घिन्दुड़ी

घिन्दुड़ी  | हिन्दी कविता | विकास नैनवाल 'अंजान'
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फुदकती थी 
जो यहाँ वहाँ
कभी छत पर 
कभी आँगन में
कभी किसी कमरें में

गूँजता था जिसकी चचचाहट से 
यह घर-द्वार

वह घिन्दुड़ी1 चली गयी

छोड़कर पीछे 
सूना घर-आंगन 
और एक मौन
जो खड़ा रहता है
हँसी ठठ्ठों के बीच और 
ताकता रहता है मुझे

है पता मुझे
वह घिन्दुड़ी चहचायेगी
अब अनंत आकाश में
जहाँ फैलाएगी 
वह अपने आकांक्षाओं के पर

पर मैं तकता रहूँगा आसमान में
क्योंकि मालूम है मुझे
वो आएगी वापस यहाँ
लौटकर

फिर खिलेगा यह घर-आँगन
लौटकर आने से उसके
और टूटेगा ये मौन
कुछ दिनों 
के लिए ही सही

विकास नैनवाल 'अंजान'

1. घिन्दुड़ी - गौरेया

14 टिप्पणियाँ

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  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 28 दिसम्बर 2020 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. मेरी रचना को पाँच लिंकों के आनन्द में प्रकाशित करने के लिए हार्दिक आभार...

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  2. घिन्दुड़ी!! हम घिन्डुड़ी कहते हैं...सच में इनके बगैर अपने गाँव की कल्पना भी अधूरी लगती है.....कैसे कम और अब विलुप्ति पर हो गयी है इनकी संख्या....चिन्तनीय है ये..
    शानदार सृजन।

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    उत्तर
    1. जी शायद दोनों ही कहा जाता है... पेड़ों के कटने, घरों के बदलने जैसे बदलावों के कारण यह सब हुआ है... हम नहीं बदलेंगे तो यह विनाश ऐसे ही चलता रहेगा...

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  3. वाह बहुत सुंदर सृजन मन को छू गया।
    प्रतीक रूप में पहले बेटियों को भी सोन चिरैया कहते थे,और जब वे विदा होके जाती थी तो सचमुच घर आंगन पिता सब की यही मनोदशा होती थी बहुत सुंदर सृजन ।

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    1. जी आभार... यह कविता मैंने अपनी छोटी बहन के लिए ही लिखी थी... उसका वर्क फ्रॉम होम खत्म होने के कारण उसे वापस जॉब पर जाना पड़ा तो उस दिन ये ही भाव मन में आये थे.... घरवालों के मन में बेटी की शादी के वक्त ऐसे भाव उठने की कल्पना मैं कर सकता हूँ...

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