग कुल्दीप भाई को उनके घर छोड़कर गुडगाँव के लिए निकल गये। पौने घंटे में ही हम लोग मेरे पीजी के निकट थे। मैंने उन्हें पैसे अदा किये और अब मैं अपने पीजी में दाखिल हुआ। सवा तीन से ऊपर का वक्त हो गया था। मुझे सुबह ऑफिस भी जाना था तो मैं अब सोना चाहता था।

मेरी यह छोटी सी घुमक्कड़ी कुछ ऐसी गुजरी। आप तब तक फोटो का आनन्द लीजिये और मैं चलता हूँ सोने। फिर मिलेंगे किसी और घुमक्कड़ी के वृत्तांत के साथ। तब तक के किये पढ़ते रहिये  और घूमते रहिये।


(नोट: नीचे वाली तस्वीरें मैंने नहीं ली हैं। व्हाट्सएप्प में इवेंट के समूह में आयी थी तो उधर से साझा कर रहा हूँ। आशा है किसी को अप्पति नहीं होगी।)

शुभानंद जी स्टाल पर पाठको को पुस्तक के विषय में बताते हुए 
मनीष जैन जी (रवि पॉकेट बुक्स के प्रकाशक),कँवल जी और आबिद रिज़वी जी 

आदित्य वत्स जी,अमित जी और शुभानंद जी 

परशुराम सर पुस्तकों पर हस्ताक्षर करते हुए: तस्वीर शशि भूषण भाई 

मीत भाई मेशु कम्बोज जी के साथ 

बाल साहित्य के ऊपर चर्चा करते हुए :-p 

बाल साहित्य की पुस्तकों के साथ 

मनीष भाई और मीत भाई 

मनीष भाई,मीत भाई और मैं 

शशि भूषण भाई और मीत भाई 


                                                                समाप्त 



#फक्कड़_घुमक्कड़ #रीड_ट्रेवल_रिपीट #पढ़ते_रहिये_घूमते_रहिये



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23 टिप्पणियाँ

आपकी टिपण्णियाँ मुझे और अच्छा लिखने के लिए प्रेरित करेंगी इसलिए हो सके तो पोस्ट के ऊपर अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा।

  1. वाह वाह। बहुत सछी यात्रा वृत्तांत विकास भाई। इवेंट की कई चीज़े मुझे अब पता चली। चूंकि मैं खुद होस्टिंग और प्रोग्राम में लगा था।
    अच्छा लगा आप आये।
    और आगे नही हम सब मिलते रहें। 😊

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    1. बिलकुल ऐसे ही मिलते रहेंगे।अभी हैदराबाद और दक्षिण के कई हिस्सों की घुमक्क्ड़ी करनी है। जल्द ही कुछ न कुछ योजना बनेगी।

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 06/10/2018 की बुलेटिन, फेसबुकिया माँ की ममता - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. वाह जी वाह बहुत ही सुंदर विवरण और आपकी याददाश्त तो बड़ी अचूक है ड्राइवर को मेल वाली बात तो मैं भूल भी गया क्योंकि मुझे मेरे बुजुर्गों ने सिखाया है कि नेकी कर दरिया में डाल

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    1. आभार। लेकिन उस बातचीत से मुझे भी कुछ नया सीखने को मिला। उम्मीद है और भी ऐसी यात्राएं होंगी और आपके अनुभव से कुछ न कुछ सीखने को मिलेगा।

      हटाएं
  4. विकास भाई मेरी कभी यात्रा वृतांत पढने मे रूचि नहीं रही।सर्वप्रथम पूरा यात्रा वृतांत आपके ब्लॉग पर ही पढा।और उसके बाद तो मेरा इतना इनट्रेस्ट बढा की आपकी सारी घुमक्कड़ी यात्राएं पढी ।
    बहुत रोचक बहुत बढ़िया लिखा है आपने।
    दार्शनिकता,तेज रफ्तार,मोड ,जांच पड़ताल,रोमांच सबका तडका है इस घुमक्कड़ी में।आपको उपन्यास लेखन में भी अपने हाथ आजमाने चाहिए।
    मुझे मिश्र जी के एक ही ब्लाग जासूसी संसार के बारे में मालूम था।उनके ब्लॉग साहित्य के बारे में बताने के लिए धन्यवाद।
    विकास जी देश में हिंदी भाषा की स्थिति का बहुत सही बयान किया है ।मेडीकल,आईटी और भी अन्य कई प्रोफेशनल कोर्सेज में अंग्रेजी के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है।कई जगह हिंदी मिडियम वालो को हिकारत की दृष्टि से देखा जाता है।आज भी उच्च स्तर पर सरकारी विभागों में अंग्रेजी में ही काम होता है।इन्टरनेट पर भी अधिकांश जानकारीया अंग्रेजी में ही है।सरकार और सभी लोगों को हिंदी को यथोचित स्थान दिलाने के लिए और अधिक प्रयास करने होंगे।

    आपकी कहानियों का इंतजार रहेगा।




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    उत्तर
    1. जी सर आपने सही कहा। उपन्यास के विचार मन में है लेकिन वो धैर्य वाला काम है। घुमक्क्ड़ी के किस्से तब तक आपको पढ़ने को मिलते रहेंगे। कुछ कहानियाँ लिखने की कोशिश की हैं। आप निम्न लिंक पर जाकर सभी को पढ़ सकते हैं। आपके विचारों का इन्तजार रहेगा।
      https://hindi.pratilipi.com/user/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B8-%E0%A4%A8%E0%A5%88%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2-5tuuvdim0o

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    2. हिंदी में हम काम काज करेंगे तो ही सोच से मुक्ति मिलेगी। कम से हमे जिनकी भाषा हिंदी है उन्हें तो इसका प्रयोग करना चाहिए। अंग्रेजी सीखने में कोई बुराई नहीं है। बस उसका प्रयोग तब ही करें जब आवश्यकता हो और सामने वाले को हिंदी न आती हो। भाषा सभी अच्छी हैं। उनका काम विचारों का आदान प्रदान ही है।

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  5. बहुत रोचक यात्रा वृत्तांत । जिन पाॅकेट बुक्स और उपन्यासकारों का जिक्र किया है कभी उनके उपन्यास बड़ी तादाद में पढ़ा करती थी वो सब कब का छूट गया ...., याद आता गया । शुक्रिया वो सब याद दिलाने के लिए ।

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    उत्तर
    1. शुक्रिया,मैम। पाठकों के आभाव के चलते लेखकों ने भी लिखना बंद कर दिया था। अब सोशल मीडिया के माध्यम से पाठक लेखक के करीब आये तो अब फिर से लेखकों ने अपनी दूसरी पारी की शुरुआत कर दी है। पढ़ना एक अच्छा शौक है। आशा है दोबारा इन रचनाकारों को पाठकों का प्यार मिलेगा।

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  6. संस्मरण की बेहतरीन एवं रोचक प्रस्तृति ...

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  7. सुंदर, रोचक, निरपेक्ष और सम्पूर्ण.

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  8. विकास जी
    हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है, हर साल हिंदी दिवस मनाया जाता है मगर देश की राजधानी दिल्ली से आई एक खबर ने हिंदी प्रेमियों का सिर शर्म से तो झुकाया ही साथ ही हिंदी को राष्ट्रभाषा के गौरव पर भी सवालिया निशान लगा दिया। कार की प्लेट पर हिंदी में नंबर लिखा होने पर कार मालिक पर ₹ 2000 जुर्माना ट्रैफिक पुलिस ने किया जिसे अदालत ने घटाकर ₹1000 कर दिया आप भी जान ले कि सेंट्रल मोटर व्हीकल एक्ट की धारा 50 डी के अनुसार हिंदी या अन्य किसी भाषा में वाहन पर नंबर प्लेट लगाना जुर्म है। अपना भारत महान।
    स्त्रोत -लोकस्वामी 11 नवंबर 2018

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    1. जी, हिंदी राष्ट्रभाषा तो नहीं है लेकिन राज भाषा है। मैं हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने के पक्ष में भी नहीं हूँ। हाँ,ऐसा होना तो नहीं चाहिए परन्तु इसकी भी अपनी वजह है। भारत में एक से ज्यादा लिपि हैं। हर राज्य की अलग लिपि होगी और गाडी किसी भी राज्य में जा सकती है। ऐसे में प्लेट ऐसी लिपि में होनी जिसे अधिक से अधिक लोग पढ़ सके। और अरबी संख्याओं को और रोमन लिपि को लोग पढ़ लेते हैं। इस कारण ऐसा हुआ है। कल को तमिल, कन्नड़, तेलुगु भाषी अपनी भाषा की लिपि का इस्तेमाल करने लगे और ऐसी गाडी को उत्तर के राज्यों में लाये और उधर कुछ हो जाये तो गाडी का नंबर पहचानना काफी मुश्किल हो जायेगा। यही बात देवनागरी के लिए दक्षिण में कही जा सकती है। और दुसरे राज्यों में हो सकती है।इसलिए ऐसा किया होगा। यह अनेक भाषाओ वाला देश होने की दिक्कत है। मुझे हिन्दी से प्यार है लेकिन कई जगह व्यवहारिकता को ऊपर रखना पड़ता है।
      ये मेरा व्यक्तिगत मत है। आप इससे असहमत भी हो सकते हैं।

      हटाएं

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