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"तुम बहुत बदल गये हो।" उसने मुझसे कहा था।
चाय की चुस्कियों और किताब के सफहों के ऊपर से नजरें उठाकर मैंने उसे देखा था।
वो मुझे देख रही थी। उसकी कही बात प्रश्न नहीं थी। वो एक वक्तव्य था।
मैंने उसे देखा, चाय की चुस्की ली और फिर हौले से कहा- "हाँ,शायद मैं बदल गया हूँ।"
"देखा!" उसकी आवाज़ में विजय का भाव आया,"सब बदल जाते हैं। तुम भी सभी जैसे निकले।"
मैंने उसे देखा और फिर अपने कमरे को देखा।
मैं हमेशा से ही बिखरा हुआ इनसान था। अंदर ख्याल बनते, बिगड़ते, टूटते और बिखरते रहते थे। ये बिखराव बाहर भी दिखता था। मेरे कपड़े पहनने के तरीके में, मेरे कमरे में, मेरे जीवन जीने के तरीके में।
फिर वो ज़िन्दगी में दाखिल हुई थी। उसे सलीका पंसद था। ख्यालों में, कपड़े पहनने के तरीके में, और जीवन जीने में।
मैंने खुद को देखा, अपने कमरे को देखा और अपने जीवन को देखा।
हर चीज तरतीब से, सलीके से थी। उसमे वो थी, मैं, मेरा बिखराव... कहीं खो सा गया था।
शायद, बदल ही तो गया था मैं।
मैंने कुछ कहना चाहा। लेकिन फिर इतना ही कह पाया,"हाँ,शायद बदल ही गया हूँ मैं।"
*****
Ⓒविकास नैनवाल 'अंजान'
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंआभार...
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जवाब देंहटाएंSuper quality fiction story or a poem that can tell you something really beatiful! Thanks for sharing it!
जवाब देंहटाएंBlogging Generation
Thanks
हटाएंbhai bahut badheya
जवाब देंहटाएंजी आभार...
हटाएंबहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंआभार...
हटाएंसही कहा साथी को उसके अनुरूप पसन्द कर अपने अनुरूप ढ़ालकर फिर शिकायत...
जवाब देंहटाएंयही तो होता है वाकई यही सच है
बहुत सुन्दर सारगर्भित सृजन।
जी आभार मैम...
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