मच्छर मारेगा हाथी को - अ रीमा भारती फैन फिक्शन #6





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नोट: व्यक्तिगत कारणों के चलते इस बार इस कड़ी  को प्रकाशित करने में एक दिन की देरी हो गई। इसके लिए मैं माफ़ी चाहता हूँ। मेरी पूरी कोशिश रहेगी कि आगे से ऐसा न हो। आशा है आप समझेंगे।

पिछली कड़ी में आपने पढ़ा:

सुनीता को उसके अपहरणकर्ताओं ने एक इमारत में बंदी बनाकर रखा था। अँधेरे में लेटी सुनीता को अपना भविष्य भी अन्धकारमय दिखाई दे रहा था।

वहीं रीमा भारती अपने पीछे लगे लोगों से पीछा छुड़ाकर आखिरकार काम्या के पास पहुँच गई थी। अब काम्या वह जानकारी देने वाली थी जिससे रीमा को पता लगता कि सुनीता ने अपने आप को किस मुसीबत में डाल दिया था। 

अब आगे:


सुनीता की आँखें उस वक्त बंद थी जब चरमराहट के साथ कमरे में मौजूद एकलौता दरवाजा खुला।लेटे लेटे उसे न जाने कितना समय बीत गया था या हर बीतता पल उसे न जाने कितने घंटों  के समान लगने लगा था। कुछ भी हो सकता था। कमरे में अभी भी अँधेरा था। वक्त का अंदाजा लगाना नामुमकिन था। दरवाजा खुलने पर सुनीता की नजरें स्वतः की दरवाजे की तरफ घूम गई।



दरवाजे के बाहर हल्की रोशनी थी। एक साया अन्दर दाखिल हो रहा था। सुनीता ने उसे देखने की कोशिश की लेकिन उसे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था।

"लाइट लेकर आओ", उस साये ने अपनी खरखराती आवाज़ में कहा।

बाहर से दो लोग एक इमरजेंसी लाइट लेकर आये। इमरजेंसी लाइट में दो छोटी ट्यूब लगी हुई थी जिससे कमरे में पर्याप्त रोशनी हो गई थी। सुनीता इतनी देर से अँधेरे कमरे में थी कि इस हल्की रोशनी से भी पहले उसे थोड़ा तकलीफ हुई। उसने कुछ देर आँखें बंद की और फिर किसी तरह उन्हें खोला।

उसने अपनी आँखों को खोला तो वो घबराकर बिस्तर पर पीछे की तरफ खिसकी और दीवार से पीठ लगाकर बैठ गई।

वह आदमी प्रेत की तरह उसके सामने एक कुर्सी पर बैठा था। इमरजेंसी लाइट उसके हाथ में मौजूद थी। सुनीता अब उस व्यक्ति को देख पा रही थी। वह जानती थी कि सामने मौजूद शख्स साठ साल के करीब है लेकिन वह पचास के करीब दिख रहा था। उसके बाल फैशनेबल तरीके से कटे हुए थे। ऐसे ही दाड़ी उसके चेहरे पर थी जो कि आज कल चल रहे फैशन के अनुरूप थी। उसने एक काले रंग का सूट पहना हुआ था। कपड़ों और शक्ल सूरत से वह काफी सम्भ्रान्त लग रहा था।

"घबराओ नहीं।" उसने कहा। "मैं ये नहीं कहूँगा कि तुम्हे घबराने की जरूरत नहीं है। लेकिन  अब तक तुम यह समझ गई होगी कि मुझे तुम्हे मारना होता तो कब का मार चुका होता। वो काम भी मैं जल्दी करूँगा लेकिन पहले कुछ बातें जानना चाहता हूँ।..."

"प्लीज मुझे छोड़ दीजिये। मैं किसी से कुछ नहीं कहूँगी।" सुनीता की घिघियाती सी आवाज़ में उसके कुछ बोलने से पहले ही कहा।

"ये तो खैर मुमकिन नहीं है।", आदमी ने बिलकुल शांत लहजे में बोला। उसके हाव भाव से ऐसा लग रहा था जैसे वो इनसान को मारने की बात नहीं कर रहा था बल्कि रोज मर्रा के काम निपटा रहा था।
उसने कहना जारी रखा- "हाँ , अगर जो मैं जानना चाहता हूँ तुम वो मुझे बता दो तो मैं तुम्हे कुछ चीजें दे सकता हूँ। वो चीजें क्या होंगी यह मैं कुछ देर में बताऊंगा। तुम्हे पता तो होगा तुम्हे मैं यहाँ क्यों लाया हूँ। इसलिए मुझे बताओ  तुमने इस विषय में किस किस को बताया है?"

"प्लीज", सुनीता ने कंपकपाती आवाज़ में कहा।

"देखो। मुझे बता दोगी तो मैं तुम्हे इस तरह मारूंगा कि तुम्हे तकलीफ न हो। और फिर मैं वादा करता हूँ कि केवल तुम्हारी ही मौत निश्चित होगी। अगर तुमने मुझे नहीं बताया तो मैं तुम्हे सब प्रकार की यातनाएं दूँगा। यकीन मानो उस वक्त तुम बस ये सोचोगी कि तुमने चीजें पहले क्यों नहीं बताई। इतने में तुम्हे चैन नहीं लेने दूँगा मैं। मैं तुम्हारे परिवार के हर एक सदस्य को जिनमें तुम्हारे माँ बाप जो गढ़वाल में रहते हैं और तुम्हारा भाई जो कि मर्चेंट नेवी में है और तुम्हारी भाभी जो इस वक्त देहरादून गई है- सभी को मैं बुरी मौत दूँगा। मरने से पहले उन्हें मैं इतना तो बता दूँगा कि यह सब उनकी प्यारी बेटी के कारण हो रहा है। वो चाहती तो उन्हें बचा सकती थी लेकिन उसने अपने स्वार्थ के चलते ये होने नहीं दिया।"

अपनी बात कहकर वह रुका। उसने अपने कोट की जेब से एक सिगार निकाला। दूसरी जेब  से सिगार काटने वाला कटर  निकाला। उसने सिगार काटा। उसके टुकड़े को उसने उठाकर अपने जेब में रखा। सिगार को उसने   मुँह में रखा और उसे अपने पास मौजूद एक लाइटर से सुलगाया। फिर कुछ देर कश लेने के बाद वह उठा और उस बिस्तर के करीब आया जहाँ सुनीता बैठी थी। वह सुनीता के नजदीक पहुँचा तो सुनीता अपने में सिकुड़ती चली गई। सुनीता अब जा भी कहाँ सकती थी। पीछे दीवार थी और आगे वो। सुनीता की असहजता पर कोई ध्यान न देते हुए उसने झुककर सुनीता के सिर पर ऐसे हाथ फेरा जैसे कोई किसी कुत्ते को पुचकारता है  और फिर एक कश हवा में छोड़ते हुए कहा।

"किस्मत किस्मत की बात है। कई बार आदमी गलत वक्त पर गलत जगह होता है। तुम्हारे साथ भी ऐसा ही हुआ। मेरी तुम्हारी व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं है लेकिन मैं क्या कर सकता हूँ बेटी। बिजनेस युद्ध की तरह होते हैं। कई बार आपको ऐसे निर्णय लेने होते हैं जो सही न लगे लेकिन वो बिजनेस के लिए सही होते हैं। तुम सोचो। मैं फिर आऊँगा।"

यह कहकर  वो सीधा हुआ, उसने लाइट उठाई, लाइट को बंद  बंद किया और फिर वापिस जाने के लिए मुड़ गया। वह दरवाजे तक पहुँचा और दरवाजा खोलकर वह बाहर जा ही रहा था कि वह ऐसे ठिठका जैसे उसे कुछ याद आ गया हो। ठिठकर वह मुड़ा और मुड़कर उसने सुनीता की तरफ देखते हुए कहा- "हाँ, याद आया। अगर तुम समझती हो कि रीमा भारती तुम्हे बचा देगी तो यह तुम्हारी गलत फहमी है। बहुत दिनों बाद मुझे खेलने का मौक़ा लगा है। यकीन मानो मुझे इतना मजा बहुत दिनों से नहीं आया। मैं शाम को वापस आऊँगा। क्या पता रीमा भारती का सिर लेकर आऊँ।"

सुनीता को उस व्यक्ति की आँखों अपने पर टिकी हुई महसूस हो रही थी। वो आँखें उसे अंगार बरसाती सी महसूस हो रही थी। सुनीता का शरीर पसीने से लथपथ हो चुका था।  जो भयावह दृश्य वह व्यक्ति उसके नजरों के सामने प्रस्तुत करके गया था उसके विषय में सोचकर ही उसके रोंगटे खड़े हो रहे थे। अचानक सुनीता जुड़ी के बुखार के मरीज की तरह काँपने लगी। न जाने कब वह रोने लगी उसे इसका पता ही नहीं लगा।

उसने रीमा को न जाने किस मुसीबत में डाल दिया था। उसे रीमा को कॉल नहीं करना चाहिए था। अब कोई उसे नहीं बचा सकता था। उसकी किस्मत का फैसला हो चुका था। उसे अब सब कुछ बता देना चाहिए था। वह तो उसी वक्त सब कुछ बोलने तो तैयार थी लेकिन खौफ के कारण उसकी जबान उसके तालू से चिपक गई थी।

उस अँधेरे कमरे में अब सुनीता की सुबकने की आवाज़ रह रहकर आ रही थी।

                                                         *******

"कहाँ से शुरू करूँ।" काम्या ने कहा।

"शुरू से शुरू करो।" रीमा ने कहा।

"मैं और सुनीता मास कम्युनिकेशन की स्टूडेंट्स हैं। हमारे फाइनल इयर में एक प्रोजेक्ट होता है जिसमें हमे कुछ फुटेज बनाकर सबमिट करनी होती है। एक छोटी मोटी डाक्यूमेंट्री टाइप की। ज्यादातर लोग पुराने की आइडियाज को रिहेश करते हैं। फाइनल इयर रहता है, थोडा इटर्नशिप मिल जाती है तो उसमें ही वक्त चला जाता है। प्रोजेक्ट के मार्क्स वैसे भी मिल जाते हैं। मार्क्स में ज्यादा फर्क भी नहीं रहता तो लोग ज्यादा मेहनत नहीं करते हैं। लेकिन सुनीता ऐसी नहीं थी। उसके दिमाग में डाक्यूमेंट्री का एक आईडिया था। वैसे भी हमारे वीकेंड फ्री रहते थे और सुनीता को पार्टीज का कोई शौक नहीं था तो उसने यह डाक्यूमेंट्री खुद ही बनाने की सोची थी। मुझे थोड़ा बहुत एडिटिंग वगेरह करनी थी और बाकी रिसर्च करनी थी। यानी फील्ड वर्क वो करती और बाकी काम मैं। यही तय हुआ था। हमारा विषय यह था कि जो ये अधूरे बिल्डिंग प्रोजेक्ट्स बने रहते हैं इनके अन्दर कैसे एक अलग तरह का समाज विकसित हो जाता है। सेक्स ट्रेड से लेकर ड्रग्स, जुआ और अन्य अपराधिक गतिविधियाँ इधर होती हैं। कहने को तो यह इमारतें विरानी और अधूरी रहती हैं लेकिन इन अधूरी इमारतों के अंदर एक अलग सी दुनिया बसती है।", कहकर काम्या ने मुझे देखा और फिर कॉफ़ी का एक घूँट लिया।

"बस यही हमारा टॉपिक था। हम कोई बड़ी डाक्यूमेंट्री इस पर नहीं बनाना चाह रहे थे। बस थोड़ा हल्का फुल्का जो बाकियों से अलग लगे और हमारे काम को थोड़ा एज दे। पाँच दस मिनट की तो डाक्यूमेंट्री बननी थी। हमारा फॉर्मेट रेडी था। चौकीदारों को थोड़ा पैसा देकर कुछ शॉकिंग किस्से बताने थे। हम कोई नाम तो लेने वाले नहीं थे। एक दो सेक्स वर्कर्स जो उधर एक्टिव थीं उनका इंटरव्यू लेते और एक दो छोटे ड्रग पेडलेर्स का इंटरव्यू लेते। ये लोग तैयार भी थे। हमने इनसे वादा किया था कि न इनका नाम उजागर होगा, न शक्ल, सब अँधेरे में रहेंगे और हम इनकी आवाज़ को भी बदल देंगे। विडियो यू ट्यूब में डालने का इरादा था तो वो लोग आसानी से देख भी सकते थे। सब सही जा रहा था लेकिन फिर सुनीता को न जाने क्या सूझी उसने एक बिल्डिंग में रात बिताने का फैसला कर लिया। उस पागल लड़की ने मुझे कुछ भी बताना ठीक नहीं समझा। अगर उसने मुझे बताया होता तो मैं शायद उसे डांटकर उसे अक्ल देती और वह आज इस मुसीबत में नहीं फंसती।" कहकर काम्या के आँसूँ  टपकने लगे।

रीमा ने उसे चुप कराया। फिर दो कॉफ़ी का और आर्डर दिया।

कॉफ़ी आई तब तक काम्या ने खुद पर काबू पा लिया था।

"रात को उस बिल्डिंग में क्या हुआ? यह तो मुझे सुनीता ने नहीं बताया लेकिन तब से वह घबराई घबराई सी रहने लगी थी। मुझे खाली उसने यही बताया कि वह बहुत परेशानी में थी और उस रात के बाद से उसे लगने लगा था कि जैसे उसके पीछे कोई पड़ा है। उसने मुझसे मिलने से भी मना कर दिया था। उसे लग रहा था कि अगर उन लोगों को पता चलेगा कि मैं उसके साथ हूँ तो मेरी भी जान जा सकती थी। मैं पहले तो उसकी बात हँसी में उड़ाई लेकिन फिर एक दिन मैंने उसके घर जाने की ठानी। उसे फोन किया तो उसने उन लकड़ों के विषय में बताया जो उसके घर के इर्द गिर्द थे।  मैंने भी उन्हें देखा और तब जाकर मुझे उसकी बात पर विश्वास हुआ। मैं उधर से लौट आई। उस दिन मैंने उसे प्रियंका दीदी का फोन नंबर दिया। प्रियंका दीदी से मैं अपनी इंटर्नशिप के दौरान ही मिली थी। और फिर आगे क्या हुआ यह तो आपको पता ही है।"

"हूँ"मैंने कॉफ़ी का घूँट लेते हुए कहा।

"वह किस इमारत में रुकी थी? तुम्हे इसका आईडिया है?" मैंने पूछा।

"इमारत का तो नहीं पता लेकिन हम जिस बिल्डिंग काम्प्लेक्स को कैनवास कर रहे थे उसका आईडिया है।" कहकर उसने उस काम्प्लेक्स का पता बताया।

मैंने पता नोट किया।

"उस चौकीदार का नाम जिसके साथ उसने सेटिंग करके रात में रुकने की बात करी थी?"

"करमसिंह।"

"ठीक है। कम से कम मुझे पता तो चला कि यह बखेड़ा किधर से शुरू हुआ है।"

"दीदी।  अब मैं क्या करूँ?"

"तुम इधर कैसे आई हो?"

"उबर से।"

"ठीक है। मैं इधर से निकलती हूँ। हमारे आस पास कोई संदिग्ध लोग नहीं है। शायद मॉल के बाहर लोग हों। तुम इधर ही थोड़ा रुको। मैं अपनी एक कलीग को बुलाती हूँ। जब तक यह मामला नहीं सुलझ जाता तब तक तुम उसके साथ रहना। वो सुनीता तक पहुँचे हैं तो तुम्हारे तक भी पहुँच सकते हैं। अच्छा उस दिन कोई फुटेज वगेरह बनाई थी सुनीता ने?"

"जी बनाई भी होगी तो मुझे दी नहीं थी। हमे मिलने का मौक़ा ही नहीं लगा था।"

"ओके।" कहकर रीमा ने रीना को कॉल लगाया। उसने संक्षिप्त में उसे सब बताया। रीना के पास फिलहाल कोई असाइनमेंट नहीं था तो वो आसानी से आ सकती थी। रीमा ने काम्या को रीना की फोटो दिखाई और फिर उसे कैफ़े में छोड़कर बाहर की तरफ निकल गई। बाहर उसे वो दो गाड़ियाँ खड़ी दिखीं। एक का बंदोबस्त हो गया था। अब इनको ठिकाने लगाना था। वह थोड़ी देर यूँ ही वक्त काटती रही। उसने कुछ सामान खरीदा और फिर स्टोर से निकल कर बाहर अपनी बाइक की तरफ चली गई।

रास्ते में उसने रीना को आते देख लिया था लेकिन दोनों इस तरह एक दूसरे के सामने से गुजरे जैसे वो अनजान हों।

रीमा की अगली मंजिल वह चौकीदार था जिससे कुछ पता लग सकता था। लेकिन उससे पहले उसे इन लोगों से पीछा छुड़ाना था। रीमा ने हेलमेट चढाया। और बाइक पार्किंग से निकाल कर उसे दिल्ली की सडकों पर दौडाने लगी।

अब केस की कड़ियाँ जुड़ने लगी थी। उम्मीद थी कि सुनीता से जो उन्हें चाहिए था वो अब तक उन्हें मिला नहीं था। सुनीता उनके सामने टिक पायेगी वह यही उम्मीद कर रही थी।



                                                                      क्रमशः

फैन फिक्शन की सभी कड़ियाँ:
  1. मच्छर मारेगा हाथी को - अ रीमा भारती फैन फिक्शन #1
  2. मच्छर मारेगा हाथी को - अ रीमा भारती फैन फिक्शन #2
  3. मच्छर मारेगा हाथी को - अ रीमा भारती फैन फिक्शन  #3 
  4. मच्छर मारेगा हाथी को - अ रीमा भारती फैन फिक्शन #4
  5. मच्छर मारेगा हाथी को - अ रीमा भारती फैन फिक्शन #5
  6. मच्छर मारेगा हाथी को - अ रीमा भारती फैन फिक्शन #6
  7. मच्छर मारेगा हाथी को - अ रीमा भारती फैन फिक्शन #7
  8. मच्छर मारेगा हाथी को -अ रीमा भारती फैन फिक्शन #8
  9. मच्छर मारेगा हाथी को - अ रीमा भारती फैन फिक्शन #9

©विकास नैनवाल 'अंजान' 

6 टिप्पणियाँ

आपकी टिपण्णियाँ मुझे और अच्छा लिखने के लिए प्रेरित करेंगी इसलिए हो सके तो पोस्ट के ऊपर अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा।

  1. बहुत बढ़िया..., लिखते रहिए एक जासूसी उपन्यास तैयार हो रहा है ।

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 23/04/2019 की बुलेटिन, " 23 अप्रैल - विश्व पुस्तक दिवस - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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    1. बुलेटिन में मेरी पोस्ट को शामिल करने के लिए हार्दिक आभार शिवम जी।

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  3. विकास जी, मैंने पहली वाली पोस्ट तो नहीं पढ़ी लेकिन यह पोस्ट पढकर आगे क्या हुआ यह जानने की उत्सुकता जरूर हैं।

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    1. जी शुक्रिया मैम। ऐसी ही टिप्पणियाँ मुझे और बेहतर लिखने के लिए प्रेरित करती हैं। आभार।

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