नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला 2020 - #2

11 जनवरी 2020 और 12 जनवरी 2020 

इस वृत्तांत का पहला भाग पढ़ने के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें:
नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला 2020- 1



पाँच तारीक के बाद सप्ताहंत तक मुझे पुस्तक मेला जाने का मौका नहीं मिला। आठ तारीक को पुस्तक मेले में सुरेंद्र मोहन पाठक साहब के आने वाले उपन्यास काला नाग के आवरण चित्र का भी विमोचन होना था। कई लोग उसमें भी जा रहे थे लेकिन चूँकि यह कार्य दिन में होना था और हफ्ते के बीच में होना था तो मैं इसमें हिस्सा नहीं ले पाया।

देव बाबू और जयंत भाई हर शाम को पुस्तक मेले से आते थे और काफी किस्से सुनाते थे। अलग अलग खरीदारों के, लेखकों के और अन्य प्रकाशकों  के यानी जिस किसी से भी मुलाक़ात होती उसके किस्से मुझे सुनाये जाते। मैं बड़े चाव से उनको सुनता था। भारतीय पाठक विशेषकर हिंदी वाला अभी क्या पढ़ना चाह रहा है, कौन सी किताबों को आसानी से वो उठाता है और कौन सी किताबों से दूर भागता है इसका भी पता मुझे चल रहा था। अलग अलग इनसाइट्स मिल रहे थे।

मैं खुद शनिवार-रविवार आने का इन्तजार कर रहा था। यह पुस्तक मेले के आखिरी दो दिन होने वाले थे और मैं इनमें शामिल होना चाहता था। शनिवार महत्वपूर्ण इसलिए भी था क्योंकि उसमें कॉलेज के कुछ दोस्तों ने आने का प्लान किया था। वैसे तो जबसे सबकी जॉब लगी है तभी से सबका एक जगह मिलना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में कभी कभी अगर कोई प्लान बनाये तो अच्छा लगता है। वैसे अपने दोस्तों के हाल मुझे पता थे और इसका भी यकीन था कि कई प्लान कैंसिल करेंगे।


शनिवार, 11 जनवरी 2020

निवार आया। मेरी छुट्टी थी। देव बाबू और जयंत भाई सुबह सुबह ही पुस्तक मेले के लिए निकल गए। मैंने थोड़ी देर में जाने का निर्णय किया। सप्ताहंत में अक्सर मैं ब्लॉग पर काम करता हूँ तो मैंने यही फैसला किया कि एक ब्लॉग पोस्ट तैयार करूँगा और उसे पोस्ट करने के पश्चात ही कहीं जाऊँगा। पहले मनन से मेरी बात हुई थी। वह भी गुरुग्राम में रहता है। शुरुआत में मेरा विचार जल्दी जाने का था तो उसने कहा था कि वो लेट आएगा तो साथ में नहीं आएगा। अब चूँकि मैं देर में जा रहा था तो मैंने उससे सम्पर्क किया और फैसला हुआ कि हम लोग बारह बजे के करीब हुडा मेट्रो से निकलेंगे।

यानी मेरे पास 11 बजे तक का वक्त था क्योंकि मुझे अपने रूम से हुडा पहुँचने में पौने घंटे के बराबर ही लगता। पंद्रह मिनट में मैं तैयार होता और फिर हुडा सिटी सेण्टर के लिए चल देता।

मैंने एक ब्लॉग पोस्ट तैयार की और फिर उसे पोस्ट कर दिया। अब मैं एक और पोस्ट की तैयारी कर रहा था कि जयंत जी का कॉल आया। उन्होंने फोन करके मुझे बोला कि आते हुए मैं एक गुलदस्ता लेकर आऊँ। मेले में परशुराम शर्मा जी आ रहे थे तो इसलिए उन्हें देने के लिए गुलदस्ता जरूरी था। मैंने कहा मैं लेते हुए आऊँगा। हालांकि मुझे इस बात का कोई आईडिया नहीं था कि ये गुलदस्ता किधर मिलेगा।

सुबह सुबह मैंने अपने दोस्त मनन को कॉल करके जाने के विषय में कह दिया था। मैंने उसे बोला था मैं घर से जब निकलता रहूंगा तब उसे मिल जाऊँगा। ब्लॉग पोस्ट लिखने में मुझे वक्त का पता ही नहीं चला था और इस कारण जब मेरा फोन बजा तो देखा कि मनन का फोन था। उसने मुझसे पूछा कि मैं किधर हूँ तो मैंने उसे अपने हालात से वाकिफ करवाया। मैं बस निकलने वाला था। वहीं मैंने उससे बुके वाले के विषय में पूछा तो उसने कहा कि उसकी कॉलोनी के गेट के सामने एक गुलदस्ता वाला बैठता है। अब अंधा क्या चाहे दो आँखें और इस तर्ज पर मैंने उसे उधर जाकर एक गुलदस्ता लेने को कह दिया।

मैं तब तक तैयार होने लगा और कुछ ही देर में घर से बाहर हुडा  के लिए निकल चुका था। मनन भी रूम से निकल गया था लेकिन चूँकि उसका घर हुडा सिटी सेण्टर से मुझसे ज्यादा नजदीक है तो इस बात की ज्यादा सम्भावना थी कि वो जल्दी ही पहुँच जायेगा। फिर एक बार हमने गुलदस्ता निर्धारित करने के लिए कॉल किया। मैंने आजतक एक गुलदस्ता नहीं लिया है तो मुझे इनके विषय में कुछ पता नहीं था। छोटे में कभी स्कूल में गुलदस्ता ले जाने की नौबत आती थी तो घर की क्यारियों में इतने फूल होते थे कि बाहर से लेने की जरूरत ही नहीं पडती थी। विडियो कॉल में एक गुलदस्ता जो मुझे ठीक ठाक लगा वो मैंने लिवा लिया और मनन को शुक्रियादा अदा करके ऑटो में बैठ गया।

ऑटो से मैं अब बस स्टैंड की तरफ बढ़ गया। ठंड ठीक ठाक थी लेकिन पुस्तक मेले में मैंने एक बात यह नोटिस की थी कि अन्दर जाकर ठंड कम लगती थी। हो सकता था कि यह सब इसलिए भी होता हो क्योंकि एक बंद जगह में कई सारे लोग घूम रहे थे या फिर इसलिए भी क्योकि सभी इधर उधर चलते फिरते रहते थे। लेकिन उधर ठंड तो कम थी। इसलिए बड़ी जैकेट न ले जाकर एक पतला हुड ही मैं पहनकर गया था।

मनन गुलदस्ता लेकर मेरे से बीस बाईस मिनट हुडा पहुँच गया था। मैं ऑटो में जितनी जल्दी जा सकता था उतना पहुँचा। मैंने सुबह ब्लॉग के चक्कर में नास्ता नहीं किया था तो मुझे भूख लग गयी थी। पहले मेरा विचार था कि हुडा सिटी सेण्टर पर ही पहुँचकर कुछ खाने का था लेकिन फिरइस से देर हो जाती तो इसलिए मैंने प्रगति मैदान में  ही कुछ खाने का निर्णय लिया। ऑटो में बैठे हुए मैंने प्रेमचंद के मानसरोवर भाग एक की एक कहानी पढ़ी थी। मेट्रो में बैठकर मनन से गप्पे ही  मारी। जल्द ही राजीव चौक आया और उसके बाद प्रगति मैदान भी आ गया। हम प्रगति मैदान उतरे।

जयंत भाई ने मुझे विजिटर पास दे दिया था तो मुझे इस बार टिकेट नहीं लेनी पड़ी थी। हाँ, मनन ने अपने लिए टिकेट ली। मेट्रो स्टेशन में ही काफी भीड़ थी और मेरे हाथ में गुलदस्ता भी था तो मुझे ऐसे खड़े रहना काफी अटपटा लग रहा था। भूख से मेरा हाल बेहाल था तो मेट्रो से नीचे उतरकर हम लोग वहीं पास में एक जगह छोले भटूरे खाने चले गये। मनन नाश्ता करके आया था तो मैंने अकेले ही इधर छोले भठूरे खाए। नास्ता करके भूख शांत करी और हम लोग प्रगति मैदान की तरफ बढ़ गये। पहुँचते पहुँचते हमे दो बज ही गया था।


गेट में हर दिन की तरह भीड़ थी लेकिन जो लोग संचालन कर रहे थे तो सही ढंग से काम कर रहे थे तो सब कुछ ठीक था। अन्दर दाखिल होकर मैंने इक्का दुक्का आस पास की फोटो ली। फोटो लेते लेते ही हम लोग आगे बढ़ गये।

हॉल नम्बर बारह जहाँ, हमे सबसे पहले जाना था क्योंकि सूरज पॉकेट बुक्स/फ्लाई ड्रीम्स का स्टाल उधर ही था, के सामने राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (नेशनल बुक ट्रस्ट) का एक चलता फिरता पुस्तकालय था जो कि एक बस के अंदर बनाया गया था। मुझे यह रोचक लगा। बसों में अगर पुस्तकालय बना दिए जाए तो पुस्तकालयों का दायरा काफी बढ़ जाएगा। ऐसी बसों का संचालन हर गली मोहल्ले में होना चाहिए।


मेले में जाने को आतुर लोग 



हाल नम्बर बारह के आगे लगी बस वाला पुस्तकालय

हाल में स्वागत है
सबसे पहले मुझे सूरज/फ्लाईड्रीम्स के स्टाल पर जाना था जहाँ परशुराम जी पहुँच गये थे और जिन्हें  गुलदस्ता दिया जाना था। मैं स्टाल में पहुँचा। उधर परशुराम जी मेशु जी के साथ पहले से ही मौजूद थे। मेशु जी वेद प्रकाश कम्बोज जी के पुत्र हैं और बहुत मृदल स्वभाव के हैं। जयंत भाई द्वारा परशुराम जी को गुलदस्ता दिया गया। मैंने परशुराम जी से अपनी खून बरसेगा की प्रति पर हस्ताक्षर करवाए। फिर परशुराम जी से थोड़ी देर बात चीत हुई। मेशु जी भी बातचीत हुई। मनन चूँकि मेरा और देव बाबु दोनों का दोस्त है तो हमारी आपस से बातें हुई। इतने में उधर मनमोहन जी भी आ गये। वो अपने पोते के साथ आये हुए थे। उनके साथ भी हमारी बातें हुई। फिर सभी ने साथ में खड़े होकर परशुराम जी की किताबों के साथ फोटो खिंचवाई।

जयंत भाई, परशुराम जी और मेशु भाई()

मनमोहन जी अपने पोते के साथ, जयंत जी, परशुराम जी,मेशु भाई, मैं और देव बाबू(तस्वीर मनन ने ली है)

फोटो सेशन होने के बाद मैं और मनन ऐसे ही पुस्तक मेला का चक्कर काटने के लिए चले गये। देव बाबू चूँकि स्टाल का कार्यभार जयंत जी के साथ मिलकर सम्भाल रहे थे तो उन्हें अपने साथ ले जाना हमने उचित नहीं समझा।

हमने अपने तरफ से ही चक्कर लगाना शुरू किया। राजकमल प्रकाशन से होते हुए राजपाल प्रकाश, प्रभात प्रकाशन, किताब घर प्रकाशन की तरफ हम गये। किताब घर प्रकाशन में मुझे कुछ किताबें पसंद आई और उधर से मैंने कुछ किताबें खरीदी । राजकमल प्रकाशन में जलसाघर था जिधर गाहे बगाहे लेखक लोग आते रहते थे। इधर रवीश कुमार भी आये थे, तसलीमा नसरीन भी आई थीं, कुमार विश्वास भी आये थे, अशोक चक्रधर भी आये थे। ऐसे ही कई लेखक इधर मौजूद रहते थे तो इधर भीड़ भाड़ काफी ज्यादा रहती थी।


राजकमल प्रकाशन का जलसाघर 

राजकमल प्रकाशन


राजपाल प्रकाशन की कुछ किताबें 

प्रभात प्रकाशन की कुछ किताबें

किताबघर प्रकाशन की कुछ किताबें
किताबघर प्रकाशन से ली पुस्तकें

किताबघर प्रकाशन से ली पुस्तकें 


किताब घर से पुस्तकें लेकर फिर हम वापस अपने स्टाल में गये। उधर देखा तो परशुराम जी नदारद थे। मैंने जो किताबें ली थी वो उधर ही रख दी और फिर अब बाकि स्टाल्स को देखने के लिए घूमने लगे।

हम इस बार उलटी दिशा में बढ़ गये जहाँ राजा पॉकेट बुक्स के हाल थे। राजा पॉकेट बुक्स के दो हॉल थे एक बड़ा और एक छोटा। बड़ा वाला मैं पहले देख चुका था तो इस बार मैं छोटे वाले में गया। उधर मैंने उनके द्वारा प्रकाशित थ्रिल हॉरर सस्पेंस श्रृंखला के उपन्यासों के विषय में पूछा तो उन्होंने मुझे कहा कि वो बड़े वाले स्टाल में ही मिलेंगी।  फिर हम लोग आगे बढ़ गये। यहीं पर हम लोग जब आगे बढ़ रहे थे एक बार एच आर डी मिनिस्टर डॉक्टर रमेश पोखरियाल जी भी पुस्तक मेले को देखते हुए हमे दिखाई दिए। उनके आस पास काफी भीड़ थी।

इसके बाद राजा पॉकेट बुक्स के बड़े हॉल की तरफ हम गये लेकिन उधर भी कुछ पसंद नहीं आया।

हम वापस सूरज/फ्लाईड्रीम्स के स्टाल तक आये। उधर अंकुर मिश्रा जी जिन्होंने द जिंदगी पुस्तक लिखी है वो मिले। उनसे बात हुई। फेसबुक मित्र अरुण जी उधर थे तो उनसे बातें हुई। बातें करने के बाद जब हमने देखा कि देव बाबू उधर बिजी थे तो हम लोग बाहर निकल गये। मनन को भूख लग आई थी। मैंने तो कुछ ही देर पहले नास्ता किया था तो इस कारण मैंने खाली सोफ्टी खाने का मन बनाया। सोफ्टी केवल तीस रूपये की थी। हमने टोकन लिए। मनन अपने लिए रैप लेने गया और जब वापस आया तो उसका चेहरा खिला हुआ था। उसने बताया कि उसे एक्स्ट्रा टोकेन मिल गये थे। और अगर मैं चाहूँ तो कुछ खा सकता था।

पुस्तक मेले के अन्दर मैं अक्सर खाने से बचता हूँ क्योंकि इधर चीजें बहुत महँगी मिलती हैं। लेकिन अब एक्स्ट्रा टोकन हमारे पास थे तो मैंने सोचा कि कुछ खा ही लेता हूँ। इसके बाद मैंने मंचूरियन राइस लिया और बाहर आकर मैंने वो खाया। 100 रूपये में जितना मंचूरियन इन्होंने इधर दिया था उसे देखकर लग गया कि ये कितना लोगों को लूटते हैं। खाने के बाद हमने सोफ्टी ली और फिर वो निपटा कर दस नम्बर हॉल की तरफ  बढ़ गये । हाँ, पुस्तक मेले में हमारे जिन बाकी दोस्तों ने इधर आना था वो नहीं आये। मुझे पता था कि ऐसा होना है तो जब यह हुआ तो ज्यादा हैरानी नहीं हुई।

मेरा इरादा तो विश्व बुक्स में जाकर राज नारायण बोहरे जी का उपन्यास गढ़ी के खंडहर लेने की थी। गढ़ी के खंडहर पिछले बार देव बाबू ने ली थी जो मैंने पढ़ी थी और मुझे वो पसंद आई थी। लेकिन उधर जाकर मुझे लेने का मन नहीं हुआ तो मैंने वो उपन्यास नहीं लिया। हाँ,अंग्रेजी पुस्तके जो कि 100 की तीन मिल रही थी उनमें से मैंने कुछ उठा दी।

अपनी खरीद लेकर हम अब वापस सूरज पॉकेट बुक्स और फ्लाईड्रीम्स के स्टाल आये। देव बाबू के साथ गप्पे मारी गयी। थोड़ी बकैती हुई। उधर एक दो ग्राहक थे उनके साथ बातचीत हुई। एक व्यक्ति एस सी बेदी जी के उपन्यास लेने आये थे। उन्हें मैंने सूरज और फ्लाई ड्रीम्स के स्टाल के उपन्यास के विषय में तो बताया ही इसके अलावा हिन्द पॉकेट बुक्स में मौजूद एस सी बेदी जी के दो उपन्यासों खौफनाक किला और पत्थरों के रहस्य की मौजूदगी के विषय में भी बताया। उन्होंने कुछ उपन्यास इधर से लिए और कुछ लेने हिन्द की तरफ बढ़ गये। ऐसे ही कुछ और लोग आते रहे उनसे बातें होती रही। पाठक आये। साथी आये। सबसे हेल्लो हाई होती रही।
शायद कुछ के नाम मैं भूल भी गया होऊँगा लेकिन उनसे मिलकर अच्छा लगा था।

राजकमल की कुछ किताबें खिड़की से दिखती 

मनन भाई फोटो खिंचाते हुए 
परशुराम जी की गैर मौजूदगी में उनके गुलदस्ते से हो रही मस्ती
देव बाबू से मिलते मिलते ही पाँच बजने वाले थे। मुझे तो इधर रुकना था लेकिन मनन  को जाना था तो इसलिए उन्हें छोड़ने मैं बाहर चले गया।

बाहर जाकर एक अच्छी सी चाय मैंने पी। काफी देर से चाय नहीं पी थी तो मन करने लगा था। मनन से मैंने विदा ली और मैं वापस हॉल नम्बर 12A में दाखिल हो गया। पहले अपने स्टाल तक गया और कुछ देर उधर बैठा।
ग्राहकों से बातें हुई। कुछ ने किताबें ली और कुछ ने नहीं ली। एक आध लेखक भी आये। अभिराज, तनवी और मोहित भाई भी इधर मिले। मोहित भाई मोहित ट्रेंड सेटर के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनकी लिखी कहानियाँ मैंने डेलीहंट में पढ़ी थी तो इस बार मिलना सुखद रहा। मजे की बात यह कि उस वक्त मुझे पता नहीं था कि ये वही मोहित हैं। पता होता तो मैं लेखन के ऊपर भी बात करता।

स्टाल बंद होने वाले थे तो मैंने सोचा कुछ किताबें ही देख लूँ।स्टाल पर जयंत भाई और देव तो थे ही इसलिए मैं  वापस इधर उधर का चक्कर मारने निकल गया। पहले मैं अंग्रेजी के ही स्टाल में गया जहाँ से 100 रुपये की किताबों के ढेर से कुछ किताबें लेकर मैं आया।  फिर ऐसे ही अलग अलग स्टाल देखता  रहा। मैंने राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से भी कुछ पुस्तकें लेनी थी लेकिन वो मैंने अगले दिन के लिए छोड़ दी थी। इस बार केवल अंग्रेजी की पुस्तकें लेकर ही मैंने अपना काम चला दिया। जो पुस्तकें ली थी वो लेकर वापस स्टाल तक गया। पौने आठ हो ही चुके थे तो इस बार मैंने एक आखिरी चक्कर मारने की सोची। जाते हुए अमन प्रकाशन में मुझे कुछ खास दिख गया था तो उधर जाना बनता था।

मैं वापस लौटा और अमन प्रकाशन में पहुँच गया। उधर मुझे रामदरश मिश्र जी का एक उपन्यास दिख गया था। काफी दिनों पहले मैंने उनका उपन्यास बिना दरवाजे का मकान पढ़ा था तो जो कि मुझे काफी पसंद आया था। इसी कारण उनके नाम को देखकर मैं ठिठक गया और अंदर दाखिल हो गया। उनकी किताब उठाने के बाद मैं और किताबें देख रहा था कि सामने मुझे राकेश शंकर भारती जी दिखे। राकेश जी बाहर यूक्रेन में रहते हैं और उधर रहकर हिन्दी में लिख रहे हैं। वो दिल्ली पुस्तक मेले में आ रहे है ये तो मुझे पता था लेकिन उनका स्टाल नम्बर मैं भूल गया था। मैं उनसे मिला। उनसे उनके आगामी उपन्यास के विषय में बातचीत हुई। मैंने कुहक पंसद की पुस्तकें ले ली थी तो वो मैंने खरीदी और उसके बाद उधर से फोटो लेकर राकेश जी से विदा ली।

वहाँ से निकल कर मैं सीधा अपने स्टाल तक पहुँचा जहाँ फिर मैं तब तक बैठा रहा जब तक आठ बजे स्टाल बंद करने का वक्त नहीं हो गया। मैं अब और ज्यादा इधर उधर नहीं जाना चाहता था क्योंकि मुझे खतरा था कि अगर ऐसा मैंने किया तो कुछ और किताबें मैं कही न ले लूँ। वैसे भी अगले दिन मुझे आना था और अगले दिन भी किताबें लेनी बनती ही थी। आठ तो बज ही गये थे तो अब कुछ ही देर स्टाल पर बैठना था। सवा आठ होते ही गार्ड्स लोगों की सीटियाँ बजने लगी जो कि यह दर्शाता था कि स्टाल बंद करने का वक्त हो गया था।

साढ़े आठ पौने नौ बजे के करीब हमने सारा सामान सेट किया और फिर उधर से निकल गये।

आज का दिन समाप्त हो गया था। अब पुस्तक मेला का आखिरी दिन बचा था।

बाल पाठकों के लिए लगाया एक सजा धजा स्टाल

पुस्तक मेले की झलकियाँ

सौ पचास की किताबें

अलग अलग स्टाल्स

अमन प्रकाशन से ली गयी पुस्तकें 

राकेश शंकर भारती जी के साथ 

12 जनवरी 2020 
12 जनवरी पुस्तक मेले का आखिरी दिन था। इस दिन भी मैं जल्दी नहीं जाना चाहता था क्योंकि मुझे मालूम था कि आखिरी दिन होने के कारण किताब उठाकर वापस आदित्य भाई के पास ले जानी पड़ेंगी जिस कारण देर हो ही जायेगी। जल्दी जाता तो मैं और ज्यादा किताबें लेता जो कि मेरे लिए ही खतरा था। वैसे यह भी  सोचने वाली बात थी कि मैं जल्दी पहुँच ही कब रहा था। ज्यादातर दिन मैं दो बजे करीब ही पहुँचा था।

रविवार को भीड़ ज्यादा थी और आम दिनों के जैसे ही जयंत जी और देव बाबू जल्दी ही पहुँच गये थे। इस दिन अरविन्द भाई ने भी स्टाल में आना था। अरविन्द भाई अलबेला नाम के उपन्यास के लेखक हैं और इनका साक्षात्कार मैंने अपने ब्लॉग के लिए लिया था।

मैं दौड़ते भागते प्रगति मैदान पहुँचा तो जयंत भाई का कॉल आ गया। उनकी तबियत थोड़ी खराब थी तो उन्होंने मुझे बाहर से कुछ लाने के लिए बोल दिया था। मैंने मेट्रो स्टेशन के बगल में मौजूद एक दुकान से सैंडविच उठाये और अंदर दाखिल हुआ। इस बार नास्ता मैं घर से करके आया था। खाना जयंत भाई को दिया और फिर अरविन्द भाई को खोजा तो वो स्टाल में नहीं थे। देव बाबू से  पता चला वो जयंत भाई के लिए दवाई लाने गये हैं।

वो लौटे और फिर उनसे मुलाक़ात हुई। उनसे काफी बातें भी हुई। अरविन्द भाई बहुत अन्तर्मुखी स्वभाव के व्यक्ति हैं। चूँकि मैं भी अन्तर्मुखी प्रकृति का हूँ तो समझ सकता हूँ। उनसे मेरी ठीक पट रही थी। उन्होंने भी अपने लिए कुछ किताबें ली और वो कहते हैं न घर की मुर्गी दाल बराबर तो चूँकि वो स्टाल में ही मौजूद रहे तो उनके साथ फोटो खिंचवाने का मौक़ा ही नहीं लगा।

(अरविंद भाई से ये फोटो ली है।)

देव बाबू, एक पाठक और अरविंद भाई

12 तारीक मैंने ज्यादातर स्टाल पर ही बताई। इस स्टाल पर मैंने जो उपन्यास पढ़ रहा था उसके कुछ पृष्ठ भी पढ़े।

अगर किताबों की बात करें तो पुस्तक मेले के आखिरी दिन भी मैंने काफी पुस्तकें  ली। हिन्द पॉकेट बुक्स का मैंने चक्कर मारा और उधर मौजूद कुछ किताबें मैंने ली। इसके बाद मैं राष्ट्रीय पुस्तक न्यास का चक्कर लगाया जहाँ से मैंने काफी पुस्तकें उठाई। इसके आलवा अंग्रेजी की भी काफी सारी पुस्तकें भी मैंने उठाई।

मुझे कुछ किताबें सूरज और फ्लाईड्रीम्स की भी लेनी थी तो उन तीनों को भी इसी आखिरी दिन मैंने लिया।

आखिर दिन मैं और देव बाबू बाहर गये और हमने काफी कुछ खाया पिया भी। गोल गप्पे, टिक्की इत्यादि से पेट पूजा की। काफी मस्ती भी करी। बेचारे जयंत भाई अकेले बिमारी में स्टाल सम्भाल रहे थे।

वही बीच में एक रोचक वाक्या हुआ।राजा पॉकेट बुक्स वालों ने एक डोगा बना व्यक्ति स्टाल के चक्कर काटने के लिए रखा था। देव बाबू और अरविन्द भाई अपनी अपनी किताबें लेकर उसके पास गये और उसके साथ फोटो खिंचवाई। मुझे भी फोटो खिंचवानी थी लेकिन झिझक के कारण मैं फोटो खिंचवाने नहीं गया। फोटो खिंचवाकर लौटकर आये देव बाबू और अरविन्द भाई बड़े खुश लग रहे थे। अरविन्द भाई कुछ देर तक हमारे साथ रहे। उन्हें कहीं जाना था तो शाम को उन्होंने हमसे विदा ली। उनसे मिलकर अच्छा लगा।

देव बाबू की खौफ के साथ मैं
हिन्दी पॉकेट बुक्स से ली कुछ पुस्तकें
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास(नेशनल बुक ट्रस्ट से ली कुछ पुस्तकें)
नेशनल बुक ट्रस्ट से ली गयी कुछ पुस्कतें
अंग्रेजी की कुछ पुस्तकें(कौन सी ग्यारह को ली और कौन सी बारह को मुझे नहीं मालूम)

अंग्रेजी की कुछ पुस्तकें
सूरज पॉकेट बुक्स से भी कुछ किताबें आखिर में उठाई

दिन खत्म होते होते काफी अच्छी खबरे भी सुनने को मिली थी। स्टाल की सभी किताबें ले ली गयी थी। कुछ ही किताबें हमे वापस आदित्य भाई के घर ले जानी पड़ी। ग्यारह बजे करीब हम उधर बैठे और खाना पीना खाया। डॉली भाभी जी के हाथ का स्वादिष्ट खाना खाकर पूरे दिन की थकान उतर गये। साढ़े ग्यारह बजे करीब हम अपने रूम की तरफ बढ़ गये।

आदित्य भाई के साथ जयंत भाई

यह पुस्तक मेला मेरे लिए काफी मामलो में अलग था। इस बार उधर जाना ज्यादा हुआ तो किताबें भी मैंने कुछ ज्यादा ही खरीद ली थी। इसके अलावा स्टाल के संचालन का एक तरह का अनुभव भी मुझे हुआ। हाँ कुछ दुःख रहा तो ये कि मैं सेशन ज्यादा अटेंड नहीं कर पाया। पिछले साल कुछ तो किये थे। फिर भारतीय ज्ञानपीठ और साहित्य अकादमी के स्टाल में भी मैं नहीं जा पाया। उधर भी काफी अच्छी पुस्तकें वाजिब दाम में मिल जाती हैं।


खैर, आदमी को सब कुछ जिंदगी में कहाँ मिला है। सब कुछ पाने की चाहत करने वाला इनसान तो जो उसके पास है उसका आनंद भी नहीं ले पाता है। अगली बार मैं कुछ सेशनस में शामिल होने की कोशिश करूँगा। तब तक के लिए ये किताबें तो हैं ही मेरे साथ। अब बस इन्हें पढ़ना रह गया है।ये कब होगा? अब यार ऐसे प्रश्न पूछकर शर्मिंदा न किया करो। इन दो दिनों में खरीदी पुस्तकों की सूची देखो बस।


किताबघर प्रकाशन:

  1. बेतवा बहती रही - मैत्रयी पुष्पा
  2. शटल -नरेंद्र कोहली 
  3. कहानी का आभाव - नरेंद्र कोहली 
  4. संचित भूख - नरेंद्र कोहली 
  5. दृष्टिदेश में एकाएक - नरेंद्र कोहली 
  6. मेरा जामक वापस दो - विद्यासागर नौटियाल 
  7. यात्राएं - हिमांशु जोशी 
  8. वो तेरा घर ये मेरा घर - हिमांशु जोशी 
  9. 10 प्रतिनिधि कहानियाँ - शैलेश मटियानी 
  10. दोहरा अभिशाप - कौसल्या बैसंत्री
हिन्द पॉकेट बुक्स 
  1. लाजो - शांताकुमार
  2. चूहा पकड़ा गया - राजेश जैन (बाल साहित्य)
  3. ताम्बे का राक्षस - यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र (बाल साहित्य)
  4. अंधी दुनिया -  प्रताप नारायण टंडन 
  5. यादों के चिनार - कृष्ण चंदर 
  6. दिल्ली की गलियाँ - अमृता प्रीतम 
  7. एक सवाल - अमृता प्रीतम 
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (नेशनल बुक ट्रस्ट)
  1. अभिमान की हार - योगेन्द्र शर्मा 'अरुण'(बाल साहित्य)
  2. प्रकाश मनु की चुनिन्दा बाल कहानियाँ(बाल साहित्य)
  3. ईदगाह - प्रेमचन्द (बाल साहित्य)
  4. मेजर शैतान सिंह(बाल साहित्य)
  5. आधुनिक एशियाई कहानियाँ (बाल साहित्य)
  6. गाथा मफस्सिल - देवेश राय (बांग्ला से हिन्दी में अनूदित)
  7. माहिम की खाड़ी - मधु मंगेश कर्णिक (मराठी  से हिन्दी में अनूदित)
  8. गंगा चील के पंख - लक्ष्मीनन्दन बोरा(असमिया से हिन्दी में अनूदित)
  9. नामघरैया - अतुलानंद गोस्वामी(असमिया से हिन्दी में अनूदित )
  10. स्वर्ण क्षेत्र में स्वागत है - महेंद्र (तेलुगु से हिन्दी में अनूदित)
सूरज पॉकेट बुक्स
  1. हमलावर - अमित खान 
  2. इश्क बकलोल - देवेन्द्र पाण्डेय
फ्लाई ड्रीम्स
  1. सुलतान सुलेमान और सात चेहरों का रहस्य - मंजरी शुक्ला
अंग्रेजी की पुस्तकें(तस्वीर में तेरह दिख रही हैं लेकिन Tami Hoag की Kill the messanger पुरानी  है जो कि इसमें मिक्स हो गयी है। मैंने इन दो दिनों में अंग्रेजी की बारह किताबें ही ली थी)
  1. Any old Iron - Anthony Burgess
  2. The Hobbit - JRR Tolkien
  3. The Cybord and the Sorcerers - Lawrence Watt Evans
  4. The Killing Doll - Ruth Rendell
  5. Tooth and Claw - Nigel McCrery
  6. Hide and Seek - Ian Rankin
  7. The Red breast - Joe Nesbo
  8. Night Room - Peter Straub
  9. Skin Privlege - Karin Slaughter
  10. Wild Justice+ Hungry as the sea - Wilbur Smith(Omnibus)
  11. The second Inspector Morse Omnibus - Collin Dexter
  12. Empyrion - Stephen Lawhead
तो ये थी वो किताबें जो इस पुस्तक मेले में मेरे घर आई। अब इन्हें धीरे धीरे (पिछले वाले पुस्तक मेले की भी तो पढ़नी है) पढ़ा जायेगा।

आपने इनमें से कौन सी पढ़ी हैं? अपनी राय जरूर दीजियेगा।

अब चलता हूँ। फिर मिलेंगे और फिर आपको ले चलूँगा किसी और घुमक्कड़ी पर। तब तक के लिए मुझे इजाजत दिजिये।

#पढ़ते_रहिये_घूमते_रहिये
#फक्कड़_घुमक्कड़

पुस्तक मेलों के अन्य वृत्तांत आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:

घुमक्कड़ी के मेरे दूसरे वृत्तांत आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:

©विकास नैनवाल 'अंजान'

4 टिप्पणियाँ

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  1. शानदार ब्लॉग! आपने इस ब्लॉग के माध्यम से कई पुस्तकों और उनके लेखकों के बारे में जानकारी दिया है।
    विश्व पुस्तक मेले के अंतिम दिन, आने वाले लेखक और हाल 12A और अन्य स्टाल की एकदम जीवंत चर्चा ने मुझे पुनः पुस्तक मेले की याद दिला दी।
    मैं लगभग 5 दिन पुस्तक मेले में था।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी आभार माधव जी। ब्लॉग पर आप आये अच्छे लगा। आते रहियेगा।

      हटाएं
  2. कमाल का वर्णन किया आपने। ऐसा लगा की आँखों के सामने घट रहा हो।

    जवाब देंहटाएं

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