इनसान

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हम ढूँढते रहते है आपस में समानता,
ताकि बँट सके फिर समूह में,
कह सके किसी को अपना
कह सके किसी को बेगाना

कहते हैं होता है आदमी सामाजिक प्राणी,
फिर न जाने क्यों बांट देता है वो खुद को,
असंख्य टुकड़ों में,
कभी धर्म के नाम पर,
कभी जाति के नाम पर,
कभी भाषा के नाम पर,
कभी रंग के नाम पर,

यही नहीं रुकता है वो,
खुद को बांट कर न पाता है जब चैन,
अपनी बेचैनी मिटाता है फिर बाँट कर,

भाषा को धर्म के नाम पर,
खाने को धर्म के नाम पर,
कपड़ों को धर्म के नाम पर,
ताकि अपनी नफरतों को पोस सके
उनमें अपना वजूद तलाश सके

© विकास नैनवाल 'अंजान'

4 टिप्पणियाँ

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  1. सही कहा विकास जी की आज इंसान ने अपने आप को इतनी जगह बांट दिया हैं कि उसका मूल रूप कहीं खो गया हैं। सुंदर प्रस्तूति।

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  2. भाषा और धर्म के नाम पर बट गया है इंसान
    बहुत गहरी बात कह गए

    जवाब देंहटाएं

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