जोधपुर जैसलमेर की घुमक्कड़ी #1: गुरुग्राम से सराय रोहिल्ला

झाँसी और ओरछा की घुमक्कड़ी हो गई थी। इसके बाद नये साल का कुछ प्लान न था। ऐसे में 23 को राकेश भाई से बात हुई और बात होते होते प्लान बन गया कि जैसलमेर और जोधपुर घूम आते हैं। पहले रण ऑफ़ कच्छ का विचार था लेकिन उसके पास भुज पड़ता है तो वो नहीं देख पाते। ऐसे में राकेश भाई ने ही जैसलमेर सुझाया और वो मुझे भी ठीक लगा। मेरी भी 29 से छुट्टी थी ही। बीच में एक दिन की छुट्टी ली जा सकती थी तो हमने आखिरकार जोधपुर और जैसलमेर को लॉक कर दिया।

जोधपुर का  मेहराणा किला मैं एक बार पहले भी देख चुका था लेकिन जैसलमेर देखने का मौका नहीं मिला था। यही कारण था कि मैं उत्साहित था। मैंने अपना टिकट करवाया और राकेश भाई को इसके विषय में बताया। राकेश भाई सूरत से बाइक से आने वाले थे। मोटा मोटी योजना ये थी कि राकेश भाई जोधपुर आयेंगे। 29 दिसम्बर  को हम जोधपुर देखेंगे। 30 की सुबह को हो जैसलमेर के लिए निकलेंगे और और 31, 1 को जैसलमेर देखेंगे। एक तारीक को मैं जैसलमेर से गाड़ी पकड़ कर वापिस गुडगाँव के लिए चल निकलूँगा। अभी ये ही योजना थी। इस योजना में ये शामिल नहीं किया था कि क्या क्या देखूँगा। बस इस हिसाब से जो चीज बिना भाग दौड़ के दिख जाये वही देखी जानी थी।

अब 28 तारीक का इन्तजार था।



28/12/2018

गुरुग्राम से सराय रोहिल्ला

कहते हैं जब जल्दी जाना होता है तब ही कुछ न कुछ होने लगता है। मैंने सोचा था कि दफ्तर से जल्दी निकलूँगा और इस बात पर अमल करते हुए साढ़े पांच बजे भी निकल गया था। लेकिन फिर कुछ बातें ऐसी हुई कि मुझे वापस आना पड़ा।चाबी जो पहले ही ली जानी चाहिए थी वो दोबारा देने आना पड़ा। फिर आफिस से काम ऐसा आ गया कि मुझे रूम में पहुँचकर काम करना पड़ा। पौने आठ तक वही काम किया। फिर शेव किया , नहाया, धोया, बैग पैक किया और साढ़े आठ बजे करीब रूम से निकला।

इस बार यात्रा में एक विशेष किताब ले जा रहा था। वह थी सत्यजित राय साहब की सोने का किला। मैंने जब यह किताब ली थी तो मन में सोच लिया था कि इसको जैसलमेर के सोने के किले के सामने जाकर ही पढ़ना शुरू करूँगा।  तब से यह किताब मेरे पास ऐसे ही रखी हुई थी और अब जाकर इसको पढने का मौक़ा लगा था। मैंने इसे खोना नहीं चाहता था। इस किताब को ढूँढने में भी मुझे वक्त लगा था लेकिन फिर मिल ही गई थी और मैंने इसे अपने बैग में रख लिया था। अब पास एक ही परेशानी थी।

मैंने आजतक सराय रोहिल्ला से कोई यात्रा शुरू नहीं की थी तो मुझे उधर जाने का अंदाजा नहीं था। गूगल के हिसाब से ही मैं चल रहा था। गूगल मुझे डेढ़ घंटे दिखा रहा था। आठ बज गये थे। बस स्टैंड पहुँचने में आधा घंटे लगते। उधर से एमजी रोड पहुँचने में और वक्त लगता। एम जी रोड में सप्ताहंत में भीड़ रहती है तो प्लेटफार्म तक जाने में वक्त लग सकता था। फिर एमजी रोड से डेढ़ घंटा लगता। यानी गूगल के हिसाब से चलते हुए मैं किसी भी हालत में साढ़े दस बजे से पहले  शास्त्री नगर नहीं पहुँच सकता था। फिर उधर से न जाने कितना वक्त सराय रोहिल्ला तक लगता। मैं घबराया हुआ था।

बीच में मुझे अपना बोर्डिंग बदलने का ध्यान भी आया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। मुझे पता नहीं था कि बोर्डिंग चौबीस घंटे पहले ही बदली जा सकती थी। अगर पता होता तो गुरुग्राम ही बोर्डिंग रख देता।मैंने अपनी बेवकूफी पर खुद को कोसा कि क्यों नहीं पहले ही रूट देख लिया। रूट देख लेता तो आराम से स्टेशन गुरुग्राम रख देता और इतनी भाग दौड़ नहीं करनी पड़ती। लेकिन कोसने से क्या हो सकता था। अब मेरा सराय रोहिल्ला से चढ़ना जरूरी हो गया था। अब जो होता देखा जाता।

रूम से साझा रिक्शा में पहले बस स्टैंड और फिर उधर से एम जी रोड के लिए साझा ऑटो लिया। एम जी रोड में अक्सर भीड़ मिलती है तो जैसे ही पता लगा कि ऑटो सिकंदरपुर के लिए जाएगा  वैसे ही मैंने उधर जाने का निर्णय ले लिया। अब ऑटो सिकंदरपुर रुका। उधर उम्मीद के हिसाब से भीड़ कम थी और इसलिए से आसानी से प्लेटफार्म पहुँच गया। मेट्रो आई और उसमें चढ़ गया।

मुझे मेट्रो से पहले कश्मीरी गेट तक जाना था और उधर से शास्त्री नगर  तक जाना था। ट्रैन सवा ग्यारह की थी और मैं उम्मीद कर रहा था कि वक्त पर मैं उधर पहुँच जाऊँ।

खैर, अब मेट्रो में था तो और कुछ कर नहीं सकता था। मेरी यात्रा का शुरू होना न होना अब इस मेट्रो के हाथ में था। मेट्रो में मुझे काफी लोग दिख रहे थे जिन्होंने बैग पैक लटका रखे थे। उन्हें देखकर अंदाजा लगाया जा सकता था  कि वो भी कहीं न कहीं न्यू इयर मनाने जा रहे थे। बढ़िया था। मैं भी अपनी यात्रा शुरू कर पाऊं यही विचार मेरे मन में था। लेकिन ज्यादा सोचकर कोई फायदा न था।

इसलिए मैंने किताब निकाल ली और उसे पढ़ने लगा।।

इस बार मैं फ्रांसिस डरब्रिज का उपन्यास बैट आउट ऑफ हेल पढ़ रहा था। कथानक कुछ ऐसा है। जॉफेरी स्टीवर्ट और डायना स्टीवर्ट की शादी को चार साल हो चुके हैं और इन चार सालों में दोनों के बीच का प्रेम गायब हो चुका है। डायना का अफेयर जॉफरी के मातहत मार्क पैक्सटन से चल रहा है। दोनों एक योजना बनाते हैं जिसके तहत वो जॉफरी को रास्ते से हटा देते हैं।जॉफरी को हटाने की योजना तो सफल हो जाती है,उसकी लाश भी मिल जाती है लेकिन फिर जॉफरी डायना को फोन करने लगता है।

जब जॉफरी मर गया था तो उन्हें कॉल कौन कर रहा है? यह प्रश्न डायना और मार्क की चूलें हिला देता है।

वहीं इंस्पेक्टर क्ले जो जॉफरी के गायब होने के मामले की तहकीकात पर काम कर रहा होता है वो इस बात के पीछे पड़ जाता है कि जॉफरी के कत्ल के पीछे किसका हाथ था? क्या क्ले इसका पता लगा पायेगा?

यही उपनयास का कथानक था और सिकंदरपुर से कश्मीरी गेट तक पहुँचते पहुँचते मैंने पचास पृष्ठ पढ़ ही लिए थे।रोमांच बरकरार था। कश्मीरी गेट आया तो रेड लाइन वाली मेट्रो की तरफ गया। उधर से रिठाला की तरफ जाती मेट्रो पकड़ी। मेरा स्टेशन चौथा था। मैं इधर भी उपन्यास पढ़ना चाहता था लेकिन बार बार मेरी नज़र घड़ी पर चली जाती। समय पर पहुँच पाऊँगा या नहीं यही बात मन में आ रही थी इसलिए पढने पर ध्यान लगाना मुश्किल था। स्टेशन भी नजदीक ही था और इस कारण मैंने किताब बैग में डाल दी। अब पढ़ना होगा तो स्टेशन पहुँच कर ही पढूँगा।

जल्द ही शास्त्री नगर स्टेशन में पहुँच चुका था। एक नम्बर गेट से निकला तो उधर इलेक्ट्रिक रिक्शा वाले भाई लोग लगे हुए थे। एक सवारी बची थी तो मैं उस पर चढ़ गया और आखिरकर वक्त से काफी पहले सराय रोहिल्ला स्टेशन पहुँच गया।

स्टेशन पहुंचकर एक दो फ़ोटो लिए। मैं स्टेशन में उस तरफ से आया था जिधर नज़दीक लास्ट वाला प्लेटफार्म पड़ता है। मैं ऊपर चढ़ा तो पता लगा कि मेरी गाड़ी 1 नम्बर प्लेटफार्म पर आएगी। मैं उधर को बढ़ चला।

पहुँच गये सराय रोहिल्ला स्टेशन 

प्लेटफार्म की तरफ बढ़ते हुए 

आ गया अपना प्लेटफार्म 



एक नम्बर प्लेटफार्म पर उतरा तो एक गाड़ी उधर लगी हुई थी। वो मेरी नहीं थी। 10:25 पर उसे निकलना था। मैं प्लेटफार्म में घूमकर कोई बुक स्टाल खोजने लगा? इधर उधर घूमा लेकिन स्टाल नहीं मिला। हाँ, प्लेटफार्म पर एक छोटा सा मंदिर जरूर बना था। प्लेटफार्म में एक पीपल का पेड़ रहा होगा तो उसके इर्द गिर्द ही यह मंदिर बना था। मंदिर का फोटो उतारा और वापिस आ गया।

पीपलेश्वर मंदिर 


 उधर ही एक चाय वाले महाशय थे। उनसे चाय के विषय में पूछा तो वो पहले कॉफ़ी बनाने में व्यस्त थे। चाय के विषय में उनसे पूछा तो उन्होंने थोडा इंतजार करने को मुझसे कहा। अब उनकी सुननी ही थी तो मैंने घर फोन लगा दिया और मम्मी से बात करने लगा।

अब बात करते करते चाय का इंतजार करने लगा। बात खत्म करी लेकिन चाय नहीं बनी। दस पचास हुए लेकिन चाय नहीं बनी। मेरी गाड़ी आयी लेकिन चाय नहीं बनी। मैं गाड़ी की ओर बढ़ा ही था कि देखा मेरे पीछे हलचल होने लगी है। मैंने मुड़कर देखा तो वो चाय देने लग गए थे और मेरे जैसे इन्तजार करने वाले चाय के कप लेने लग गये थे। मैंने वक्त देखा। अभी गाड़ी चलने में दस मिनट थे। यह देख मैंने सोचा कि अब तो चाय पीकर ही गाड़ी पर चढूँगा। मैं चाय की दुकान पर वापस गया। एक चाय ली और उसे चुसक्ता हुआ एस 2 की तरफ बढ़ने लगा। क्यों? क्योंकि एस 2 की 67 सीट मेरी थी।

एस 2 के सामने पहुँचकर चाय का आखिरी घूँट भरा और फिर बोगी में दाखिल हुआ। बड़े जोर से लघु शंका आ रही थी। पहले वो निपटाया और फिर अपनी सीट के नज़दीक पहुँचा। उधर एक दानवीर कर्ण टाइप व्यक्ति मिले: “भैया,आपकी कौन सी सीट है?”,उन्होंने मुझसे कहा।
मैं-”अप्पर बर्थ।”
वो: “ओह! मैं आपको अपनी लोअर बर्थ देने के लिए तैयार हूँ। एक्सचेंज कर लोगे।”
मैं मुस्करसते हुए-”भाई,मैंने जान बूझकर अप्पर बर्थ ली है।”
“ओह”, वो बस यही कह पाए।

प्लेटफार्म में खड़ी ट्रेन 

चढ़ गये अपनी सीट पर...स्लीपर के पंखे तो देखो 

यात्रा के साथी 

मैं ऊपर चढ़ गया।मैंने बैग से कम्बल निकाला और थोड़ी देर किताब पढ़ी। फिर मैंने अपना फोन निकाला तो राकेश भाई का मेसेज आया था। उन्होंने पूछा कि मैं निकल गया तो मैंने कहा कि ट्रेन सवा ग्यारह की है। उन्होंने कहा कि आइये आइये आपके लिए कोई सरप्राइज वेट कर रहा है। मुझे लगा कि शायद कोई और भी इस ट्रिप में शामिल होगा। मैंने इस बात पूछा तो उन्होंने कहा कि दूसरा सरप्राइज़ है। कौन सा सरप्राइज़ हो सकता है? मैंने सोचा लेकिन मुझे कुछ सूझा नहीं। मैंने सोचा कि सुबह ही पूछा जायेगा। जोध पुर में तो मिलना ही था। मैं आस पास  की फोटोग्राफी करने लगा।

थोड़ी फोटो उतारने के बाद कम्बल निकाला और फिर किताब के कुछ पन्ने पढने लगा। किताब पढ़ते पढ़ते कब नींद आ गयी पता ही नहीं चला।

नींद तब टूटी जब टी टी महोदय आये। उन्होंने आईडी मांगी और मैंने उन्हें दी। फिर उन्होंने आईडी लौटाई और मैं नींद के आगोश में समा गया।

उस वक्त मन के किसी कोने में बस एक हल्का सा यही ख्याल था कि न जाने राकेश भाई क्या सरप्राइज देने वाले हैं।

फिर मैंने जम्हाई ली और नींद की ऐसी लहर आई कि उसने  मन के किनारे पर उभरे हुए इस सवाल को मिटा रेत पर लिखी तहरीर की तरह मिटा दिया और मेरी पलके दोबारा बंद होने लगी।

अब जो होता सुबह ही होता। यात्रा तो शुरू हो ही चुकी थी।
अब सोता हूँ अगली कड़ी में मिलूँगा 


8 टिप्पणियाँ

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  1. रोचक और दिलचस्प वर्णन है।
    आगामी किश्त का इंतजार है।

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 10/03/2019 की बुलेटिन, " एक कहानी - मानवाधिकार बनाम कुत्ताधिकार “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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    1. बुलेटिन में मेरे ब्लॉग पोस्ट को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार।

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  3. यात्रा की शुरुआत रोचक है । आगे कड़ियों की प्रतीक्षा रहेगी ।

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  4. राकेश भाई को ट्रेन से कुछ दिक्कत है क्या...जहा देखो बिहार सिक्किम जहा देखो वहां बाइक से निकल जाते है. ..पहले ट्रैन पकड़ने का रोमांच फिर सस्पेंस थ्रिलर किताब का एडवेंचर....सरप्राइज भी वैट कर रहा है...बढ़िया आखरी लाइन चलो अब में सोता हु अगली कड़ी में मिलूंगा...बढ़िया पोस्ट...

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    1. राकेश भाई स्वछन्द हवा के झोंके हैं, ट्रेन उन्हें बाधित करती है। पिछले जन्म में वो एक राजा के गुप्तचर थे कदाचित। इधर से उधर घोड़े में डोला करते थे। इस जन्म में लोहे के घोड़े में डोलते आभार आपका। आपकी टिप्पणी विस्तार से लिखी होती है तो इसका हमेशा से इन्तजार रहता है।

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