कौसानी ट्रिप 4- पहुँचे कौसानी, किया होटल और देखे नजारे

यह यात्रा 5 दिसम्बर 2019 की शाम से 8 दिसम्बर 2019 तक की गयी 


कौसानी ट्रिप

छः दिसम्बर 2019
इस यात्रा वृत्तांत को शुरुआत से पढने के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें:
कौसानी यात्रा 1



पिछली कड़ी में आपने पढ़ा कि किसी तरह से हम रानीखेत से कौसानी पहुँच गये थे। आखिरकार अब हम अपनी मंजिल कौसानी पर मौजूद थे। अब आगे :


शादी में आये हो:

हम लोग कौसानी पहुँच गये थे। कौसानी पहुँचकर हमने राहत की साँस ली। मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि लगभग दो घंटे पहले मैं रानीखेत में ही रुकने के विषय में सोच रहा था। लेकिन फिर किस्मत हमारी सही थी और एक रोचक सफर तय करके हम लोग अब अपनी मंजिल में थे। हमने चारों तरफ नजर मारी। यह एक बाज़ार सा था। होटल और लॉज इधर मौजूद थे। आसमान में धूप थी लेकिन ठंड का अहसास भी था। साथ ही संगीत की मधुर लहरियाँ तैर कर हम लोगों तक आ रही थी। इन लहरियों से पता लग रहा था कि आस पास किसी शादी थी जिसके उपलक्ष्य में संगीत बजाया जा रहा था । लेकिन हमे इससे क्या था? हम शादी में आए नहीं थे। इसलिए बस पहाड़ी गीतों के मैं मजे ले रहा था।

रूम का क्या करना है? यह प्रश्न हम दोनों के ही मन में ही था लेकिन पहले कुछ और जरूरी काम करना था। मैंने राकेश भाई से कहा - “चाय पियेंगे? चाय पीकर रूम तलाश करेंगे?”

“ठीक है”- राकेश भाई ने कहा और हम एक छोटे से होटलनुमा जगह में दाखिल हुए। उधर एक व्यक्ति बाहर बैठे हुए अखबार पढ़ रहे थे और अंदर कुर्सी टेबल खाली ही पड़े थे। हमने उनसे कहा -”चाय हो जाएगी?”

उन्होंने हामी भरी और हम होटल के भीतर घुस गये। थोड़ी देर में चाय बनकर आई और हम लोगों ने चाय की चुस्कियाँ ली। चाय में अदरक वगेरह तो नहीं था लेकिन चाय ठीक बनी थी। चाय का आनन्द हमने लिया। चाय पीते पीते ही मैंने घर फोन किया और माँ को बताया कि मैं कौसानी पहुँच चुका हूँ। फिर मैंने उन्हें कहा कि मैं रूम मिलते ही उन्हें फोन करूँगा और कॉल रखकर अपनी चाय का आनन्द लेने लगा।


इधर उधर की बातें हुई और फिर चाय खत्म करके होटल से बाहर आये।

हमने चाय के पैसे चुकाए और अब सड़क पर खड़े यही सोच रहे थे कि किधर जाना है।

तभी एक व्यक्ति हमारे नजदीक आये और उन्होंने हमसे पूछा - “शादी में आये हैं आप?”

हमने उनकी तरफ देखा। वह एक लम्बे लेकिन पतले व्यक्ति थे। सिर पर टोपी थी। स्वेटर और पैंट डाली हुई थी। शायद उसके ऊपर कोट भी था। चेहरे से ही पहाड़ी लग रहे थे। उम्र तकरीबन चालीस के करीब रही होगी। गोर थे और चेहरे पर लाली थी।

“नहीं, हम घूमने आये हैं।” राकेश भाई और मैंने लगभग एक साथ ही बोला।

“अच्छा! किधर ठहरे हुए हैं?” व्यक्ति ने पूछा।

“अभी देख ही रहे हैं”,राकेश भाई ने बोला तो मुझे लग गया था कि यह हो न हो होटल वाले ही हैं।

मेरा अंदाजा सही निकला। राकेश भाई के यह बताते ही कि हम लोग अभी कमरा देख रहे हैं उन्होंने अपनी सेल्स पिच हमारी तरफ फेंकी।

“सर कमरा देख  रहे हैं तो एक बार हमारे होटल को देख लीजिये। उधर से बहुत अच्छा व्यू दिखाई देता है। टी एस्टेट भी नज़दीक है। शाल फैक्ट्री  भी आसानी से जा सकते हैं।  सामने पहाड़ दिखता है। आप निराश नहीं होंगे।”

“यहाँ से कितने दूर है?” राकेश भाई ने प्रश्न किया।

“एक डेढ़ किलोमीटर है। बस बगल में ही है। मेरे साथ चलिए। मेरे पास स्कूटर है। आपको उसमें ले जाता हूँ। जब आप रूम छोड़ेंगे तो आपको इधर छोड़ने भी आ जाऊँगा।”

हमने एक दूसरे को देखा। हमारी आँखों में झिझक देखकर उन्होंने कहा -”सर जबरदस्ती नहीं है। एक बार कमरा देख लीजिये। जगह पसंद नहीं आई तो आपको इधर वापस लेकर आ जाऊँगा।”

राकेश भाई ने मुझे देखा और मैंने उन्हें देखा। उन्होंने आँखों से बोला - “क्या किया जाए?”

मैंने भाई साहब को देखा और रेट के विषय में पूछा -”उन्होंने अपने काम के अनुसार बोला। सर वैसे तो रेट सीजन में ज्यादा होते हैं। दो ढाई हजार का कमरा है। लेकिन चूँकि अभी सीजन नहीं है तो सस्ता मिल जायेगा।”

“कितना?”- राकेश भाई बोले।

“सर अलग अलग रूम हैं। अगर ग्राउंड फ्लोर पर लेंगे तो 800, फर्स्ट पर लेंगे तो हजार और टॉप फ्लोर पर व्यू वाला कमरा लेंगे तो 1200 में हो जायेगा।”

मैंने राकेश भाई को देखा और उन्होंने गर्दन हिलाकर पूछा क्या करना है?
मैंने भी गर्दन हिलाकर उनसे वही सवाल दोहरा दिया।
“देख लें?” राकेश भाई ने पूछा।
“देखने में क्या जाता है?”मैंने कंधे उचकाकर कहा।
“ठीक है देख लेते हैं” राकेश भाई ने कहा और फिर उन व्यक्ति से बोले - “चलो।”
उनके चलो बोलते ही उन व्यक्ति के चेहरे पर एक मुस्कान आ गयी और उन्होंने ख़ुशी ख़ुशी कहा। चलिए सर थोड़ी ही दूर पर मेरा स्कूटर खड़ा हुआ है।

हम लोग उनके पीछे चलने लगे।

हम चौराहे से आगे की तरफ जाकर दायें तरफ मुड़ गये। चलते चलते हमने उनसे कौसानी के पर्यटक स्थल की बात बताई तो उन्होंने हमे बैजनाथ मन्दिर, शाल फैक्ट्री, टी एस्टेट इत्यादि के विषय में बताया। राकेश भाई ने उनसे ग्वालदम जगह के विषय में पूछा तो उन्होंने कहा कि वो दूर है। अगर हम उधर जाएँगे तो केवल उसे ही देख सकेंगे। ग्वालदम का नाम मैं पहली बार सुन रहा था। बाद में राकेश भाई ने बताया कि उधर से हिमालय की चोटियाँ और नजदीक दिखती हैं।

 कुछ दूर चलने के बाद हम लोग एक जगह आकर रुक गये। सड़क के किनारे पर एक चाय का टीन का छप्पर सा था जहाँ एक महिला चाय, बिस्कुट, इत्यादि बेच रही थी। कुछ लोग उस छप्पर के इर्द गिर्द बैठे हुए थे। वहीं पर उन भाई साहब का स्कूटर भी था। उस व्यक्ति ने उधर पहुँचकर महिला से कुछ बातचीत की और फिर  स्कूटर स्टार्ट कर दिया। वह शायद उनको जानते थे।

अब स्कूटर के पीछे लदे हम लोग होटल की तरफ जा रहे थे। सड़क सीधी थी। सड़क के इधर उधर घर थे, कुछ लॉज थे और कुछ होटल भी नजर आ रहे थे। उधर से होटल तक पहुँचते हुए हमे शुरुआत को छोड़ दें तो दुकान एक भी नहीं दिखाई दी। कुछ दूर जाकर तो घर और लॉज भी खत्म हो गये थे केवल सड़क और उसके दोनों और जंगल ही मौजूद थे। सड़क की दायीं और देखने पर हिमालय की चोटियाँ हमे दिखाई दे रही थीं। जिस प्रकृति की तलाश में हम इधर आये थे वह इधर बाहें फैलाए हमारा इंतजार कर रही थी।

कुछ ही देर में हम लोग होटल के समक्ष खड़े थे। यह होटल विशाखा पैलेस था। सड़क के किनारे बना यह होटल प्रकृति की गोद में बसा होकर भी आधुनिकता से जुड़ा हुआ था। अंदर घुसते ही सामने छत नजर आती थी जिस पर कुर्सी और मेज लगे हुए थे। सामने हिमालय दिखाई दे रहा था। चारों तरफ शांति ही शांति थी।

हमने नीचे जाकर कमरा चेक किया तो हमे यह पसंद आ गया और हमने इधर रुकने का फैसला कर दिया।

कुछ ही देर में हम लोगों कमरे में मौजूद थे।

पहुँच गये विशाखा पैलेस

हमारा कमरा


राकेश भाई भी पहुँच गये 
कर दिए पैसे बर्बाद:
मैंने बैग बिस्तर में डाला। राकेश भाई भी आये और फिर कमरे की फॉर्मेलिटी करने होटल के रिसेप्शन पर चले गये। मैं बालकनी की तरफ बढ़ गया।

कमरे के बाहर बालकोनी में एक कुर्सी और एक छोटी टेबल पड़ी थी। मैंने बालकनी से खड़े होकर बाहर की कुछ तस्वीरें खींची। बाहर सामने मौजूद हिमालय मुस्कराते हुए हमारा स्वागत करता सा प्रतीत हो रहा था। होटल के समक्ष एक लॉन था जिस पर होटल का नाम लिखा गया था। होटल के बगल में गाँव वालों का एक घर था। इस घर में एक माल्टे का पेड़ था जिस पर लगे पीले रंग के माल्टे बहुत ही आकर्षक लग रहे थे। कुछ देर तक मैं इन नजारों का आनन्द लेता रहा और फिर इन्हें कैमरे में कैद करके भीतर दाखिल हो गया। मैंने होटल के कमरे और बाहर के दृश्य मम्मी को भेजे और फिर उन्हें फोन लगाया।

“माँ नमस्ते। मैं पहुँच कमरे में पहुँच गया। हाँ,१२०० का कमरा है। देखी तस्वीर?” मैं एक ही साँस में बोल गया।

“कर दिए पैसे बर्बाद।”, माँ ने उल्हाना देते हुए बोला। "यही देखने उधर इतना पैसे खर्चा करके गया था। इधर आता तो ऐसे नजारे भी दिखते और पैसे भी बचते।” मम्मी ने अपनी बात रखी।

“क्या यार माँ? पौड़ी पौड़ी है? कौसानी कौसानी है?” मैंने मम्मी को कहा। कुछ हद तक मम्मी सही भी थी। जिस व्यू की तारीफ करके होटल वाले भाई हमे इधर लाये थे वह व्यू मेरे घर से रोज दिखाई देता था। लेकिन फिर घर की मुर्गी दाल बराबर भी तो होती है। यह बात मैं मम्मी को कैसे समझाता।

खैर, मम्मी ने थोड़ी देर मेरी टाँग और खींची। फिर मैंने काफी चतुराई से विषयांतर कर दिया और थोड़ी इधर उधर की बात करके इजाजत लेकर फोन काट दिया। मैं अब आकर बिस्तर पर बैठ गया। लगभग 18 घंटे के सफर के बाद हमे बिस्तर नसीब हुआ था। बिस्तर पर बैठने के बाद मेरा मन चाय पीने हो गया।

होटल के कमरे से बाहर को दिखता दृश्य 
बायें तरफ पौड़ी में मेरे घर से दिखता दृश्य, दायीं तरफ कौसानी के होटल से दिखता दृश्य 


होटल का लॉन कमरे से दिखता हुआ 




होटल से दिखता घर और माल्टे का पेड़

आप सोओ, मैं चाय पियूँगा 

जब तक मैं मम्मी से बात कर रहा था तब तक राकेश भाई भी आ गये थे। मैंने राकेश भाई से कहा -”चाय पियोगे?”

राकेश भाई- “अभी तो पी थी यार।”

"अरे अभी कहाँ पी थी। कितना वक्त हो गया?” मैंने कहा तो राकेश भाई मुस्करा दिए।

“न मैं तो अब सोऊंगा।” राकेश भाई ने कहा और फ्रेश होने चले गये।

“पीकर सो जाना।” मैंने कहा तो राकेश भाई का मन डोल गया। वो फ्रेश होने बाथरूम में गये तो मैंने दो चाय का आर्डर दे दिया।

कुछ देर बार राकेश भाई फ्रेश होकर बाहर निकले और मैं फ्रेश होने गया। जब तक मैं आया तब तक चाय आ गयी थी। चाय केतली में लाई गयी थी।

राकेश भाई ने आधा कप चाय पी और फिर चाय पीने लगे।

मैंने भी चाय अपने कप में डाली और उनसे कहा - “आप सो जाओ। अपन तो चाय पियेंगे।”

मैं जब तक बस में था तो मुझे नींद के तगड़े झोंके आ रहे थे। उस वक्त मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मुझे बिस्तर मिल जाए तो मैं लेटते ही सो जाऊँगा लेकिन अब जबकि मैं बिस्तर पर बैठा हुआ चाय सुड़क रहा था मेरे आँखों से नींद पूरी तरह से गायब थी। राकेश भाई चाय पीकर बिस्तर पर लेट गये थे और मैं बैठा सोच रहा था कि क्या किया जाए।


मैं और लाल घाट का प्रेत 

चाय पीते पीते मैं यह सोच रहा था कि क्या करूँ? तभी मन में ख्याल आया क्यों न 'लाल घाट के प्रेत' से ही मिल लिया जाये। लाल घाट का प्रेत एक फारेस्ट ऑफिसर अनिल चौधरी की कहानी है जिसका स्थानान्तरण जब लाल घाट होता है तो उसे उधर मौजूद एक पुजारी के विषय में पता चलता है। उसे पता चलता है कि स्थानीय लोगों का मानना है कि लाल मंदिर का पुजारी, जो कि मर चुका है,  प्रेत बनकर मन्दिर में वास करता है। स्थानीय लोग उससे डरते भी है और उसकी पूजा भी करते हैं। अनिल चौधरी आधुनिक सोच विचारों वाला व्यक्ति है जो इन दकियानूसी बातों को नहीं मनाता है। परन्तु हालात कुछ ऐसे बन जाते हैं कि अनिल चौधरी  को लाल घाट के इस प्रेत से टकराना पड़ता है। आगे क्या होता है यही कहानी बनती है। राज भारती जी  का यह उपन्यास मैंने काफी पहले लिया था।  मैं अक्सर जब भी कहीं जाता हूँ तो अपने साथ एक किताब लेकर चलता हूँ। ऐसे मौकों में जब आराम करना हो तब किताब बहुत अच्छा साथ साबित होती है। अब चूँकि राकेश भाई आराम कर रहे थे और मैं चाय चुस्क रहा था तो मैंने बैग से लाल घाट के प्रेत निकाली और उसे पढ़ने लगा।

लाल घाट का प्रेत

अगले लगभग एक डेढ़ घंटे तक मैं किताब में ही खोया रहा। केतली में चाय काफी थी तो काफी देर तक इसने मेरा साथ भी निभाया।

शाम की घुमक्कड़ी 

लगभग पौने चार बजे राकेश भाई कुनमुना कर उठे। इस दौरान मैं उपन्यास का काफी हिस्सा पढ़ चुका था। रह रहकर मोबाइल के साथ भी लगा हुआ था। राकेश भाई उठे और उठने के बाद हमने बाहर घूमने का मन बनाया। हम होटल में रुकने तो आये नहीं थे।


अब हम लोग होटल से बाहर निकल गये। ऊपर सड़क पर पहुँचकर हमने सोचा किधर जाया जाये? मार्किट की तरफ से तो हम आये थे इसलिए मैंने मार्किट से उलटी दिशा में आगे जाने का मन बनाया।

सीधी सड़क थी और हम इस पर बढ़ गये। पहाड़ के बीच में मौजूद इस सड़क पर चलना अच्छा लग रहा है। आस पास गाँव वालों के घर जरूर थे लेकिन वो भी पेड़ों से ढके हुए थे। इक्का दुक्का लॉज और विला भी इधर मौजूद थे। सड़क के किनारे नीचे खेत भी थे जो कि शायद चाय के बागान थे।

 हम इसी सड़क पर चलते रहे । सड़क पर ऐसे चलते हुए मुझे तो मज़ा आ रहा था। राकेश भाई भी अपने कैमरे से प्रकृति की इन छटाओ को कैद करने की कोशिश कर रहे थे। उनके पास एक एक्शन कैमरा भी था जिससे भी छोटे छोटे वीडियोस हमने बनाये। वह विडियो तो अब राकेश भाई के पास ही होंगे।  ऐसे ही मस्ती करते हुए हमने उधर वक्त बिताया।

चूँकि सर्दी का वक्त था तो जल्द ही रात ढलने लगी थी। फिर यह तो पहाड़ था। पाँच बजे करीब ही अन्धेरा होने लगा था। हम लोग भी सवा पाँच बजे तक होटल के अपने कमरे में लौट आये थे। यह एक घंटे का भ्रमण ने हमे तरो ताज़ा कर दिया था।

आप भी कुछ तस्वीरों के मजे लीजिये।

















खाना पीना और सोना 

एक आध घंटे चलने के बाद हमे चाय पीने का मन करने लगा था। हमने लौटकर चाय का आर्डर दिया। चाय आई तो उसी वक्त हमने खाने का आर्डर भी दे दिया। हमने दिन से कुछ खाया नहीं था तो अब जल्द ही खाकर सोने का इरादा था। मुझे भी नींद आने लगी थी।

साढ़े आठ पौने नौ बजे और हम लोगों के लिए डिनर भी आ गया था।  दाल चावल चिकन और रोटी ही हमने मंगवाई थी। इस बार चिकन की फरमाइश राकेश भाई ने करी थी।

हमने गरमा गर्म  खाना खाया। खाना सुस्वादु था। अब पेट भर गया था। हम लोग अब वापस बिस्तर में आ गये थे। राकेश भाई अब सोना चाहते थे। मेरा एक बार चाय पीने का मन था। खाने के बर्तन लेने होटल वाले भाई आये तो उनसे एक बार की चाय और मैंने मंगवाई। जब तक चाय आई तब तक मैं अनिल चौधरी और लाल घाट के प्रेत के साथ ही मशरूफ रहा। चाय आने के बाद मैंने चाय पी। आनन्द आ गया। खाने के बाद एक अदरक वाली चाय मिल जाए तो सोने पर सुहागा हो जाता है।

सफर की थकान अब जाकर मुझे महसूस होने लगी थी। यही कारण था कि मैंने किताब को किनारे रखा। पानी का घूँट पिया, एक बार बाथरूम गया और फिर आकर लाइट बंद करके बिस्तर पर लेट गया। राकेश भाई तो बगल में कबके सो गये थे। मुझे भी लेटते ही न जाने कब नींद आ गयी इसका पता ही नहीं चला।

डिनर
राकेश भाई बेहतरीन फोटोग्राफर हैं। जाते जाते उनकी नजरों से कौसानी कैसा दिखा ये भी देख लीजिये।

राकेश भाई की नजरों से कौसानी





                                                                 क्रमशः 

कौसानी यात्रा की सभी कड़ियाँ:
कौसानी ट्रिप 1
कौसानी ट्रिप 2
कौसानी ट्रिप 3
कौसानी ट्रिप 4
कौसानी ट्रिप 5
कौसानी ट्रिप 6
कौसानी ट्रिप 7
कौसानी ट्रिप 8


© विकास नैनवाल 'अंजान'
#फक्कड़_घुमक्कड़  #हिन्दी_ब्लॉग्गिंग #पढ़ते_रहिये_लिखते_रहिये

8 टिप्पणियाँ

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  1. राकेश भाई ने तो बहुत बढ़िया कौसानी के फोटो खिंचे.....चाय पीना एक जरुरी काम है....पौड़ी से त्रिशूल नहीं दिखता और कौसानी से त्रिशूल दीखता है.....हिमालय दोनों जगह से दीखता है लेकिन दोनों चोटी अलग अलग है जो दोनों जगह से दिखती है....आपको ग्वालदम नहीं पता....लालघाट का प्रेत.....चलो बढ़िया लेख और बढ़िया जगह की घुमक्कडों हो रही है भाई...

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    1. जी प्रतीक भाई। राकेश भाई तो कमाल के हैं उनसे काफी कुछ सीखने को मिल जाता है। लेकिन फोटो खींचते हुए वो इतनी मेहनत करते हैं कि मुझ जैसे नौसीखिए डर ही जाते हैं। जी आपने सही कहा चोटियाँ अलग हैं लेकिन आम व्यकित के लिए, जो दूर से इन्हें निहार रहा है, सब एक सा ही दिखता है....जी ग्वालदम नहीं पता था.. अंजान नाम ऐसे ही थोड़े न लगाया है.. हा हा... जी आप बहुत दिनों बाद आये ब्लॉग पर... देखकर अच्छा लगा... आते रहियेगा....

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  2. उत्तर
    1. चित्र आपको पसंद आये यह जानकर अच्छा लगा,सुशील जी...ब्लॉग पर आने का शुक्रिया है...आते रहियेगा....

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  3. अति सुंदर।
    बस मुझे नहीं लेकर गए।
    😊😊😊😊😊

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    1. जी आभार। ब्लॉग पर आने का शुक्रिया। जल्द ही दूसरा टूर मारेंगे। फिर साथ जायेंगे।

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  4. उत्तर
    1. जी मैम। उधर टहलकर सुकून मिल रहा था। मन कर रहा था कि बस जीवन में कोई चिंता न हो और इसी जगह पर रुक जाऊँ।

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