जोधपुर जैसलमेर की घुम्मकड़ी #2: जोधपुर से जैसलमेर

यह यात्रा 28/12/2018 से 01/01/2019 के बीच की गई थी

पिछली कड़ी में आपने पढ़ा कि किस तरह से गुरुग्राम से सराय रोहिल्ला का सफ़र हुआ। विस्तार से जानने के लिए निम्न लिंक पर आप जा सकते हैं:


अब आगे:

सोनार किला, जैसलमेर राजस्थान

29/12/2018
रह रहकर मेरी नींद खुल रही थी। खुलने का कारण ये था कि कम्बल से मेरे पाँव बाहर निकल रहे थे और जब भी ऐसा होता मेरे पाँव की उनलियों में सर्दी लगने लग जाती और मैं पैर मोड़कर फिर सोने की कोशिश करने लगता। यह कोशिश लगातार जारी थी। साढ़े सात बजे के करीब मैंने चाय वाले की आवाज़ सुनी थी। मेरा मन उन्हें आवाज़ देने का था लेकिन फिर मैंने अपने मन को जब्त किया। बात ये थी कि मुझे बाथरूम आई थी और ठंड भी लग रही थी। जब तक लेटा था तब तक लघुशंका को रोकना मेरे लिए मुमकिन था लेकिन उठते ही मुझे पहले इसका निवारण करना पड़ता। इसलिए चाय का मन होते हुए भी मैंने चाय वाले भाई को निकलने दिया। फिर नींद आने लगी और मैं दोबारा सो गया और इस बार साढ़े आठ के करीब खुली। घुमक्कड़ी में भी आलस की काफी सम्भावना हो सकती है अगर आपका निश्चय दृढ हो।  जैसे कई बार दाग अच्छे होते हैं वैसे कई बार आलस भी बड़ा अच्छा होता है। 

खैर,अब मैं उठ चुका था। कम्बल किनारे डाला। उठकर सैंडल पहने और उतरकर बाथरूम गया। उधर लघुशंका से निवृत्त हुआ और फिर लौटकर अपनी सीट पर पुनः बैठ गया। अब मेरा सोन का इरादा नहीं था। एक चाय वाले भाई को भी शायद इस बात का भान हो गया था और इसलिए कदाचित वो उधर अवतरित हुए। मैंने उनसे चाय मांगी और चाय की चुस्कियाँ लेते हुए ठंड भगाने लगा और उपन्यास के पृष्ठ पलटने लगा। एक बार की चाय समाप्त हो चुकी थी। वो भाई अब दूसरी बोगियों में चले गए थे। मैं उनके लौटने का इंतजार करने लगा। एक चाय से अपना क्या होता भला।

करीब नौ बजे करीव वो दोबारा आये और मैंने एक और चाय उनसे ली। यह चाय खत्म करी तो पूरा आनंद आया। 


चाय, उपन्यास, ट्रेन की खड़खड़ाहट और सुकून


अब मैंने नीचे देखा तो पाया कि नीचे वाली सीट में मौजूद लोग अपना सामान बांध रहे थे। मिडिल बर्थ गिरा दी गई थी और उधर बैठने का स्थान था। मैंने फिर सैंडल पहना और नीचे उतर गया। अब बाकी का उपन्यास नीचे खिड़की पर बैठकर पढ़ने का इरादा था।

नीचे उतरा। कम्बल बैग में तय करके डाला। मेरे सीट के नीचे वाली लोअर बर्थ में कोई सो रखा था लेकिन मिडल बर्थ खाली थी। अपना पैक्ड बैग उधर डाला और सीट पर बैठकर उपन्यास पढ़ने लगा। एक स्टेशन आया जिधर कुछ लोग उतरे, गाड़ी चली और फिर मैं उपन्यास पढ़ने में तल्लीन हो गया। फिर कुछ देर में मन मे ख्याल कौंधा की हम किधर हैं। ट्रैन स्टेटस.इन्फो खोलकर देखा तो पता लगा कि अभी जोधपुर कैंट आने वाला है। ट्रैन ने जोधपुर जंक्शन सवा दस बजे पहुँचना था। मैं निश्चिन्त होकर उपन्यास पढ़ने लगा। फिर एक और स्टेशन आया और गाड़ी रुक गई। मैं अपने उपन्यास में ही खोया हुआ था।

तभी एक आवाज़ ने मेरा ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया।

“भाई,साहब ये जोधपुर है क्या?” मुझसे पूछा गया तो मैंने नज़रें उठाकर प्रश्नकर्ता को देखा। मैंने कुछ देर ही पहले स्टेटस देखा था तो बड़े आत्मविश्वास के साथ कहा- “नहीं जोधपुर कैंट है शायद। अभी तो हमारा स्टेशन आने में वक्त है। ट्रेन के पहुँचने का वक्त सवा दस का है।”
उन्होंने बाहर झाँका तो कहा -” इधर तो कैंट नहीं लिखा है।केवल जोधपुर लिखा है।”
मैन भी देखा। उनकी बात सही थी। मैंने भी कंधे उचकाकर अपनी संशय की स्थिति दर्शायी। तभी एक भाई साहब जो उधर से सामान लेकर गुजर रहे थे बोले- “ये जोधपुर ही है। इसने जल्दी पहुँचा दी आज। आगे कहीं नहीं जाएगी ट्रैन। देखो लाइट बन्द करने वाला भी आएगा।”
उसका यह कहना था कि एक व्यक्ति ने बोगी की लाइट बन्द कर दी। अब मन में कोई संशय नहीं था। हम अपने गन्तव्य स्थल यानी जोधपुर पहुँच गये थे। मैंने अपना सामान समेटा और फिर ट्रेन से उतर गया। मिडिल बर्थ में सोये हुए सज्जन को भी उनके साथी उठाने लगे थे।


प्लेटफार्म पर अपनी सवारी। है बहुत भारी।
शाम को राकेश भाई से बात हुई थी तो उन्होंने कहा था कि मेरे लिए कोई सरप्राईज़ इंतजार कर रहा है। मैं उस वक्त सोच रहा था कि चूँकि उन्होंने यूट्यूब चैनल शुरू कर दिया है तो शायद उन्होंने एक गो प्रो टाइप का कैमरा ले लिया होगा। उतरकर मैंने सोचा कि राकेश भाई को कॉल लगाया जाए। उन्हें कॉल लगाया तो पता लगा कि वो बस से आ रहे थे। मुझे हैरानी हुई। राकेश भाई तो सूरत से बाइक पर चले थे। बातचीत हुई तो पूरा मसला समझ गया।

बाइक को किसी ने टक्कर मार दी थी। बाइक की हालत खराब थी और बाइक उन्होंने पहले ही जोधपुर के किसी गेराज में पहुँचा दी थी और वो खुद आधा एक घण्टे में वो पहुंचने वाले थे। पहले तो मुझे समझ ही नहीं आया कि क्या बोलूँ। मैंने उनके हाल चाल पूछे तो उन्होंने बताया कि जब ये हुआ तब सौभाग्यवश वो बाइक पर नहीं थे।मैंने एक राहत की साँस ली और फिर उनसे बोला कि जब वो पहुँचे तो मुझे बता देना। उन्होंने इस बात पर सहमति जताई और मैंने फोन रख दिया। मुझे  यह सरप्राइज़ मिलेगा इसकी कल्पना भी मैंने नहीं की थी। हम क्या सोचते हैं और न जाने क्या क्या हो जाता है। यही चीज मैं काफी देर तक सोचता रहा।

अब क्या किया जाए। ये प्रश्न मन में कुलबुला रहा था। मेरी एक आदत है कि जब भी रेलवे स्टेशन उतरता हूँ तब  उधर मौजूद बुक स्टाल पर जाता हूँ। स्टाल पर मौजूद किताबें देखकर उनमें से कुछ अच्छी सी जासूसी की किताबें चुनना मुझे अच्छा लगता है। इसलिए बिना ज्यादा सोच विचार किये मैंने यही करने का फैसला किया। परेशान होकर करना भी क्या था। राकेश भाई से  मिलूँगा तो पूरी बात पता चलेगी और आगे क्या करना है इस पर चर्चा होगी।

मैंने आसपास देखा कहीं कोई स्टाल नहीं था। फिर सामने देखा तो एक नम्बर प्लेटफार्म पर काफी स्टाल थे। हो सकता है उधर कोई ए एच व्हीलर की शॉप हो। अगर वो नहीं भी होगी तो चाय तो मिल ही जाएगी। यह सोचकर मैं ओवरब्रिज की सीढ़ियों की तरफ बढ़ा।  सीढ़ियों पर कुछ लिखा हुआ था जिसने मेरा ध्यान आकृष्ट किया। सीढ़ियों का यह अच्छा प्रयोग था।सीढ़ियां चढ़कर मैं ओवर ब्रिज पर पहुँचा। उधर से भी एक दो फोटो लिए और फिर उतरकर प्लेटफार्म पर पहुँच गया।

रात  को भले ही मुझे ठंड लग रही थी लेकिन अभी ऐसा कुछ नहीं था। एक नम्बर प्लेटफार्म पर मुझे कोई ए एच व्हीलर की शॉप तो नहीं मिली लेकिन लिफ्ट में बनी तस्वीर ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया। ऐसा लग रहा था जैसे किले का द्वार हो। लिफ्ट के द्वार के दोनों तरफ सिपाही भी मौजूद थे। दूसरे सैलानी भी इसे देखकर खुश हो रहे थे और इसके सामने तस्वीर खिंचा रहे थे। मैंने भी इसकी तस्वीर निकाली और स्टेशन से बाहर आया।

संदेश वाली सीढ़ी

ओवर ब्रिज से दिखता रेलवे स्टेशन 


प्लेटफार्म नम्बर एक जहाँ मुझे स्टाल दिखे थे 
लिफ्ट और कुछ सैलानी 
स्टेशन से बाहर ऑटो वाले कई भाई मुझसे टकराये लेकिन सबको मना करता हुआ मैं पहले चाय की दुकान पर आया। उधर एक चाय पी। चाय तगड़ी थी। मज़ा आया। फिर मैंने जोधपुर स्टेशन की तस्वीर निकलने की सोची। 
जिस प्रकार जयपुर को पिंक सिटी कहा गया है उसी प्रकार जोधपुर को अपने मकानों के नीले रंग के लिए ब्लू सिटी  कहते हैं। ब्लू सिटी के अलावा इसको सन सिटी भी कहा जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि पूरे वर्ष भर इधर सूर्य चमचमाता रहता है। इसी चीज को दर्शाने के लिए वेलकम टू सन सिटी का बोर्ड बाहर लगा था जो कि आकर्षक था। मैंने उसकी तस्वीर निकाली।

इसके अलावा स्टेशन में एक ट्रेन का सजावटी डिब्बा भी था। उसकी भी मैंने तस्वीर निकाली।

स्टेशन में मौजूद चीजों की तीन चार तस्वीरें निकालने के बाद मैं दोबारा चाय की दुकान की तरफ बढ़ गया। मुझे अब भूख लग गई  थी।

पहुँच गये सूर्य नगरी 

जोधपुर का रेलवे स्टेशन 

बाहर चौक पर लगी एक मूर्ती 

स्टेशन में मौजूद एक रेल डिब्बा 

मैंने एक चाय और एक कचौड़ी का आर्डर दिया। मैंने ये आर्डर दिया ही था कि एक महिला आ गयीं  और खाने के लिए पैसे माँगने लगीं। सुबह का वक्त था तो मैंने 10 रुपये दिए और वो चले गए। फिर मैंने चाय कचौड़ी खाई। चाय अच्छी थी तो कचौड़ी खाने के बाद एक चाय और ली। 

राकेश भाई को कॉल किया तो उन्होंने बताया कि वो पहुँच चुके हैं। मैंने राकेश भाई को लोकेशन बताने को कहा। उन्होंने पांच मिनट बाद बताने को कहा। तब तक इंतजार करना था।सामने सुलभ शौचालय था तो सोचा फ्रेश ही हो लिया जाये। फिर न जाने मौका मिले न मिले। उधर जाकर  फ्रेश हुआ। उधर साफ़ सफाई थी। झाँसी की यात्रा के दौरान जैसा अनुभव मुझे नहीं हुआ। 

उधर से बाहर आकर राकेश भाई को कॉल किया तो उन्होंने बताया कि वो आखलिया चौराहा पे हैं। अब मुझे उधर पहुंचना था।

मैं रेलवे स्टेशन से निकला तो उधर एक ऑटो वाले अंकल थे। उन्हें आखलिया चौराहा के विषय में पूछा। उन्होंने बताया कि उन्हें पता है तो मैं उसमें बैठ गया। आखलिया चौराहा स्टेशन से कुछ तीन साढ़े तीन किलोमीटर था। दस-पन्द्रह मिनट में मैं आखलिया चौराहा पर था। 



उधर से राकेश भाई की लोकेशन पर पहुँचने में मुश्किल से दस मिनट लगे होंगे। उनसे मिला। वो सर्विस सेंटर पर ही थे। बाइक का जायजा लिया तो उसकी हालत वाकई खराब थी। आगे का हिस्सा हैंडल समेत काफी टूट फूट गया था। उनसे पूछा कि अब आगे का क्या विचार है?

उन्होंने बताया कि इंश्योरेंस का सर्वेयर आयेगा। वो डैमेज का जायजा लेगा और फिर क्लेम वेरीफाई करेगा। जेम्स हेडली चेस के कई उपन्यासों में इन्शुरन्स डिटेक्टिव के विषय में पढ़ चुका हूँ। ऐसा ही अक्स मेरे दिमाग में उभरा।  

उस वक्त ग्यारह बजे थे और इंश्योरंस वाले ने तीन बजे आना था। राकेश भाई ने कहा कि हम चाहे तो घूम सकते हैं लेकिन फिर मैंने पूछा कि इंश्योरेंस वाले को हैंडल भी करना जरूरी है तो उन्होंने कहा कि वो भी है। इसलिए हमने जोधपुर घूमने का प्लान त्याग दिया। वैसे भी तीन बजे तक लौटना होता और इस चक्कर में बिना बात की भागादौड़ी हो जाती।

हमने उधर भी एक बार चाय पी। इंश्योरंस वाले से बात की। उसने तीन बजे आने को कहा लेकिन वो चार बजे तक आया। तब तक हमने लंच कर लिया था और दो  बार की चाय पी ली थी। साढ़े चार पांच बजे तक हम फ्री हो चुके थे।

लंच पराठे और दही 

चौधरी भोजनालय जहाँ हमे लंच किया 
अब उधर कुछ काम नहीं रहा था। हमने अब जैसलमेर जाने का फैसला कर लिया था। हमने सामान उठाया,सर्विस सेंटर वालों से बस स्टैंड के विषय मे पता किया। बस स्टैंड ज्यादा दूर नहीं था तो उस तरफ बढ़ चले। कुछ देर में हम बस स्टैंड पर थे। उधर गाड़ियों का पता किया तो एक 6 बजे की बस थी। उसमें दो स्लीपर के टिकट बुक करवाये क्योंकि वही मिल रहे थे। साढ़े पांच हो रहे थे तो कम ही  वक्त काटना था। 
बस स्टैंड के अंदर छोटा सा मार्किट बना हुआ था। मोबाइल रिचार्ज, प्लास्टिक के खिलौनों की दुकान, मिठाई इत्यादि की दुकान उधर थी। मुझे लगा किताबों की दुकान भी होगी लेकिन इस मामले में मुझे निराशा ही हाथ लगी।

टिकट करके हम स्टैंड के बाहर मौजूद चाय वाले से चाय पीने लगे। चाय और बिस्कुट खाया। फिर अंदर गए। उधर मूत्रालय में मूत्र त्याग किया। इस मूत्रालय की हालत ज्यादा खराब थी। 

स्टैंड में लगी बसें 

तस्वीरें उतारने में मशगूल राकेश भाई
खैर,तब तक गाड़ी भी लग गयी थी। हमने अपना सामान अंदर डाला। अभी गर्मी लग रही थी तो सोचा अंदर बैठकर कोई फायदा नहीं है।जब तक गाड़ी चलती रही तब तक बाहर ही रहे। एक आध बार की चाय और पी। इस बार हमने दुकान से नमकीन भी ले लिए थे। चाय के साथ वही खाए। हमने चाय पी ही थी कि गाड़ी चलने को तैयार हो गयी।

हम उसमें बैठ गए। मैंने सोचा था कि उसमें बैठकर उपन्यास पढूँगा लेकिन ऐसा मौका नहीं लगा। उधर इतनी जगह थी ही नहीं। फिर मुझे नींद आ गयी और सीधा जैसलमेर में नींद खुली।

हमारा होटल पहले से ही बुक था। हमे हनुमान चौराहा उतारा गया। उधर से होटल आधा एक किलोमीटेट दिखा रहा था। हम उधर की तरफ बढ़ चले। भले ही रात हो गई थी लेकिन जगह चमक रही थी। नया साल आने वाला था शायद इसलिए लड़ियाँ भी लगाई हुई थी।

सजा हुआ चौक

सजे हुए द्वार 
कुछ ही देर में चलकर हम होटल में पहुंच गए थे।

होटल जैसलमेर फोर्ट यानी सोनार किले के नीचे ही था। किला रात में रोशन था। किले की दीवार हमे दिख रही थीं जो कि रात की रॉशनी में बड़ी मन मोहने वाली लग रही थी। राकेश भाई और मैंने उसकी काफी तस्वीरें निकाली।

सोनार किला की तस्वीर उतारते राकेश भाई 

रात में चमचमाता सोने का किला
हमने जी भरकर सोने के किले की तस्वीर खींची और जब मन भर गया तो फिर राकेश भाई ने रूम का चार्ज सम्भाला। उन्होंने ही कमरा बुक किया था तो बातचीत उनको ही करनी थी। वैसे भी बातचीत के मामले में मैं हमेशा पीछे ही रहता हूँ। खैर, बातचीत हुई, हमे कमरे की चाबी मिली। ताला खोला गया और हम कमरे में दाखिल हुए। अपना सामान हमने अपने कमरे में रखा और थोड़ा आराम किया।

अब हमें भूख भी लगने लगी थी। होटल वालों से पता किया तो उधर कुछ मिलने के आसार नहीं थे। हमने बाहर जाकर खाने की सोची। वैसे तो रात के बारह एक बजे कुछ मिलने के आसार कम थे। हमने सोचा कि शायद चौराहे पर कुछ मिले। उसकी भी कोई गारंटी नहीं थी। राकेश भाई की तो यही योजना थी। 

मैंने रास्ते मे एक बेकरी देखी थी तो मैंने ये आईडिया सरकाया कि हम उधर को चलते हैं। बेकरी वाले बेकरी बंद ही कर रहे थे। अब अगर उसे छोड़कर हम चौराहे पर जाते तो शायद उधर मिलता। मिलता तो ठीक लेकिन अगर नहीं मिलता तो ये भी तब तक बंद हो जाती। मुझे यकीन था  उधर कुछ न कुछ मिल जाएगा। बेकरी तक पहुँचे और अंदर दाखिल हुए। 

उम्मीद के हिसाब से हमे उधर काफी कुछ मिल गया।

उधर हमने एक एक पेस्ट्री खाई और कुछ सामान लेकर वापस होटल पहुँचे। सामान एक ब्राउन ब्रेड का पैकेट, दो फ्रूट केक,एक मक्खन का पैकेट और एक लीटर दूध का टेट्रापैक  और दो गिलास थे। आज यही डिनर होने वाला था।
लौटकर हाथ मुँह धोया  और दबाकर खाया। अब सोने की बारी थी। सुबह जैसलमेर घूमना था। मैंने थोड़ी देर उपन्यास के पन्ने पलटे जब नींद आने लगी तो लाइट बंद करके लेट गया। राकेश भाई पहले ही सो गए थे। सोने से पहले मैंने सुपरनैचुरल का एक एपिसोड भी देखा। लाइट बन्द करके सोने से पहले भूतिया नाटक देखने का मज़ा ही कुछ और है।

एपिसोड खत्म करके मुझे नींद कब आ गयी मुझे पता ही नहीं लगा।

क्रमशः


#पढ़ते_रहिये_घूमते_रहिये
#फक्कड़_घुमक्कड़

© विकास नैनवाल 'अंजान'

10 टिप्पणियाँ

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  1. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 30/03/2019 की बुलेटिन, " सांसद का चुनाव और जेड प्लस सुरक्षा - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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    1. बुलेटिन में मेरी पोस्ट को स्थान देने का शुक्रिया, शिवम जी।

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  2. उम्दा यात्रा वृत्तांतऔर फोटोज के साथ बेहतरीन जानकारी ।

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  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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