कण्डोलिया मंदिर: एक छोटी सी यात्रा

यह यात्रा 25 जून 2020 को की गयी

बायाँ: घर से दिखती पहाड़ी जहाँ कण्डोलिया मंदिर है,दायाँ: कण्डोलिया से दिखता हमारा घर

मेरा पौड़ी में आना कम ही होता है।  यह आना इतने कम दिनों के लिए होता है कि अक्सर मैं घर पर ही यह वक्त बिताना पसंद करता हूँ। लेकिन इस बार लॉकडाउन ने मुझे घर पर रहने का भरपूर वक्त दिया है। ऐसे में अब मुझे पौड़ी में ही इधर उधर घूमने का मौक़ा मिल ही जा रहा है। मैं अक्सर इधर उधर निकल जाता हूँ और थोड़ा बहुत घूम लेता हूँ। 

25 जून को भी एक ऐसी ही यात्रा करने का मौका मिला। हुआ यूँ कि 25 तारीक को मम्मी पापा की शादी की सालगिरह थी। ऐसे में यह तय हुआ कि 25 की सुबह को रोट काटने के लिए कण्डोलिया मंदिर जाया जायेगा। यह जानकर मैं खुश हो गया। कुछ दिनों पहले घर से नीचे कठलौ (यात्रा वृत्तान्त इधर चटका लगाकर पढ़ा जा सकता है) गया था और अब घर से ऊपर की तरफ जाने का मौका मिल रहा था। कण्डोलिया मंदिर गये हुए वैसे भी काफी वक्त हो गया था। ( इससे पहले 2017 में गया था जब 2017 में मामा इधर आये थे।) अच्छा लग रहा था।

आखिर 25 की सुबह हुई। हमने आज कण्डोलिया मंदिर जाना था। कण्डोलिया मंदिर पौड़ी के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। पौड़ी में कण्डोलिया मंदिर की काफी मान्यता है। पौड़ी में वैसे दो कण्डोलिया मंदिर है। एक मुख्य कण्डोलिया मंदिर जहाँ हम जा रहे थे और दूसरा कण्डोलिया मंदिर पौड़ी बस अड्डे के निकट भी है। बस अड्डे के निकट वाला छोटा मंदिर है और बचपन में हम इसे छोटा कण्डोलिया मंदिर भी कहा करता थे।   

कण्डोलिया मंदिर वैसे तो खुद में ही काफी प्रसिद्ध है लेकिन मंदिर में हर साल होने वाले भंडारे का भी काफी नाम है।  मुझे याद है बचपन में हम लोग हर साल उधर भंडारा खाने जाते थे। उस दिन मंदिर में बहुत रौनक होती थी। भक्तों की लम्बी लम्बी लाइन लगी रहती थी और हम लोग सुबह सुबह उधर पहुँच जाया करते थे। उस वक्त ऊपर पहुँचकर हमारा सबसे पहले काम ऐसी झाड़ियाँ ढूँढना होता था जहाँ अपनी चप्पलें हम छुपा सकें। अक्सर मेले में चप्पल बदली हो जाती थी। कई भक्त गलती से अपनी पुरानी चप्पल छोड़ जाते थे और किसी अन्य भक्त की नई चप्पल ले जाते थे। ऐसी गलतियों से बचने का एक ही तरीका था कि अपने चप्पलों को ऐसे रखा जाए कि किसी को ऐसी गलती करने का मौका ही न लगे। क्यों किसी को परेशान करना।

यात्रा पर वापस आये तो हम सभी नहा धो गये थे। सुबह सुबह मम्मी ने रोट बनाये। शुभ अवसरों पर पहाड़ों में रोट काटने की प्रक्रिया होती है। रोट को गुड़ को पानी में उबालकर और पानी को ठंडा होने पर उससे आटा गूंथकर  रोटी जैसे बनाया जाता है। यह बहुत स्वादिष्ट होते हैं। इन रोटो को मंदिर में चढ़ाया जाता है जहाँ पुजारी इनको छोटे छोटे टुकड़ो में तोड़ देता है जिसे ही शायद रोट काटना कहते हैं। एक हिस्सा पुजारी मंदिर में भगवान के लिए रख लेता है और बाकी को प्रसाद के तौर पर वापस लौटा देता है।

चूँकि सब कुछ तैयार था तो साढ़े आठ बजे के करीब हम लोग घर से चल पड़े। कण्डोलिया मंदिर पहुँचने में आधा पौना घंटा ही लगना था। हाँ, अगर चढ़ाई पर चढने की आदत न हो तो ज्यादा वक्त भी लग सकता है।


रोट

चल पड़े कण्डोलिया की ओर 

ऑडीटोरियम की तरफ बढ़ते हुए

पौड़ी में कण्डोलिया तक जाने के काफी रास्ते हैं। आप अलग जगहों से होकर मंदिर में पहुँच सकते हैं।  आप विकास मार्ग होकर जा सकते हैं, आप एजेंसी होकर जा सकते हैं, आप पॉवर हाउस होकर जा सकते हैं और आप टूरिस्ट वाली सड़क से भी पहुँच सकते हैं। हमारे लिए ज्यादा मुफीद पॉवर हाउस वाला रास्ता या एजेंसी वाला रास्ता होता है।  ऑडीटोरियम से पॉवर पॉवरहाउस और उधर से लाइब्रेरी वाली सड़क पहुँचकर और फिर उधर सड़क से सामने बनी सीढ़ियाँ  चढ़कर कण्डोलिया मंदिर पहुँचा जा सकता है। या आप एजेंसी से होते हुए सिविल हॉस्पिटल और उधर से ऊपर जाती सड़क से लाइब्रेरी तक पहुँच जाते हैं और फिर उधर  से कण्डोलिया पहुँचा जा सकता है। पहले वाला रास्ता जहाँ छोटा है लेकिन चढाई वाला है वहीं दूसरा रास्ता कम चढाई वाला लेकिन लम्बा है जो घूमकर जाता है। हम लोगों ने पॉवरहाउस वाले रास्ते से जाने का मन बना लिया था। चढ़ाई थी लेकिन इतना चलना मुश्किल न था और हम जल्दी ही कण्डोलिया पहुँच सकते थे। 

हम चलने लगे और आधे घंटे में हम ऑडीटोरियम से होते हुए पहले पॉवरहाउस और उधर से लाइब्रेरी वाली रोड पर पहुँच चुके थे।

ऑडीटोरियम से ऊपर बढ़ते हुए 

पॉवर हाउस की तरफ जाते हुए

ऑडीटोरियम के ऊपर वाले रास्ते से दिखता गांधी मैदान... बचपन में इसमें खेला करते थे..अभी तो गाड़ियाँ ही दिखती हैं

पॉवरहाउस की तरफ बढ़ते हुए 

पॉवरहाउस वाला रास्ता...इधर से लाइब्रेरी के सामने पहुँचते है 

चलो चले पथिक...चढ़ते रहो सीढ़ियों पर

बढ़ते चलो...मम्मी,बहन और पीछे से आते पापा

पहुँचने वाले हैं लाइब्रेरी वाली रोड पर

आखिरकार सड़क... ये सड़क नीचे की तरफ एजेंसी की तरफ जाती है और ऊपर की तरफ कण्डोलिया की तरफ 

बैठने के लिए बना मैदान और सामने दिखती लाइब्रेरी

अब लाइब्रेरी वाली रोड से एक सीढ़ी सीधे कण्डोलिया तक जाती है  और दूसरा रास्ता सड़क सड़क होकर जाता है। इधर से आते आते हम सभी की साँसे फूलने लगी थी। अब यह सोचना था कि सीधा सीढ़ियों से जाना है या सड़क के रास्ते। सीढ़ियों का रास्ता जंगल के बीच से जाता है जो कि चढ़ाई वाला है लेकिन खूबसूरत है और इसीलिए मैं इस पर चलने के पक्ष में था। पापा और बहन सड़क सड़क जाने के इच्छा रखते थे क्योंकि उनके अनुसार आज के लिए चढ़ाई काफी हो चुकी थी। कहाँ से जाया जाए इस बात पर थोड़ा विचार विमर्श हुआ और आखिर में तय यह हुआ कि पापा और बहन सड़क के रास्ते आयेंगे और मैं और मम्मी चूँकि चलने में तेज हैं तो हम लोग सीढ़ियों के रास्ते आयेंगे। 

पापा और बहन सड़क पर बढ़ने लगे। चलने से पहले पापा ने हमे आगाह किया था कि हम अपने साथ लाये थेले को सम्भालकर चले क्योंकि सीढ़ी वाले रास्ते में बंदर होते हैं जो कि मौक़ा पाते ही थेले पर झपट्टा मारने में भी गुरेज नहीं करते हैं।  इस बात को अपने ध्यान में रखकर हम लोग अब सीढ़ियों पर चढ़े। कुछ कुछ जगह पर सीढियाँ कंक्रीट की पगडंडियों में तब्दील हो जाती थी। इन पगडंडियों और सीढ़ियों पर पिरूल (चीड़ के सूखे पत्ते) गिरे हुए थे। हम इनसे बचकर भी चल रहे थे क्योंकि इनमें फिसलने का बहुत डर होता है। रास्ता चढ़ाई वाला पर खूबसूरत था। भूरे पिरूल गीले गीले से सीढ़ियों पर और पगडंडियों पर ऐसे बिखरे हुए थे जैसे मानो किसी प्लेट में मौजूद सेवईं हो। पेड़ों के बीच से छनकर आती धूप रास्तों और इन पिरूलो को चमका रही थी।  पेड़ों के निकट बन्दर मौजूद थे जो हमे रुक रुक कर देख रहे थे। शायद उन्हें हमारे थेले में कुछ न होने का अहसास था इसलिए वो हमसे एक निश्चित दूरी बनाकर ही खड़े थे और गर्मी में अपनी गोष्ठी को ज्यादा तरजीह दे रहे थे। वहीं रास्ते के बीच और उसके आस पास कई गायें भी खड़ी थी जो कि घास चर रही थीं। मैं और मम्मी इस खूबसूरत रास्ते में बढ़े चले जा रहे थे। मैं रास्ते की तस्वीरें उतार रहा था और मुझे अफ़सोस हो रहा था कि बहन और पापा इस खूबसूरती को देखने से चूक गये। 

कण्डोलिया मंदिर की ओर जाने वाला रास्ता

चले चलो बढ़े चलो

गाय रास्ते में चरती हुई



धूप में बदंर अपनी गोष्ठी करते हुए 

चीड़(कुलें) के सूखे पत्ते(पिरूल) से अटी हुई पहाड़ी

पिरूल सीढ़ियों पर बिखरी हुई.इनमें फिसलने का भी डर रहता है तो सम्भल सम्भल कर जाना होता है


पेड़ों से छनती आती धूप

पहुँच गये मंदिर...

नौ दस मिनट में ही हम लोग रास्ते को पार करके मंदिर पहुँच गये थे। हम लोग मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़े और अब सीढ़ियों पर ही पापा और बहन का इन्तजार करने लगे। हमारी साँसे थोड़ा बहुत फूलने लगी थी जिसके चलते उन्हें सामान्य रूप से लाना था। यह सीढ़ियाँ जहाँ हम बैठे थे नीचे उस सड़क तक जाती थी जहाँ से कण्डोलिया मंदिर का मुख्य गेट है। जो लोग सड़क के रास्ते आते हैं वह उसी गेट से आते हैं। यह सीढ़ियाँ उस गेट से लेकर मंदिर के परिसर तक एक टीन की शेड से ढकी हुई है। जब हम छोटे थे तो यह शेड नहीं हुआ करती थी। ऐसा ही खुला हुआ होता था और भंडारे के दिन काफी धक्का मुक्की इधर होती थी। वहीं सड़क पर कई तरह के मिठाई, आइस क्रीम और खिलोने वाले अपने ठेले लगाकर सामान बेचते रहते थे। भंडारे का भोजन करने के पश्चात हमारा काम इन  दुकानों पर जाना और जम कर खरीदारी करना होता था। लेकिन 25 को भीड़ नामात्र की थी। कुछ लोग आ जा रहे थे बस। मैं इधर उधर फोटो ही खींच रहा था । शेड के दायीं तरफ एक रेलिंग बनी हुई थी जिसके बगल में छोटे छोटे मंदिर बने हुए थे। इन्हीं में से एक मंदिर के आगे एक बोर्ड लगा था जिसमें कण्डोलिया मंदिर से जुडी जानकारी थी। जब तक पापा और बहन आते मैं उस बोर्ड पर लगी जानकारी पढ़ने लगा। जानकारी कुछ यों थी:
1. कण्डोलिया देवता मूलरूप से भगवान शिव का ही स्वरूप हैं

2. जब पौड़ी को बसाने वाले मूलनिवासी आये और उन्होंने पौड़ी ग्राम बसाया तो वो अपने साथ अपने भूमियाल देवता भी साथ लाये और उनकी स्थापना कण्डोलिया नामक उच्च स्थान पर की 

3. इनके पुजारी डोंगरियाल नेगी हैं 

4. पूर्वकाल में यह "धावड़िया देवता" के रूप में भी प्रसिद्ध हैं। इसका अर्थ यह है कि यह देवता पूर्वकाल में गाँव वालों को नुकसान या संकट की परिस्थिति होने पर पहले ही सूचित कर देते थे। (मोल्ठी के भैरवनाथ के विषय में भी यही कहा जाता है) 

जब तक मैं जानकारी पढ़ रहा था तब तक पापा और बहन भी आ गये। इसके बाद हम कुछ देर उधर ही बैठे रहे,इक्का दुक्का तस्वीरें और खींची और फिर मंदिर परिसर में दाखिल हुए। 


मंदिर के नीचे बना विश्रामगृह...यहाँ से सामने के नजारे लिए जा सकते हैं

मंदिर के परिसर को जाती सीढ़ियाँ


सीढ़ियों से आने के बाद आराम फरमाते हुए 

कण्डोलिया के विषय में जानकारी देता बोर्ड


आ गये सभी.. अब चला जाए मंदिर
मैं भी खिंचवा लूँ 

मंदिर में पहुँचकर हमने हाथ पाँव धोये और फिर पूजा की गयी और रोट काटा गया। पूजा खत्म करके हम लोग परिसर में घूम रहे थे कि हमे पता चला कि उस दिन भंडारे का आखिरी दिन था और मंदिर में हवन होना था।

कुछ महीनों पहले तक किसे लगता रहा होगा कि कण्डोलिया के मंदिर में भंडारे के आखिरी दिन इतने कम लोग होंगे। अभी तो यह मंदिर और आस पास का इलाका श्रद्धालुओं से खचाखच भरा रहता था। पर अभी तक सब कुछ खाली खाली ही था। आज चूँकि हवन होना था तो हवन के लिए घर वाले हवन सामग्री चढ़ाना चाहते थे। सामग्री थी नहीं तो सामग्री लेने मुझे भेजा गया। कण्डोलिया मंदिर जितना प्रसिद्ध है उतना ही लोकप्रिय उसके बगल में मौजूद मैदान है। इस मैदान में कई झूले हैं और बच्चे अक्सर इनमें झूलते हुए पाए जाते हैं। बचपन में मैं भी इनमें काफी खेलता था। मुझे याद है पहली बार जब मैं इधर झूले में बैठा था और पापा ने झूले को धक्का दिया था तो मैंने हाथ छोड़ दिए थे और उड़ते ही मैं जमीन पर गिरा था। सभी की हालत  खराब हो गयी थी। हवन सामग्री लेने के लिए जब मैं दुकान की तरफ गया तो देखा कि मैदान के सारे झूले उखड़े हुए थे और उधर कुछ निर्माण कार्य चल रहा था। चीजों का टूटना, बिखरना हमेशा उनके खत्म होने का द्योतक नहीं होता है बल्कि कई बार वह उनके बेहतर होने का द्योतक होता है। चीजें टूटती हैं तो बेहतर चीज उसकी जगह लेती है। ऐसे ही हम इनसान भी होते हैं। जब हम ऐसी परिस्थियों से जूझ रहे होते हैं जो हमे तोड़ दे,  उस वक्त हमारे अंदर भी पुनर्निर्माण की प्रक्रिया चलती रहती है। उन परिस्थितियों से पार पाकर हम लोग बेहतर बनते हैं। अक्सर हम यह बात भूल जाते हैं लेकिन यही एक बात हमें याद रहे तो जिंदगी की कई परेशानियों के आगे हम हार न माने। उम्मीद है कि यह टूटना भी कुछ बेहतर ही लेकर आएगा और उस दिन मैं पूरा दिन इस पार्क में बिताऊँगा। 

यही सोचते हुए मैं दुकान की तरफ बढ़ गया। रास्ते में एक गांधी बाबा की मूर्ती और फव्वारा भी था। गांधी बाबा की ,मूर्ती तो चाक चौबंद थी लेकिन फव्वारे के हाल बेहाल लग रहे थे। उम्मीद है जब पार्क की हालत सुधरेगी तो फव्वारा में भी सुधार होगा या इसकी जगह कुछ दूसरी चीज लगा दी जाएगी।

मैं दुकान पहुँचा, सामान लिया और फिर सामान लेकर मैं वापस मंदिर की तरफ बढ़ गया। वापस आते हुए देखा कि सड़क के बगल में मौजूद दीवार में चित्रकारी की हुई थी। एक सफाई रखने का संदेश देती तस्वीर थी और एक शिव जी की तस्वीर थी। यह तस्वीरें खूबसूरत लग रही थीं। हाँ, इस दीवार में अभी भी कई खाने खाली थे। यह भी उम्मीद है जल्द ही इन खाली खानों में भी ऐसी ही कई खूबसूरत तस्वीरें बनाई जाएँगी।


हवन सामग्री लेने जाते हुए 

पार्क में चल रही मशीने पुनर्निर्माण करते हुए 
मैदान में सीढ़ियों का निर्माण हो रहा है 

आखिर मै कितना झाड़ू लगाऊँ? कहते सफाई कर्मचारी

क्षितिज को निहारते शिव

गांधी बाबा की मूर्ती, ऊपर रांसी को जाता रास्ता और नीचे कण्डोलिया को जाता रास्ता 

कण्डोलिया मंदिर परिसर को जाता मुख्य द्वार

बढ़े चलो 

आस-पास का इलाका

पहुँच गये वापस मंदिर 


मंदिर पहुँचा सामान दिया और फिर हम लोग हवन होने का इंतजार करने लगे। मंदिर का माहौल शांतिपूर्ण था। मंदिर में ही हमे पड़ोस में रहने वाली दादी मिल गयीं थी तो मम्मी और बहन उनसे बातचीत करने लगे थे। मैं आस पास प्रांगण में घूमने लगा। मंदिर के प्रांगण से हमारा घर भी दिखता है तो हम लोग वह भी  देखने लगे। फिर मैं आस-पास की तस्वीर उतारने लगा। ऐसे ही  कुछ देर हमने इंतजार किया लेकिन हवन होने में कुछ वक्त बचा हुआ था। मेरा दफ्तर भी था तो मुझे भी घर पहुँचकर काम करना था। हम बिना नाश्ता किये हुए मंदिर तक आये थे तो भूख भी लग आई थी। बहन का भी दफ्तर था उसे भी काम करना था। 

ऐसे में सभी ने यह  निर्णय लिया कि हम लोग वापसी कर लें। मंदिर में हवन सामग्री हमने दे ही दी थी तो हम लोग अपने घर की तरफ लौट आये। इस बार हमने सड़क वाले रास्ते से जाने का मन बनाया था। हम सीढ़ियों से होते हुए सड़क और फिर सड़क से घर की तरफ बढ़ने लगे। सड़क तक आते हुए हमे एक गाय दिखी जिसे मम्मी ने हमे रोट खिलाया था। उसे रोट खाता देख एक और गाय आ गयी और फिर उन्हें भी रोट खिलाया जाने लगा। उसे देख एक बछिया इतनी तेजी से भागती हुई आई कि एक बार को तो सभी घबरा गये लेकिन फिर उसे भी सम्भाला और रोट खिलाया गया।

रोट खिलाने के बाद हम लोग घर की तरफ बढ़ गये और सीधा घर जाकर ही थमें।












यह एक छोटी सी घुमक्कड़ी थी लेकिन इसमें मुझे तो भरपूर मजा आया था। उम्मीद है कण्डोलिया तक का यह सफर आपको भी पसंद आया होगा। 

अब मुझे इजाजत दीजिये। 

फिर मिलेंगे किसी और सफर पर किसी और डगर पर। तब तक के लिए #पढ़ते_रहिये_घूमते_रहिये।
#फक्कड़_घुमक्कड़

पौड़ी में की गयी अन्य घुमक्कड़ी के वृत्तांत आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:


© विकास नैनवाल 'अंजान'

14 टिप्पणियाँ

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  1. रोट बनाना या रोट के बारे में पहली बार सुना या पढ़ा....नयी जानकारी....

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  2. बढ़िया घुमक्कड़ी....मौका मिला तो इस मंदिर में जरूर जाना चाहूंगा.....

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  3. अरे वाह, ऐसा लगा जैसे मैं खुद उधर धुम रहा हूं। 😁😁😁😁😁😁😁 शुक्रिया भाई एक जबरदस्त यात्रा वृतांत के लिए।

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    1. वृत्तान्त आपको पसन्द आया यह जानकर अच्छा लगा...धन्यवाद....

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  4. बहुत ही सुन्दर यात्रा वृतान्त अपने पौड़ी गढ़वाल की सुन्दर तस्वीरे देख कर गाँव की यादें ताजा हो गयी।

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    1. वृत्तान्त आपको पसन्द आया यह जानकर बहुत अच्छा लगा, मैम...बहुत धन्यवाद

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  5. कंडोलिया मंदिर ... रोचक जानकारी मंदिर और सफ़र की ...
    बहुत कमाल की फ़ोटोग्राफ़ी ...

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  6. कंडोलिया मंदिर ..भगवान शिव के दर्शन . बहुत बढ़िए घुमक्कड़ी । घर के सदस्यों के साथ इस तरह की घुमक्कड़ी का आनंद अद्वितीय है ।

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    उत्तर
    1. जी मैम। आपने सही कहा परिवार के लोगों के साथ घुमक्कड़ी करने से आनन्द बढ़ जाता है।

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  7. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा सोमवार(03-08-2020) को "त्योहारों का उल्लास लिए शुभ अष्टम सु-मास यह आया !" (चर्चा अंक-3782) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है.

    "मीना भारद्वाज"

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    उत्तर
    1. जी चर्चा अंक में मेरी पोस्ट को शामिल करने के लिए आभार, मैम....

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