कौसानी ट्रिप #2: दिल्ली से हल्द्वानी, हल्द्वानी से रानीखेल

यह यात्रा 5 दिसम्बर 2019 की शाम से 8 दिसम्बर 2019 तक की गयी 

कौसानी ट्रिप 5 दिसम्बर से 9 दिसम्बर 2019

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कौसानी ट्रिप 1 

5 दिसम्बर 2019 (गुरुवार) से -6 दिसम्बर 2019 (शुक्रवार)

ये श्री गजरौला है, यहाँ सब ख़ास है
बस चलने लगी थी और मुझे पता ही नहीं चला कि मैं कब नींद के आगोश में डूब गया। चूँकि बस बस अड्डे से भरकर चली थी तो बस का बीच में रुकने का कोई औचित्य नहीं था। फिर भी इक्का दुक्का जगह अगर वह रुकी हो तो नींद में मुझे याद नहीं है। मेरी नींद जो खुली वो सीधा गजरौला आकर खुली थी। बस इधर बाकी बसों की तरह लग गयी थी और हम लोग नींद का आवरण त्यागकर बाहर निकल पड़े थे। डिनर हमने किया नहीं था तो कुछ न कुछ खाने का मेरा मन था। राकेश भाई भी इधर ही उतरे।

मुझे पहले बाथरूम जाना था तो मैं उतरकर बाथरूम चले गया। बाथरूम जाकर आया तो देखा राकेश भाई गायब थे। मुझे भूख लग आई थी तो मैंने पहले एक ब्रेड ओम्लेट खाया और उसके पश्चात एक गरमा गर्म चाय पी। चाय अदरक की थी तो पीकर मन प्रसन्न हो गया। तभी मुझे एक कोने में राकेश भाई दिखे जो कि एक दुकान के पास खड़े होकर कुछ खा रहे थे। मैं उनके पास गया और उन्हें इधर मिल रही मस्त चाय के विषय में बताया। वो अपना खाना तो निपटा ही चुके थे।

हम लौटकर आये और उस दुकान पर राकेश  भाई ने फिर एक चाय ली। चाय सुड़कते हुए हमारे पास वहीं पर काम करने वाले दो लड़के खड़े थे।
"इस जगह की क्या नाम है?" मैंने पूछा।
"ये जगह बहुत ख़ास है। इसके नाम के आगे ही श्री लगता है। श्री गजरोला।" उन लड़कों में से एक व्यक्ति बोला।
"ऐसा क्या ख़ास है इधर?" मैंने पूछा।
"जिसके नाम के आगे ही श्री लगे उसमे सब ख़ास ही खास होगा" कहकर वो  हँसने लगे।

हमे लग गया था कि वो हमारे मजे ले रहे हैं। हमने हँसी में उनका साथ दिया। चाय भी खत्म हो गयी थी। राकेश भाई ने बाथरूम के विषय में पूछा तो मैंने उन्हें रास्ता बता दिया। राकेश भाई ने चाय के पैसे चुकाए और  लघुशंका का निवारण करने के लिए चले गये। जब तक वो आते तब तक मैं इधर उधर की फोटो  निकालने लगा। कुछ सालों पहले ही मैं इधर आया था। जगह और होटल यह थे या नहीं इतना याद मुझे नहीं था। तब मेरे साथ चौधरी और उसका दोस्त थे और हम रामपुर से नैनीताल जाने वाले थे। उस दिन एक यात्री और होटल वाले की बहस हुई थी। चक्कर शायद ये था कि उसने कुछ चीज एक्स्ट्रा ली थी और होटल वाले ने काफी ज्यादा पैसे लगा लिए थे या उसे रेट कुछ और बताया गया था लेकिन जब वो खाकर उठा तो उसे कुछ और पैसे देने को कहा गया था। अक्सर ऐसी घटनाएं इन होटल्स में होती है तो मैं तो काफी सालो से खाना तो इधर खाता ही नही हूँ। ब्रेड ओम्लेट ही मेरा इधर का स्टेपल डाइट रहती है। उसमें ज्यादा चिक चिक नहीं होती है। खैर, इधर खड़े खड़े फोटो खींचते हुए यह स्मृति मन में ताजा हो गयी थी।

फोटो खींचना खत्म किया तो राकेश भाई भी लौट आये थे। फिर जब तक बस नहीं चली हम बाहर ही रहे और जैसे ही ड्राईवर बस की तरफ बढ़ा तो हम भी बस में चढ़ गये।

बस में बैठते ही मैं फिर नींद के आगोश में चला गया। ऐसा लग रहा था जैसे गाड़ी मुझे लोरी सुना  रही हो।

बीच में मेरी एक आध बार नींद टूटी थी लेकिन उस वक्त क्या हुआ यह मुझे बिल्कुल भी याद नहीं है। एक बार शायद एक व्यक्ति एक मन्दिर के आस पास उतरा था। कौन सा मन्दिर था ये याद नहीं है? बस धुंधली सी याद है कि उधर उस वक्त लोग खड़े हो रखे थे। कुछ सेकंड्स के लिए मेरी आँखें खुली थी और फिर नींद की बाहों में मैं समा गया था। अब बस हल्द्वानी आने का इन्तजार था क्योंकि उधर से ही हमने बस बदलनी थी।

हमारी बस विश्राम करती हुई 

इधर ही खाया पिया गया था 

मेला वालों की स्पेशल चाय का आनन्द लेते राकेश भाई 


हल्द्वानी आ गया

आखिरकार नींद जब खुली तो हल्द्वानी आ गया था। हल्द्वानी मैं कभी नही आया हूँ। यह बड़ा शहर  है। इसका नाम पहली बार मैंने इंजीनियरिंग के वक्त सुना था जब जिस लड़के से मैंने शुरुआत में बात करी थी वो इधर ही का निकला था। इसके बाद हल्द्वानी आना तब ही हुआ था जब एक बार नैनीताल घूमने आये थे और फिर रात को दिल्ली की बस पकड़नी थी। उस ट्रिप के बाद आज फिर हल्द्वानी में था और आते ही इधर से निकल जाना था।

जितना मैंने देखा उससे यह एक शहरी कस्बा ही लग रहा था। दुकाने थी। ब्रांड्स के होअर्डिंग भी इक्का दुक्का जगह दिखी जिसे मैंने अपनी नींद से भारी हुए पपोटे के बीच से किसी तरह देखा। हल्द्वानी में हमे एक जगह उतारा गया। शायद बस स्टैंड था। शायद इसलिए क्योंकि सब कुछ धुंधला है। बस ये याद है कि बस से हम जैसे ही उतरे थे तो हमे रानीखेत जाने वाली एक बस मिल गयी थी। कौसानी रानी खेत के आगे पड़ता था तो हमे इस बस में सफर करना सही लगा।

बस के संचालक हमे हल्द्वानी की बस से उतरते ही मिल गये थे और उन्होंने हमे अपनी बस में स्थानांतरित कर दिया था। सबसे आखिरी से एक आगे वाली सीट हमे मिली थी। यह पहाड़ी बस थी जो कि आकार में छोटी थी। इसलिए काफी क्यूट भी लग रही थी।

हम अपनी सीट पर विराजमान हो गये और बस के बढ़ने का इंतजार करने लगे। अभी अंधेरा ही था और हमे नींद भी आ रही थी तो हम ऐसे ही बैठे रहे। धीरे धीरे बस चलने लगी। टिकेट कटा और थोड़ी देर के लिए फिर मैं सो गया। वैसे भी अँधेरे में मैं क्या देखता। जब नींद खुली तो बस शहर पार करके पहाड़ी रास्तों और जंगलों के बीच से गुजरने लगी थी। हरियाली देखकर मेरा मन खुश हो रहा था। हम अपनी मंजिल की तरफ बढ़ रहे थे और मैं बाहर बिखरी प्राकृतिक छटा का आनन्द ले रहा था।

जब नैनीताल के भवाली डिप्पो में पहुँचकर बस रुकी तो मुझे लगा अब चाय पी पाऊँगा। मेरा चाय पीने का मन करने लगा था। लेकिन अफ़सोस ऐसा नहीं हुआ। बस थोड़ी देर के लिए रुकी। मैं उतरा भी और लघु-शंका से निवृत्त भी हुआ लेकिन फिर जब बस दोबारा चलनी शुरू हुई तो मैं और बाकि यात्री भी वापस बस में चढ़ गये। शायद आगे जाकर कहीं पर रुकना होता।

जंगलों से गुजरते हुए 

सड़क के किनारे मौजूद होटल और घर 

भवाली डिप्पो नैनीताल 

बस घुमावदार रास्तों से बढ़ती चली जा रही थी। भले ही हम कुमाऊँ में थे लेकिन हर पहाड़ मुझे अपना घर और हर पहाड़ी मुझे अपना भाई लगता है। पहाड़ जाता हूँ तो लगता है घर वापस जा रहा हूँ। यही कारण है कि मुझे बस में बाहर के नजारे देखने और उन्हें फोन पर कैद करने में आनन्द आ रहा था। मैं इन दृश्यों को मन में अंकित कर लेना चाहता था। इस प्राकृतिक छटा को पी लेना चाहता था।

चारो तरफ हरे भरे पहाड़ थे। हम एक पहाड़ की गोद में सफर कर रहे थे और सामने के पहाड़ को निहार रहे थे। कई पहाड़ों पर खेत बने हुए थे और कई जगह इन खेतों के आस पास घर बने हुए थे। मैं इन घरों और खेतों को देखकर अपनी बचपन की याद में खो गया था। ऐसे ही दृश्य तो मेरे घर से भी दिखते हैं। घर के नीचे ही ऐसे खेत हैं और हम लोग बचपन में ऐसे ही खेतों में क्रिकेट खेला करते थे। इन घरों  में मौजूद बच्चे भी जरूर इन खेतों में क्रिकेट खेलते ही होंगे।

हमारी बस चलती जा रही थी मैं यादों के भंवर में खोता जाता और उनसे बाहर निकलता जाता। बीच बीच रास्ते में आते दृश्य बरबस ही मेरे मन में बचपन या घर से जुड़े कुछ ख्याल उत्पन्न कर देते और मैं उन्हीं के विषय में सोचने लगता।

पहाड़ और जंगल हमे अलग अलग कोणों से दिख रहे थे। हम इन पहाड़ों से नीचे को उतर रहे थे। ऐसे ही सड़क से नीचे को मुझे एक मन्दिर समूह मुझे दिखा। न जाने यह कौन सा मन्दिर था लेकिन देख कर लग रहा था कि कोई  धाम था क्योंकि इसके आस पास कुछ इमारतें थी जो शायद आश्रम की ही थी। चलती बस से न पूछने का अवसर था न जाँचने का वक्त था। बस एक काम किया जा सकता था कि फोटो ली जाए तो मैंने फोटो ले ली। वैसे जहाँ तक मेरा अंदाजा है और तस्वीर की जिओ लोकेशन के हिसाब से यह कैंची धाम ही था। अगर आपको मंदिर के विषय में पता है तो आप जरूर बताएं। भवाली से बीस इक्कीस मिनट की दूरी पर यह था।

अब हम आगे बढ़ रहे थे। सड़क के किनारे बहती नदी भी अब नजारों में शामिल हो चुकी थी और खूबसूरती को चार चाँद लगा रही थी। ऐसे ही हम चलते रहे और तकरीबन साढ़े आठ बजे, जो कि हल्द्वानी से सफर शुरू करने के दो घंटे बाद था, हम लोग एक रेस्टोरेंट के सामने रुके।


जंगल और पहाड़ हरियाली मुस्कान के साथ हमारा स्वागत करते हुए 

यात्रियों का विश्राम ग्रह 
पहाड़ 



सीध नुमा खेत और घर पौड़ी की याद  दिलाते हुए 

तलहटी में बसावट  और उसके अस पास के खेत
रास्ते में पड़ा एक  धाम 




यह रेस्टोरेंट नमन भोजनालय था। यहाँ रूककर मैंने आस पास की फोटो ली।  थोड़ा भूख भी अब लग आई थी। फोटो लेकर मैं रेस्टोरेंट में दाखिल हुआ। राकेश भाई पहले से ही उधर विराजमान थे और नाश्ता कर रहे थे। यहाँ एक अजीब सी बात हुई। पता चला कि उधर नाश्ते में छोला पकौड़ी भी मिल रही थी। नाश्ते में छोला पकौड़ी मैंने पहली बार सुना था लेकिन लोग चाव से उसका आनन्द ले रहे थे। मैंने खुद एक समोसा छोला ही खाया जो चाय के साथ बहुत स्वादिष्ट हो रहा था। हमने नास्ता कर लिया था और कुछ ही देर में बस रानीखेत की तरफ बढ़ गयी। पेट पूजा हो गयी थी और अब मेरा पूरा ध्यान आस पास के नजारों पर ही था।


भोजनालय का बोर्ड

सड़क के किनारे बहती नदी 

हो गयी पेट पूजा अब पी जाएगी चाय 

पहाड़ी चोटियाँ लहरों का सा अहसास कराती हैं

घुमावदार सड़के, बढ़ रहे हैं रानी खेत की तरफ

पहुँचने वाले हैं रानीखेत 

चलो जी रानी खेत, ढूँढो जी कलेंडर

जहाँ हल्द्वानी की सी लेवल से ऊंचाई 424 मीटर ही है वहीं रानीखेत की ऊँचाई 1869 मीटर है। हल्द्वानी से रानी खेत की दूरी 83 किलोमीटर के करीब है। हमने यह सफ़र साढ़े छः बजे करीब शुरू किया था और पौने दस बजे तक हम रानी खेत पहुँच गये थे। हमे तकरीबन पौने चार घंटे इस सफर में लगे थे।

आखिरकार हम रानीखेत थे। धूपी खिली हुई थी लेकिन हवा में एक ठंडक थी। बस ने हमे जिस जगह उतारा था उधर बसें और काफी मात्रा में ट्रैकर खड़े हुए थे। यह शायद प्राइवेट बसों और ट्रैकरों के लिए बनाया गया अड्डा था। हम उतरे  आस पास देखा तो सड़क के किनारे हमे जाली लगी नजर आई और हम बरबस ही उसकी तरफ खिंचे चले गये।


रोड के किनारे जाली लगी हुई थी और सामने हिमालय की चोटियाँ दिखाई दे रही थी। दस पंद्रह मिनट तक तो हम इन्हीं चोटियों की फोटो उतारते रहे। मौसम सुहावना था और हमे आगे बढने की कोई जल्दी नहीं थी। रानीखेत से कौसानी की दूरी साठ किलोमीटर के लगभग थी तो हमे अब कोई जल्दी नहीं थी। दस बज रहे थे। गाड़ी मिलती तो एक या दो बजे तक हम अपनी मंजिल तक पहुँच ही जाते।

अब सबसे पहले हमारा चाय पीने का मन था। चाय पिए हुए एक घंटा तो हो ही गया था। उसके बाद आगे का निर्णय हमे लेना था।

एक होटल के बाहर एक चाय वाले भाई साहब मौजूद थे जहाँ से हमने चाय ली और फिर चाय की चुस्कियों के साथ कौसानी जाने वाली गाड़ी का पता किया। हमे बताया गया कि गाड़ी पौने ग्यारह या ग्यारह बजे करीब आएगी। यह बागेश्वर की गाड़ी होगी जो हमे कौसानी छोड़ देगी। हम यह जानकर खुश हो गये।  हमारे पास लगभग एक घंटे था तो हम इधर आराम से घूम सकते थे।

हमने चाय खत्म की और पैसे अदा किये थे कि राकेश भाई बोले- 'अरे यार!! एक गड़बड़ हो गयी'
'क्या हुआ?'- मैंने कहा।
'कंडक्टर से पैसे लेना ही भूल गया मैं तो' - राकेश भाई जैसे खुद को कोसते से बोले।
'जल्दी याद आ गया!!' -मैं अपनी हँसी रोकते हुए उन्हें उलाहना देते हुए बोला।

मेरा मन तो पेट पकड़कर हँसने का कर रहा था। दोस्त जब गलती करता है तो आनन्द आ जाता है। इससे उसकी टाँग खीचने का मौक़ा जो मिल जाता है।

राकेश भाई ने जैसलमेर में मेरा पॉवरबैंक होटल के कमरे में खो जाने पर मुझे बड़े ताने दिए थे और मेरे बड़े मजे लिए थे। उसके बाद से वो मुझे मजे लेने के लिए काफी मटेरियल देते आ आये हैं।  अब हमे कंडक्टर को ढूंढना था। बचपन में मैं कंडक्टर को कलेंडर कहा करता था। गढ़वाली में एक गाना भी है जिसमें कंडक्टर को कलेंडर कहा गया है जिसके चलते भी मैंने यह सीखा था। अब यह कलेंडर हमे मिलता या  नहीं ये हमे देखना था।

'चलो खोजा जाए'- मैंने बात को बदलते हुए कहा और हम लोग उधर की तरफ बढ़े जहाँ कंडक्टर ने हमे उतारा था।

कुछ ही देर में हम उधर थे लेकिन बस खाली थी लेकिन उधर कंडक्टर मौजूद नहीं था। उस वक्त मैंने तो सोच लिया था कि पैसे गये हाथ से लेकिन राकेश भाई ने एक दो से पता किया तो आखिरकार कंडक्टर मिला। वो उससे बात करने गये तो मैं पीछे ही रह गया क्योंकि मुझे पता था कि बीच में मेरी हँसी छूट जानी है।

कुछ देर में राकेश भाई मुस्कराते हुए लौटे तो मुझे पता लग गया कि राकेश भाई ने पापड़ वाले को मार दिया है और पैसे हासिल कर दिए हैं।

'अब तो पार्टी देनी पड़ेगी' - मैं मुस्कराया और हम लोग मार्किट की तरफ बढ़ गये।

मार्किट में पहुँचकर हम लोग पहले एक होटल में घुसे जहाँ जाकर राकेश भाई ने एक बाल मिठाई का पैकेट लिया। यहाँ होटल वाले भाई अपने ग्राहक से बात कर रहे थे तो मैं उनकी बात ध्यान से सुन रहा था। उनकी भाषा मुझे हल्की हल्की गढ़वाली जैसी लग रही थी। हल्की हल्की क्योंकि मैं कुछ समझ रहा था कुछ नहीं।

राकेश  मिठाई के पैसे चुकाए और हम लोग बाहर निकले। मैंने एक कप चाय पीने का फैसला किया क्योंकि पैसे जो वापस मिले थे। हम फिर उसी दुकान पर खड़े थे जहाँ पर पैसे की याद आई और मेरे हाथ में फिर एक चाय का कप था और मैं उसे चुसक रहा था। अब आगे की योजना बनानी थी क्योंकि बस आने में काफी वक्त था।

मैंने चाय पी,पैसे चुकाए और फिर हम आगे की तरफ बढ़ गये।


हम जहाँ पर खड़े थे वह एक चौड़ा सा इलाका था जिसमें कोनो में बसे और ट्रैकर खड़े थे लेकिन सड़क सड़क के दोनों और दुकाने थीं। जहाँ दुकाने नहीं थी वहाँ मूंगफली वाले मूंगफली बेच रहे थे। एक सड़क नीचे को जाती है और एक ऊपर को जाती है।  और नीचे और ऊपर वाली सड़क मिलकर आगे सीधी जाती है। अक्सर पहाड़ी क्षेत्रों में यही होता है। एक सडक ही ऊपर ही नीचे की तरफ कट जाती है। यही कारण है जब मैं लद्दाख के मार्केट में घूम रहा था तो मुझे लग रहा था जैसे पौड़ी में हूँ। इधर खड़ा हो रखा था तो लग रहा था जैसे पौड़ी के एजेंसी में खड़ा हूँ । उधर भी सड़क ऐसे ही कटती है। ऊपर की तरफ आस पास जाने वाले ट्रैकर रहते हैं और नीचे को लोअर बाज़ार के लिए रोड कटती है। पहाड़ ऐसे ही घर जैसा थोड़े न लगता है।


जाली के पार  हिमालय 

घुमक्कड़ राकेश
फक्कड़ घुमक्कड़ 

ट्रैकर और बस अड्डा जहाँ उतारा गया था 

चाय पीते हुए सामने की फोटो

सड़क से दिखता हिमालय 

मल्ली सड़क, तल्ली सड़क और बीच में कूड़ा 
 सरकारी स्टैंड, आखिरी बस और एक हताशा
हम ऐसे ही घूमते हुए एक मूंगफली बेचने वाले भाई के पास रुके। उधर से हिमालय ठीक दिख रहा था तो हमने एक दो तस्वीर ली और फिर उनसे भी कौसानी जाने वाली गाड़ी के विषय में पूछा।

"गाड़ी तो चली गयी.." वो बोले
"क्या?" हमने हैरत से पूछा।
"जी थोड़े देर पहले ही निकली है" वो बोले
"हमने तो देखी नहीं" हमने उनसे ऐसे कहा जैसे हम उधर के राजा हों और अगर हम गाड़ी न देखेंगे तो गाड़ी वाले गाड़ी ही न ले जायेंगे।
"कुछ और मिल सकता है?" हमने उनसे पूछा।
वह कुछ देर कुछ सोचते रहे और फिर बोले - "आप आगे सीधा चले जाओ।  पाँच दस मिनट में आपको एक बस अड्डा मिल जायेगा। वह सरकारी बस अड्डा है। उधर से बागेश्वर जाने की गाड़ी मिल सकती है।"

उनका कहना था कि हमने उन्हें धन्यवाद किया और तेजी से सरकारी बस अड्डे की तरफ बढ़ चले। बीच में हम रानीखेत के मुख्य मार्केट से गुजर रहे थे जो कि मैं लोअर बाज़ार की याद दिला रहा था। एक संकरी सी सड़क थी जिसके दोनों और दुकाने बनी हुई थी।

हमे सरकारी बस अड्डे तक जाने की जल्दी थी इसलिए मैं इसकी फोटो भी नहीं खीच रहा था। मैं यह सोचकर खुद को दिलासा दे रहा था कि  आगे जब रानीखेत घूमने आएंगे तब मन भरकर फोटो लूँगा।

हम जितना जल्दी हो सकते थे उतना जल्दी तेज कदमो से चलते कम भागते ज्यादा बस अड्डे पहुंचे तो उधर कंडक्टर दिल्ली जाने की आवाज़ लगा रहे थे। सड़क के बगल में कुछ सीढ़ियाँ  थी जिन पर चढ़कर इन्क्वायरी काउंटर तक पहुंचा जा सकता था। राकेश भाई चढ़े और पूछने लगे। वो वापस लौटे तो उनका चेहरा मुरझाया हुआ था।

जिस बात का डर था वो हो चुका था। आखिरी बस जा चुकी थी और हम लोग रानीखेत में शायद फँस गये थे।
"अब क्या करें?"- मैंने कहा।
राकेश भाई ने कंधे उचकाये- "क्या किया जा सकता है।"
"आस पास मौजूद ट्रैकर से पूछें" मैंने कहा।
"पूछो" उन्होंने कहा लेकिन नाउम्मीदी उनके चेहरे से झलक रही थी।
हम उधर खड़े एक दूसरे के चेहरे को देखते जा रहे थे। शायद यह उम्मीद कर रहे थे कि कोई तो पूछने की पहल करे।

                                                                               क्रमशः 

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कौसानी ट्रिप 8

© विकास नैनवाल 'अंजान'

2 टिप्पणियाँ

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  1. बेहद अच्छी यात्रा...फोटोज के साथ प्रकृति की सुरम्यता दर्शन भी हुए ।

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    1. जी आभार मैम। कहा जाता है कि सफर मंजिल से खूबसूरत होता है लेकिन इस मामले में दोनों ही चीजें खूबसूरत थीं। सफर भी और मंजिल भी।

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