"मोटे भाई, ज़िन्दगी से इस तरह निराश नहीं होते," भैंगा बोला, 'चोरी, चुगली और चापलूसी का दामन पकड़ लो,ज़िन्दगी आसान हो जाएगी। मगर तुम चोरी के अलावा कुछ नहीं कर सकते।'
'मैं चोरी भी नहीं कर सकता।' मोटा बोला।
'और चोरी करोगे भी तो आलपिनों, पैन्सिलों और रबड़ों की', भैंगा बोला,'छोटे को देखते हो, कितना सफल कामचोर है और कितना सुखी उप!'
-रविन्द्र कालिया, काला रजिस्टर
अभी रविन्द्र कालिया जी की यह किताब काला रजिस्टर पढ़ रहा हूँ। यह किताब पिछले वर्ष दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में खरीदी थी।इस किताब की कीमत 50 रूपये है और इसमें कालिया जी की 8 कहानियाँ हैं संग्रहित हैं। 2017 का संस्करण है। प्रकाशन का नाम साहित्य भंडार है। मेरे हिसाब से इससे किफायती कीमत पर कोई कहानी संग्रह शायद ही आपको इस समय मिले। किताबों के ऐसे सस्ते संस्करणों की हमें आवश्यकता है।
हाँ, इस किताब को मैंने अभी तक ऑनलाइन विक्रेताओं के पास नहीं देखा है। अगर उधर भी ऐसे संस्करण मौजूद हो तो मजा आ जाये।
सस्ती किताबों के मामले में वाग्देवी प्रकाशन भी मुझे पसंद आया है। उधर से कृष्ण नाथ जी का यात्रा वृत्तांत स्पीति में बारिश मँगवाया था। 35 रूपये की किताब थी और पचास रूपये डिलीवरी चार्ज।(कृष्णनाथ जी के इस यात्रा वृत्तांत को ओम थानवी जी ने बी बी सी के लिए लिखे गए लेख में सबसे बेहतरीन दस यात्रा वृत्तांतों की सूची में रखा था।) यह किताब पॉकेट बुक साइज़ में प्राकशित की गयी हैं। इस प्रकाशन के पास भी काफी अच्छी किताबें वाजिब दाम में उपलब्ध हैं।
ऐसे ही एक सस्ता साहित्य मंडल नाम से प्रकाशन भी हैं। जैसे कि नाम से ही मालूम चलता है इधर भी काफी किताबें कम कीमत पर उपलब्ध हैं लेकिन ऑनलाइन खरीद में सत्तर से अस्सी रूपये डिलीवरी चार्ज है।
वाग्देवी प्रकाशन की अमेज़न में उपलब्ध किताबें
सस्ता साहित्य मंडल की अमेज़न में उपलब्ध किताबें
अब सवाल आता है कि मैं सस्ती किताबों के विषय में क्यों बात कर रहा हूँ?
जब हम कहते हैं कि हिन्दी के पाठक घट रहे हैं तो उसके पीछे कुछ कारण मेरी नजर में महत्वपूर्ण है।
पहला तो ये कि हिन्दी पट्टी में पढ़ने को बढ़ावा नहीं दिया जाता है। कई जगह तो इसे ऐब माना जाता है। उधर पढ़ना मतलब कोर्स की किताबें पढ़ना होता है। इसके इतर कुछ पढ़ो तो उसे वक्त की बर्बादी माना जाता है। मेरे घर में भी यही माहौल था। फिर जो परिवार पढ़ने के महत्व को जानते हैं वो भी यह सुनिश्चित करते हैं कि बच्चे अंग्रेजी में ज्यादा पढ़ें। क्योंकि अंग्रेजी अच्छी होगी तो नौकरी मिलने में आसानी होगी।
फिर एक कारण ये भी है कि हिन्दी में बच्चों के लिए अच्छा, रोमांचक साहित्य है कहाँ? इसलिए बच्चे अंग्रेजी के तरफ मुड़ जाते हैं। वह हैरी पॉटर पढ़ते हैं, पर्सी जैक्सन पढ़ते हैं, हार्डी बॉयज पढ़ते हैं, फेमस फाइव, सीक्रेट सेवन जैसी श्रृंखलाएं पढ़ते हैं। इसलिए जब वो सारी उम्र अंग्रेजी ही पढ़ते आये हैं तो उनसे ऐसी उम्मीद करना कि जवानी में पहुँचकर अचानक से वो हिन्दी पढ़ने लगे मेरी नज़र में गलत है।
यानी पाठक संख्या कम होने के पीछे के कारण तो यही है कि नया पाठक बन ही नहीं रहा है।
लेकिन ये सब बातें उन पर लागू होती हैं जो हिन्दी पढ़ते नहीं हैं। परन्तु अभी भी हमारे यहाँ बहुत बड़ी जनसंख्या है जो कि हिंदी में ही अपना काम काज करती है। वो किताबें पढ़ना भी चाहती है लेकिन पढ़ नहीं पाती है। और इसके पीछे एक कारण मेरे नज़र में वाजिब कीमत में किताबों का उपलब्ध न होना है।
पुस्तकालय हमारे देश में इतनी हैं नहीं। कोई पढ़ना चाहता है तो उसे किताबें खरीदनी ही पड़ती हैं। कीमतें किताबो की ज्यादा होती हैं तो एक सीमित आमदनी वाले व्यक्ति को वो चुभती सी हैं। वह महीने में एक या दो ही किताब ले पायेगा।
लुगदी के प्रकाशक इस बात को समझते थे और इस कारण वो सस्ते में किताब मुहैया करवाते थे। हिन्द पॉकेट बुक्स ने भी शायद यह बात समझी थी और सस्ते दामों में किताब मुहैया करवाई थी। लेकिन ऐसी पहल अब देखने को नहीं मिलती है।
अब एक प्रश्न उठता है कि क्या आज के जमाने में साहित्य वाजिब कीमत में उपलब्ध कराने से कुछ फायदा होगा? पढ़ने वालों की घटती जनसंख्या बढ़ेगी?
सच पूछिए तो मैं इस मामले में अनाड़ी हूँ। मैं ये कहूंगा कि यह तो शोध का विषय है। एक प्रयोग है जो सफल भी हो सकता है और असफल भी।
लेकिन अगर मैं अपना उदाहरण दूँ तो कुछ आंकड़े आपके समक्ष रखना चाहूँगा:
मै महीने में दस किताबें तक पढ़ लेता हूँ। कुछ किताबें 200 पृष्ठ से ज्यादा होती है और कुछ 200 पृष्ट से कम भी होती हैं। इसलिए हम औसत दो सौ पृष्ठ मानकर चलते हैं।
अगर हर किताब 200 रूपये की है तो महीने के औसत 2000 (कुछ किताबें 200 रूपये से काफी ऊपर कीमत की होंगी और कुछ सौ डेढ़ सौ रूपये के करीब भी होंगी) रूपये मेरे किताबों में जाते हैं। मेरी तनख्वाह ठीक ठाक है तो मुझे यह कीमत चुभती नहीं है। लेकिन अगर किसी की तनख्वाह अगर कम है तो वह इतना खर्च नही करेगा। फिर बच्चों की किताबें अलग होंगी,पत्रिकाओं का खर्चा अलग होगा। ऐसे में यह खर्चा काफी बैठता है। (यह बात करने पर कई लोग फिल्म का उदाहरण देते हैं लेकिन वह भूल जाते हैं कि हमारे देश में ज्यादातर लोग फोन पर फ्री में ही फिल्म देख लेते हैं। हॉल के टिकेट इतना ज्यादा होते हैं कि वो हॉल में महीने में एक ही फिल्म देख पाते होंगे।) अब चूँकि हमारे पास मनोरंजन के साधन काफी सारे हैं तो कम आय वाला व्यक्ति वह साधन चुनता है जो उसकी जेब पर सबसे हल्का पड़ता है। कई बार तो अच्छी खासी तनख्वाह पाने वाले भी पायरेटेड कंटेंट देखते हैं। ऐसे में क्या ये लोग महंगी किताब लेंगे? शायद नहीं। जो लेना भी चाहेगा वो लेने से पहले दो तीन बार सोचेगा। मैं खुद अशोक पांडेय जी की किताब कश्मीरनामा लेना चाहता हूँ लेकिन वह किताब साढ़े चार सौ रूपये की है और इस कारण टालमटोल कर रहा हूँ।
ऐसे में अगर ऊपर दिये गये प्रकाशकों (वाग्देवी,साहित्य भंडार,सस्ता साहित्य मंडल) की किताब मैं देखता हूँ या वो व्यक्ति देखता है जो कि ज्यादा कीमत की वजह से किताब नहीं ले पा रहा है तो वो शायद इन किताबों को लेने के विषय में एक बार सोचेगा। वो इन्हे उठाएगा और वाजिब कीमत लगने पर खरीदने की हिम्मत करेगा। ऐसा मेरा मानना है।
अब इस पर एक और सवाल आता है कि फिर ऊपर दिये प्रकाशकों की किताबें इतनी ज्यादा क्यों नहीं बिक रही हैं?
तो मेरा पहला जवाब है कि उनके विषय में पता कितने लोगों को है? पिछले साल तक मुझे भी नहीं पता था। अगर आप पुस्तक मेले में जाते हैं और हिंदी के प्रकाशन स्टाल के चक्क्र काटते हैं तो शायद उनके विषय में पता हो। अगर नहीं जाते तो नहीं पता होगा। या अमेज़न में कीमत वाला फ़िल्टर लगाकर किताब ब्राउज करते हैं तो शायद पता हो लेकिन अगर नहीं करते तो कहाँ पता होगा। फिर किताबों के दुकान में ये शायद से ही दिखती हों। उन्होंने रखी भी होंगी तो जब तक कोई पूछेगा नहीं तब तक कोई निकालेगा भी नहीं। और लोग पूछेंगे तब जब उन्हें पता होगा। फिर बड़े बुक्स स्टोर में तो हिन्दी एक शेल्फ में सिमटी रहती है। तो ब्राउज भी कहाँ कर सकते हैं।
ऐसे में इनकी पहुँच कम होना लाजमी है।
अक्सर इन प्रकाशकों की ऑनलाइन रीच भी कम होती है। ऑनलाइन भी थर्ड पार्टी ही इनकी किताबें बेचती हैं तो डिलीवरी चार्ज लगता है जो थोडा महंगा पड़ता है। अमेज़न के प्राइम में यह किताबें आपको शायद ही दिखें। इनकी ई बुक भी शायद ही मिले। तकनीक के मामले में हिन्दी के प्रकाशन इतने पीछे होते थे कि 2017 में कई प्रकाशकों के पुस्तक मेले वाले स्टाल में कार्ड पेमेंट की सुविधा नहीं होती थी। वो कैश ही लेते थे। अभी भी कई आपको ऐसे मिल जायेंगे।अब उधर पाठक कहाँ कैश लेकर घूमता फिरेगा? अपना ऑनलाइन स्टोर होना तो खैर इनके लिए दूर की बात है। ऐसे में कोई पाठक भूले भटके इधर पहुँचता है तो वो हैरत में पड़ जाता है कि भाई आज के जमाने में इतना सस्ते में अच्छा साहित्य भी मिलता है? जिन्हे पता चलता है वो खरीदते हैं।
तो कम बिक्री के पीछे कुछ गलती थोड़ा प्रकाशक की है कि वह सोशल मीडिया का उपयोग कम करता है। समय के साथ खुद को अपडेट नहीं करता है। कीमत कम हैं लेकिन इन कीमतों के विषय में किसी को पता ही नहीं है। इसलिए इधर सुधार की आवश्यकता है।
जब भी मैं पुस्तक मेले में जाता हूँ तो मेरा मिशन ऐसे प्रकाशकों को खोजना ही होता है जो कि पॉकेट फ्रेंडली तो हों ही और साथ में कंटेंट भी अच्छा मिले। इससे मुझे पढने के लिये काफी सामग्री मिल जाती है।
आप लोग ऐसे किसी प्रकाशन को जानते हैं, जो कम कीमत में किताब मुहैया करवाते हैं, तो नाम साझा करें?
कुछ नये स्रोत मुझे और दूसरे पाठकों को मिलेंगे।
घटती पाठक संख्या के विषय में आपकी क्या राय है?
पाठकों की संख्या को कैसे बढ़ाया जा सकता है?
क्या किताबों की कीमत का इससे कुछ लेना देना है?
अपने विचारों से मुझे अवगत करवाईएगा।
© विकास नैनवाल 'अंजान'
'मैं चोरी भी नहीं कर सकता।' मोटा बोला।
'और चोरी करोगे भी तो आलपिनों, पैन्सिलों और रबड़ों की', भैंगा बोला,'छोटे को देखते हो, कितना सफल कामचोर है और कितना सुखी उप!'
-रविन्द्र कालिया, काला रजिस्टर
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काला रजिस्टर - रविंद्र कालिया |
अभी रविन्द्र कालिया जी की यह किताब काला रजिस्टर पढ़ रहा हूँ। यह किताब पिछले वर्ष दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में खरीदी थी।इस किताब की कीमत 50 रूपये है और इसमें कालिया जी की 8 कहानियाँ हैं संग्रहित हैं। 2017 का संस्करण है। प्रकाशन का नाम साहित्य भंडार है। मेरे हिसाब से इससे किफायती कीमत पर कोई कहानी संग्रह शायद ही आपको इस समय मिले। किताबों के ऐसे सस्ते संस्करणों की हमें आवश्यकता है।
हाँ, इस किताब को मैंने अभी तक ऑनलाइन विक्रेताओं के पास नहीं देखा है। अगर उधर भी ऐसे संस्करण मौजूद हो तो मजा आ जाये।
सस्ती किताबों के मामले में वाग्देवी प्रकाशन भी मुझे पसंद आया है। उधर से कृष्ण नाथ जी का यात्रा वृत्तांत स्पीति में बारिश मँगवाया था। 35 रूपये की किताब थी और पचास रूपये डिलीवरी चार्ज।(कृष्णनाथ जी के इस यात्रा वृत्तांत को ओम थानवी जी ने बी बी सी के लिए लिखे गए लेख में सबसे बेहतरीन दस यात्रा वृत्तांतों की सूची में रखा था।) यह किताब पॉकेट बुक साइज़ में प्राकशित की गयी हैं। इस प्रकाशन के पास भी काफी अच्छी किताबें वाजिब दाम में उपलब्ध हैं।
ऐसे ही एक सस्ता साहित्य मंडल नाम से प्रकाशन भी हैं। जैसे कि नाम से ही मालूम चलता है इधर भी काफी किताबें कम कीमत पर उपलब्ध हैं लेकिन ऑनलाइन खरीद में सत्तर से अस्सी रूपये डिलीवरी चार्ज है।
वाग्देवी प्रकाशन की अमेज़न में उपलब्ध किताबें
सस्ता साहित्य मंडल की अमेज़न में उपलब्ध किताबें
अब सवाल आता है कि मैं सस्ती किताबों के विषय में क्यों बात कर रहा हूँ?
जब हम कहते हैं कि हिन्दी के पाठक घट रहे हैं तो उसके पीछे कुछ कारण मेरी नजर में महत्वपूर्ण है।
पहला तो ये कि हिन्दी पट्टी में पढ़ने को बढ़ावा नहीं दिया जाता है। कई जगह तो इसे ऐब माना जाता है। उधर पढ़ना मतलब कोर्स की किताबें पढ़ना होता है। इसके इतर कुछ पढ़ो तो उसे वक्त की बर्बादी माना जाता है। मेरे घर में भी यही माहौल था। फिर जो परिवार पढ़ने के महत्व को जानते हैं वो भी यह सुनिश्चित करते हैं कि बच्चे अंग्रेजी में ज्यादा पढ़ें। क्योंकि अंग्रेजी अच्छी होगी तो नौकरी मिलने में आसानी होगी।
फिर एक कारण ये भी है कि हिन्दी में बच्चों के लिए अच्छा, रोमांचक साहित्य है कहाँ? इसलिए बच्चे अंग्रेजी के तरफ मुड़ जाते हैं। वह हैरी पॉटर पढ़ते हैं, पर्सी जैक्सन पढ़ते हैं, हार्डी बॉयज पढ़ते हैं, फेमस फाइव, सीक्रेट सेवन जैसी श्रृंखलाएं पढ़ते हैं। इसलिए जब वो सारी उम्र अंग्रेजी ही पढ़ते आये हैं तो उनसे ऐसी उम्मीद करना कि जवानी में पहुँचकर अचानक से वो हिन्दी पढ़ने लगे मेरी नज़र में गलत है।
यानी पाठक संख्या कम होने के पीछे के कारण तो यही है कि नया पाठक बन ही नहीं रहा है।
लेकिन ये सब बातें उन पर लागू होती हैं जो हिन्दी पढ़ते नहीं हैं। परन्तु अभी भी हमारे यहाँ बहुत बड़ी जनसंख्या है जो कि हिंदी में ही अपना काम काज करती है। वो किताबें पढ़ना भी चाहती है लेकिन पढ़ नहीं पाती है। और इसके पीछे एक कारण मेरे नज़र में वाजिब कीमत में किताबों का उपलब्ध न होना है।
पुस्तकालय हमारे देश में इतनी हैं नहीं। कोई पढ़ना चाहता है तो उसे किताबें खरीदनी ही पड़ती हैं। कीमतें किताबो की ज्यादा होती हैं तो एक सीमित आमदनी वाले व्यक्ति को वो चुभती सी हैं। वह महीने में एक या दो ही किताब ले पायेगा।
लुगदी के प्रकाशक इस बात को समझते थे और इस कारण वो सस्ते में किताब मुहैया करवाते थे। हिन्द पॉकेट बुक्स ने भी शायद यह बात समझी थी और सस्ते दामों में किताब मुहैया करवाई थी। लेकिन ऐसी पहल अब देखने को नहीं मिलती है।
अब एक प्रश्न उठता है कि क्या आज के जमाने में साहित्य वाजिब कीमत में उपलब्ध कराने से कुछ फायदा होगा? पढ़ने वालों की घटती जनसंख्या बढ़ेगी?
सच पूछिए तो मैं इस मामले में अनाड़ी हूँ। मैं ये कहूंगा कि यह तो शोध का विषय है। एक प्रयोग है जो सफल भी हो सकता है और असफल भी।
लेकिन अगर मैं अपना उदाहरण दूँ तो कुछ आंकड़े आपके समक्ष रखना चाहूँगा:
मै महीने में दस किताबें तक पढ़ लेता हूँ। कुछ किताबें 200 पृष्ठ से ज्यादा होती है और कुछ 200 पृष्ट से कम भी होती हैं। इसलिए हम औसत दो सौ पृष्ठ मानकर चलते हैं।
अगर हर किताब 200 रूपये की है तो महीने के औसत 2000 (कुछ किताबें 200 रूपये से काफी ऊपर कीमत की होंगी और कुछ सौ डेढ़ सौ रूपये के करीब भी होंगी) रूपये मेरे किताबों में जाते हैं। मेरी तनख्वाह ठीक ठाक है तो मुझे यह कीमत चुभती नहीं है। लेकिन अगर किसी की तनख्वाह अगर कम है तो वह इतना खर्च नही करेगा। फिर बच्चों की किताबें अलग होंगी,पत्रिकाओं का खर्चा अलग होगा। ऐसे में यह खर्चा काफी बैठता है। (यह बात करने पर कई लोग फिल्म का उदाहरण देते हैं लेकिन वह भूल जाते हैं कि हमारे देश में ज्यादातर लोग फोन पर फ्री में ही फिल्म देख लेते हैं। हॉल के टिकेट इतना ज्यादा होते हैं कि वो हॉल में महीने में एक ही फिल्म देख पाते होंगे।) अब चूँकि हमारे पास मनोरंजन के साधन काफी सारे हैं तो कम आय वाला व्यक्ति वह साधन चुनता है जो उसकी जेब पर सबसे हल्का पड़ता है। कई बार तो अच्छी खासी तनख्वाह पाने वाले भी पायरेटेड कंटेंट देखते हैं। ऐसे में क्या ये लोग महंगी किताब लेंगे? शायद नहीं। जो लेना भी चाहेगा वो लेने से पहले दो तीन बार सोचेगा। मैं खुद अशोक पांडेय जी की किताब कश्मीरनामा लेना चाहता हूँ लेकिन वह किताब साढ़े चार सौ रूपये की है और इस कारण टालमटोल कर रहा हूँ।
ऐसे में अगर ऊपर दिये गये प्रकाशकों (वाग्देवी,साहित्य भंडार,सस्ता साहित्य मंडल) की किताब मैं देखता हूँ या वो व्यक्ति देखता है जो कि ज्यादा कीमत की वजह से किताब नहीं ले पा रहा है तो वो शायद इन किताबों को लेने के विषय में एक बार सोचेगा। वो इन्हे उठाएगा और वाजिब कीमत लगने पर खरीदने की हिम्मत करेगा। ऐसा मेरा मानना है।
अब इस पर एक और सवाल आता है कि फिर ऊपर दिये प्रकाशकों की किताबें इतनी ज्यादा क्यों नहीं बिक रही हैं?
तो मेरा पहला जवाब है कि उनके विषय में पता कितने लोगों को है? पिछले साल तक मुझे भी नहीं पता था। अगर आप पुस्तक मेले में जाते हैं और हिंदी के प्रकाशन स्टाल के चक्क्र काटते हैं तो शायद उनके विषय में पता हो। अगर नहीं जाते तो नहीं पता होगा। या अमेज़न में कीमत वाला फ़िल्टर लगाकर किताब ब्राउज करते हैं तो शायद पता हो लेकिन अगर नहीं करते तो कहाँ पता होगा। फिर किताबों के दुकान में ये शायद से ही दिखती हों। उन्होंने रखी भी होंगी तो जब तक कोई पूछेगा नहीं तब तक कोई निकालेगा भी नहीं। और लोग पूछेंगे तब जब उन्हें पता होगा। फिर बड़े बुक्स स्टोर में तो हिन्दी एक शेल्फ में सिमटी रहती है। तो ब्राउज भी कहाँ कर सकते हैं।
ऐसे में इनकी पहुँच कम होना लाजमी है।
अक्सर इन प्रकाशकों की ऑनलाइन रीच भी कम होती है। ऑनलाइन भी थर्ड पार्टी ही इनकी किताबें बेचती हैं तो डिलीवरी चार्ज लगता है जो थोडा महंगा पड़ता है। अमेज़न के प्राइम में यह किताबें आपको शायद ही दिखें। इनकी ई बुक भी शायद ही मिले। तकनीक के मामले में हिन्दी के प्रकाशन इतने पीछे होते थे कि 2017 में कई प्रकाशकों के पुस्तक मेले वाले स्टाल में कार्ड पेमेंट की सुविधा नहीं होती थी। वो कैश ही लेते थे। अभी भी कई आपको ऐसे मिल जायेंगे।अब उधर पाठक कहाँ कैश लेकर घूमता फिरेगा? अपना ऑनलाइन स्टोर होना तो खैर इनके लिए दूर की बात है। ऐसे में कोई पाठक भूले भटके इधर पहुँचता है तो वो हैरत में पड़ जाता है कि भाई आज के जमाने में इतना सस्ते में अच्छा साहित्य भी मिलता है? जिन्हे पता चलता है वो खरीदते हैं।
तो कम बिक्री के पीछे कुछ गलती थोड़ा प्रकाशक की है कि वह सोशल मीडिया का उपयोग कम करता है। समय के साथ खुद को अपडेट नहीं करता है। कीमत कम हैं लेकिन इन कीमतों के विषय में किसी को पता ही नहीं है। इसलिए इधर सुधार की आवश्यकता है।
जब भी मैं पुस्तक मेले में जाता हूँ तो मेरा मिशन ऐसे प्रकाशकों को खोजना ही होता है जो कि पॉकेट फ्रेंडली तो हों ही और साथ में कंटेंट भी अच्छा मिले। इससे मुझे पढने के लिये काफी सामग्री मिल जाती है।
आप लोग ऐसे किसी प्रकाशन को जानते हैं, जो कम कीमत में किताब मुहैया करवाते हैं, तो नाम साझा करें?
कुछ नये स्रोत मुझे और दूसरे पाठकों को मिलेंगे।
घटती पाठक संख्या के विषय में आपकी क्या राय है?
पाठकों की संख्या को कैसे बढ़ाया जा सकता है?
क्या किताबों की कीमत का इससे कुछ लेना देना है?
अपने विचारों से मुझे अवगत करवाईएगा।
© विकास नैनवाल 'अंजान'
किताबों की कीमत सभी को प्रभावित करती है। एक बच्चों की किताब, जिसके पचास पृष्ठ हैं और उसका मूल्य 150₹ है तो बच्चे उसे कैसे खरीदेंगे।
जवाब देंहटाएंपाठक अब भी हैं लेकिन बढी हुयी कीमत एक समस्या है।
आपने इस विषय पर अच्छा लिखा है, धन्यवाद।
जी आभार।
हटाएंBahut shandar likha hai Vikas sir. Jis desh me garibi ek badi samasya hai aur jaisa ki aapne bataya ki bahut se gharo me padne ko waqt ki barbadi mana jata hai, ese hi karno se pustako ko, pathko ko, yaha tak ki lekhko ko bhi protsahan nahi mil pata hai.
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने ब्रजेश सर।
हटाएंवाह जी, हिंदी साहित्य की सही नब्ज पकड़े है।
जवाब देंहटाएंआभार दिनेश भाई।
हटाएंबेहतरीन लेख ...,आपके तथ्य बहुत सटीक और तर्कसंगत हैं ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मैम।
हटाएंबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति :)
जवाब देंहटाएंशुक्रिया, संजय जी।
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