उग आया टहनियों पर, आफताब हो जैसे

उग आया टहनियों पर आफताब हो जैसे
उग आया टहनियों पर आफताब हो जैसे


दिखता है वो, एक ख्वाब हो जैसे
उग आया टहनियों पर,  आफताब हो जैसे

आये छत पर, तो हो जाते खुश इस तरह
 उतर आया जमीं पर महताब हो जैसे

झटकना गेसुओं का, होना यूँ सुर्ख गालों का
मेरी  इकरार ए मोहब्बत  का जवाब हो जैसे  

करके सीना जोरी लूट खसोट यूँ इतराने लगा वो 
पाया है उसने कोई बड़ा खिताब हो जैसे

चेहरे पर हँसी और दोस्तानी फितरत, 'अंजान'
देखूँ, तो लगे पहना कोई  नकाब हो जैसे

© विकास नैनवाल 'अंजान'

22 टिप्पणियाँ

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  1. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 08-01-2021) को "आम सा ये आदमी जो अड़ गया." (चर्चा अंक- 3940) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    धन्यवाद.

    "मीना भारद्वाज"

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी मेरी प्रविष्टि को चर्चा लिंक में शामिल करने के लिए दिल से आभार....

      हटाएं
  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ८ जनवरी २०२१ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी पाँच लिंकों के आनन्द में मेरी रचना को शामिल करने के लिए हार्दिक आभार

      हटाएं
  3. बहुत खूब !!!
    उम्दा शायरी ... 🌹🙏🌹

    जवाब देंहटाएं
  4. सुन्दर ... भावपूर्ण प्रेम का रस लिए ...

    जवाब देंहटाएं

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