झाँसी और ओरछा की घुमक्कड़ी #4: ओरछा किला

3/12/2018

झाँसी का किला और रानी महल देखकर हम अपनी अगली मंजिल की तरफ बढ़ चले थे। यहाँ तक आपने पिछली कड़ी में पढ़ा। अब आगे:
जहाँगीर महल की छत से दिखता राज महल और चतुर्भुज मंदिर 





रानी महल से ओरछा

हम बाइक पर सवार थे। अब हमे ओरछा की तरफ बढ़ना था। गूगल मैप बता रहा था कि ओरछा रानी महल से 16-17 किलोमीटर के लगभग था। दिन का वक्त था। धूप होने लगी थी। मुझे भूख भी लग आई थी लेकिन हमने सोचा कि पहले इधर से निकल लेते हैं फिर कहीं आगे जाकर कोई टपरी मिलेगी तो चाय पियेंगे।

अभी हम शहर के बीच में थे। मैप के हिसाब से चलते हुए हमने रोड का एक सिरा लिया तो पता लगा गलत मुड़ गये हैं। वापस जाने को हो रहे थे कि मैप ने रास्ता बदलकर दिखा दिया कि हम उधर से ही आगे बढ़ सकते थे। अब हमे क्या दिक्कत थी। हम आगे बढ़ने लगे।

सड़क के दोनों तरफ मिठाई और खाने पीने की दुकान थी। दिल्ली की पराठे वाली गली याद आ रही थी। लेकिन हम बिना रुके आगे बढ़ते रहे। कुछ देर बाद शहर से बाहर आ गये थे। झाँसी का बस स्टैंड भी हमने पार कर लिया था। अब ओरछा वाली रोड पर हम बढ़ने लगे थे। रोड खाली थी कहीं भी किसी टपरी का नामो निशाँ नहीं था। हम रोड पर आगे बढ़ते  जा रहे थे। सड़क पर धूल  मिट्टी  थी जो कि गाड़ियों के आने जाने से उड़ती थी और हमारे ऊपर आने लगती थी। सड़क के हाल बेहाल तो था ही।

राकेश भाई ने बताया कि सूरत से गाँव जाते हुए जब वो चित्रकूट गये थे तो इसी रास्ते गये थे। पूरे मिटटी से सरोबोर हो चुके थे और थकान अलग हो चुकी थी। हमे तो खाली  ओरछा जाना था जो उधर से केवल दस पंद्रह किलोमीटर दूर था। चित्रकूट उधर से लगभग 290 किलोमीटर दूर था। लेकिन फिर राकेश भाई के लिए इतना सफ़र कोई बड़ी बात नहीं है। कभी कभी लगता है कि बाइक उनके शरीर का एक अंग ही है। कॉमिक्स में जैसे सुपर कमांडो ध्रुव है। बिना बाइक के उसकी कल्पना मुश्किल है। वही हाल राकेश भाई के साथ है। राकेश भाई का कोई नाम लेता है तो दिमाग में जो चित्र उभरता है उसमें बाइक होती ही होती है।

खैर, हम आगे बढ़े जा रहे थे। बीच में एक दो अच्छी जगहें आई थीं। कुछ बड़े रिसोर्ट भी रास्ते में पड़े थे। लेकिन ऐसी जगह हमे नहीं मिली जहाँ रुककर चाय पी जा सके। भूख भी अब लगने लगी थी। हम ओरछा शहर में दाखिल हुए तो कुछ होटल हमे दिखे। कुछ तो लॉज थे और एक के आगे रेस्टोरेंट लिखा था।मैंने उधर ही राकेश भाई को रोकने के लिए कहा।

मैं - “चलो इधर चाय पीते है और खाना खाते हैं।”
राकेश भाई-“होगा इसके पास?”
मैं- “रेस्टोरेंट तो लिखा है। देखने में क्या जा रहा है।”

और हम अंदर दाखिल हुए। एक लड़के ने हमे मेनू थमाए। हाथ मुँह धोने के पश्चात हमने उससे पहले चाय लाने को कहा। चाय आई। चाय पीकर दिल खुश हो गया। मसाले ढंग के पड़े थे और कड़क चाय थी। अब हम खाने के विषय में निर्धारित करने लगे। राकेश भाई रोटी खाते हैं और मैं चावल। मैंने चावल,दाल फ्राय मंगवाया और राकेश भाई ने रोटी और सब्जी मंगवाई। साथ में हमने एक ओम्लेट भी मंगवाया। चाय पीते हुए खाना आने का इन्तजार किया। हम रह रहकर बाहर भी देख रहे थे। कई विदेशी उधर घूम रहे थे। न मुझे और न राकेश भाई को ओरछा के विषय में ज्यादा जानकारी थी। जब तक खाना आता तब तक मैं विकिपीडिया में देखने लगा। कुछ किले और मंदिर दिखे। मैंने काफी पहले एक दो ब्लॉग ओरछा के विषय में पढ़े थे। तो मुझे ये तो याद था कि इधर ऐतिहासिक इमारतें काफी हैं। विकिपीडिया ने भी जानकारी में इजाफा किया। कभी कभी सोचता हूँ कि तकनीक ने घुमक्कड़ी कितनी आसान कर दी है। चुटकियों में सारी जानकारी मिल जाती है। कई लोग तो पहले से ही सब जानकारी इकठ्ठा करके और जगह मार्क करके आते हैं। वैसे ऐसे योजना के साथ आना अच्छा रहता है लेकिन मुझे ये पसंद नहीं। जब तक जरूरत न आन पड़े तब तक कुछ भी करने को मन नहीं मानता। इसलिए चूँकि अब जरूरत थी तो अब देख रहे थे।


अभी एक बजे का वक्त हो रहा था। शाम को मेरी ट्रेन भी थी।वैसे अभी टिकट करना भी रह गया था। यानी चार पाँच घंटे थे हमारे पास। मैं सभी चीजें नहीं देखना चाहता था। मैं चाह रहा था कि एक आध चीजें देखूँ लेकिन तसल्ली से देखूँ।

मुझे किले देखने में शुरू से रूचि रही है तो यह निर्धारित हुआ कि पहले हम किला देखेंगे। फिर वक्त मिला तो आस पास की चीजें देखेंगे। राकेश भाई को बेतवा नदी के तट पर मौजूद छतरी की तस्वीर भी उतारनी थी। लेकिन यह काम सूरज ढलने के वक्त होना था तो उसके लिए काफी वक्त था।

हमने चाय पी। खाना आया तो खाना खा लिया। खाना स्वादिष्ट था। भूख इतनी लगी थी कि फोटो खींचना याद ही नहीं रहा।पिछले रात को मैंने एक नमकीन का पैकेट खाया था। उसके बाद मैं चाय में ही चल रहा था। अब जाकर कुछ खाया था। यात्रा के दौरान मेरे साथ ऐसे ही होता है। मैं काफी कम मात्रा में खाकर भी अपना काम चला लेता हूँ। इससे पेट को आराम रहता है और घूमने फिरने में तकलीफ भी नहीं होती है।

अब हम खाना खा चुके थे। चाय इतनी बेहतरीन बनी थी कि हमने दुबारा एक चाय का आर्डर दिया। चाय आई और मजा आ गया। बेहतरीन चाय पीने में जो सुख है वो सचमुच अद्वितीय होता है। चाय चुसकते हुए हमने थोडा आस पास की चीजों पर बात की। मुझे मैत्रेयी पुष्प जी का उपन्यास 'बेतवा बहती रही' का ध्यान आ रहा था। अगर उसे मैं अपने साथ लाया होता तो बेतवा के किनारे बैठकर उसके कुछ पृष्ठ पढ़ लेता। मैत्रेयी जी भी बुन्देलखण्ड की ही हैं शायद।

खैर, अब ये इच्छा किसी और दिन पूरी करूँगा। राकेश भाई ने रेस्तौरेंट वाले भाई से ही ओरछा के किले के विषय में पूछा। उन्होने बताया वो नजदीक में ही है। यह भी बताया कि मंदिर समूह भी उसके नजदीक ही है। यह सुनकर हमारी बांछे खिल गई। अब चीजें देखने को ज्यादा दूर नहीं जाना होगा।काफी कुछ एक साथ ही देखने को मिल जायेगा। इससे हमारा वक्त ही बचेगा।

हमने भाई से उनकी चाय और खाने की तारीफ़ की। हमने बिल चुकाया। और तृप्त होकर अब हम आगे बढ़े।

खाने के बाद चाय का आनंद लेते हुए 

अब जब तक हम लोग ओरछा के किले में पहुँचते हैं तब तक आप ओरछा के विषय में निम्न बातें जान लीजिये:

  1. ओरछा मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले में मौजूद एक कस्बा है 
  2. इस कस्बे को बुंदेला राजपूत राजा  रूद्र प्रताप सिंह ने 1501 ई के आसपास में बसाया था  और फिर वो ही   इधर के पहले राजा भी बने 
  3. बेतवा नदी के किनारे बसा यह क़स्बा टीकमगढ़ से 80 किलोमीटर और झाँसी से 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है 

जल्द ही हम किले के सामने थे। हमारी बाइक सड़क पर थी। एक तरफ किला था और दूसरे तरफ मंदिर। हमने पहले किले में जाने का प्रोग्राम बनाया। मन्दिर वगेरह हम कम ही जाना पसंद करते हैं। और यह फैसला सही भी साबित हुआ क्योंकि मंदिर परिसर से आप छतरियों तक आराम से जा सकते हैं जब कि किला परिसर अलग ही है। अगर आप उधर जाएँ तो मेरी सलाह तो यही होगी कि पहले किला परिसर देखें और फिर आराम से मंदिरों से होते हुए छतरियों तक जाएँ और शाम को बेतवा के घाट पर बैठकर आराम करें।

किले की तरफ एक रोड जाती थी जिसके अगल बगल में कुछ ठेले लगे थे, कुछ दुकाने थीं जिनके पास खाने पीने का सामान मिल रहा था। राकेश भाई ने बाइक पार्क करी और हम लोगों ने एक एक कप चाय पी। यहाँ भी चाय तगड़ी बनी थी और चाय की चुस्कियाँ लेते हुए हमने घूमने का एक कच्चा कच्चा प्लान बनाया। पहले हम लोग किला देखेंगे। फिर वक्त मिला तो मन्दिर वगेरह। राकेश भाई को एक जगह जाना था। छतरी और बेतवा का फोटो खींचना था तो हमने सोचा कि किला देखने में वक्त लगेगा तो सीधा राकेश भाई वाली जगह चले जायेंगे और मंदिर को योजना से हटा देंगे। यह प्लान करके हम लोगों ने चाय के पैसे दिये और अब किले की तरफ बढ़ने लगे।

किले की दीवार में बन्दर समूह मटर गश्ती कर रहे थे। वो एक जगह से दूसरी जगह उछल कूद मचा रहे थे। हम गेट के अन्दर प्रविष्ट हुए तो एक व्यक्ति को हमने बंदर भगाते हुए पाया। मेरे दिमाग में कलसुबाई ट्रेक के दौरान हुआ वाक्या दौड़ गया। उधर ट्रेक से उतरते वक्त एक लड़की के पीछे पीछे बन्दर आ गया था और उस पर चढ़ने की कोशिश करने लगा था।लड़की का चिल्ला चिल्लाकर बुरा हाल था। बाकी डिटेल में क्या हुआ था ये तो उसी वृत्तांत में आपको पता चलेगा लेकिन राकेश भाई ने अपनी वीरता दिखाई थी, इस वक्त मैं इतना ही कह सकता हूँ। नीलकंठ महादेव ट्रेक के दौरान लंगूरों से मेरी भिडंत हुई थी। उसने भी मुझे डरा दिया था। इधर ऐसा न हो इसलिए मैं बच बच कर चल रहा था।

किले की ओर बढ़ते हुए 

हम किले के बाहरी हिस्से में पहुँचे। राकेश भाई ने पहले टिकट लिया। टिकट की कीमत साधारण थी। टिकट लेकर हम अन्दर दाखिल हुए। किले परिसर में पाँच से छः स्मारक हैं। किले के गेट पर मौजूद बोर्ड इसकी जानकारी दे देता है। चलिए अंदर चलते हैं और किले परिसर में मौजूद विभिन्न स्मारकों को देखते हैं।

किले के अंदर मौजूद विभिन्न स्मारकों के नाम बताता बोर्ड 

किले के परिसर में प्रवेश का दरवाजा 

सामने से दायें तरफ जायेंगे तो राज महल आएगा और सीधा जायेंगे तो शीश महल और जहाँगीर महल 

राज महल

हम राज महल में पहुँचे।  महल के बाहर एक शिलालेख है जिससे महल के विषय में मुख्य जानकारी मिलती है।
शिलालेख से राज महल के विषय में हमें निम्न जानकारी मिली:

  1. राज महल के निर्माण की नींव राजा रूद्र प्रताप सिंह(1501-1531 ई) ने रखी थी। 
  2. मुख्य भाग का निर्माण उनके सबसे बड़े पुत्र राजा भारती चन्द् (1531-1554 ई) के समय में हुआ। शेष महल का निर्माण राजा मधुकर शाह ने कराया।
  3. वर्गाकार आकर में निर्मित यह भवन पाँच मंजिला है।
  4. इसमें आवास कक्षों के अतिरित्क दीवान ए आम और दीवान ए ख़ास भी है। 
  5. भवनों में भित्त चित्रों का सुन्दर अंकन भी है। भित्त चित्रों को बुन्देली शैली में बनाया गया है। इन चित्रों में रामायण, महाभारत और अन्य पौराणिक घटनाओं को चित्रित किया गया है।
राज महल की जानकारी देता शिलालेख 

हमने टिकट दिखाया और फिर अंदर दाखिल हुए। अंदर हमारे आलावा कई और सैलानी थे। कुछ भारतीय सैलानी और कुछ चीनी सैलानी थे। चीनी सैलानियों के साथ स्थानीय गाइड ही थे जो चीनी में उनसे बतिया रहे थे।  चीनी भाषा मैंने फिल्मों में ही सुनी है आज भारतीय को बोलते हुए सुन रहा था। यह समूह मुझे इसलिए भी याद है क्योंकि समूह के साथ साथ एक युवती भी थी।  जब अचानक से मेरी नज़र उस पर पड़ी थी तो मैंने उसे पीछे से देखा था। उसके बालों की बनावट कुछ इस तरह से थी कि मेरे साथ कॉलेज में पढ़ने वाली एक लड़की की याद आ गई। कुछ देर के लिए तो मुझे लगा कि यह इधर क्या कर रही है। मैं अपनी सहपाठी जान उसकी तरफ बढ़ ही रहा था कि वो घूम गई और पता चला कि वो तो कोई चीनी थी। अच्छा हुआ मेरे बढ़ने से पहले ही मोहतरमा घूम गई वरना बेइज्जती हो जाती। कई बार ऐसा होता है कि आप किसी को देखते हो और वो पीछे से या साइड से किसी जानपहचान वाले की तरह लगता है/लगती है और जब आप उनका चेहरा देखते हो तो हैरान होकर यह सोचते हो कि दिमाग ने आपके साथ कैसा खेल खेला है। क्योंकि वो आदमी या महिला बिलकुल भी उनकी तरह नहीं होती है। खैर, वो युवती अपने समूह से अलग अलग ही घूम रही थी। और फिर जितनी देर मैं इस महल में रहा मेरी कोशिश रही कि मैं उधर न रहूँ जिधर वो थी क्योंकि न चाहते हुए भी आँखें उधर को उठ जाती थी। महल में इतने कमरे और इतनी चीजें  देखने को थी कि इस काम में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई।

 हमने कुल मिलाकर इधर बीस से पच्चीस मिनट गुजारे। आराम से हर मंजिल में गये और कमरों को देखते रहे। छत पर भी गये और उधर से आसपास के नजारों की तस्वीर भी खींची। क्योंकि भीड़ भाड़ नहीं थी तो आराम से इस काम को अंजाम दिया जा सका। अब आप भी कुछ चित्र देखिये।


राज महल का आँगन 

महल की दीवार पर बने चित्र 

कुछ और चित्र 

महल में बनी चित्रकारी 

राज महल के छत से दिखता महल का आँगन 
महल में एक मंजिल से दूसरी में जाने के लिए सीढ़ियाँ 

एक कोण से महल की तस्वीर 

राज महल से दिखता चतुर्भुज मंदिर 


जहाँगीर महल
राज महल देखने के पश्चात हम वापिस आ गये।  अब हमे जहाँगीर महल देखने जाना था। इधर भी गेट में टिकट चेक हुआ। इधर भी राज महल की तरह ही एक शिलालेख था जिसने महल के विषय में हमे निम्न जानकारियाँ दी:

  1. जहाँगीर महल का निर्माण वीर सिंह देव ने जहाँगीर के सम्मान में करवाया था
  2. यह महल वर्गाकार विन्यास में निर्मित है 
  3. इसका प्रवेश द्वार बेतवा की मुख्यधारा की ओर खुलता है
  4. महल में 136 कक्ष हैं और हर कक्ष में चित्रकारी की हुई थी लेकिन अब उसके अवशेष कुछ ही में बचे हैं 

राज महल के मुकाबले यह महल छोटा था और घूमने के लिए भी इतना कुछ नहीं था तो हमने इधर कम ही वक्त बिताया। पन्द्रह मिनट में हम इधर घूम लिए थे। इसके ही बगल में शीश महल था लेकिन वो होटल में तब्दील कर दिया जा चुका है। हमारा उधर जाने का कोई तुक नहीं था तो हम लोग दूसरे स्मारक देखने को चल दिये। 



सामने जहाँगीर महल है। बायें तरफ जो झंडे दिख रहे हैं वो शीश महल के हैं जो कि होटल बना हुआ है।

महल का आँगन 

दो दीवारों के जोड़ पर बने ये स्तम्भ मुझे आकर्षक  लग रहे थे। पहले मुझे लगा ये लकड़ी के बने होंगे लेकिन मुकेश जी की टिप्पणी  से ज्ञात हुआ कि यह पत्थर से निर्मित है और पत्थर की कारीगिरी ही जहांगीर महल की विशेषता है।  

छत से महल का एक भाग 

छत से दिखता महल का भाग 


दीवान ए आम 

जहाँगीर महल से निकलने के बाद हमे एक कमरे ने आकर्षित किया। यहाँ भी कुछ सैलानी थी। वो सेल्फियाँ खींचे जा रहे थे। पहले हमे समझ नहीं आया कि यह क्या है। अन्दर दाखिल हुए तो उधर एक बोर्ड लगा था जिसमें इसके विषय में बात पता चली। तब समझ आया कि यह दीवान ए आम था। फिर इधर भी घूमे और थोड़ी बहुत तस्वीर ली। इधर भी एक मंदिर मौजूद था तो उसकी भी तस्वीर ली।

  1. मुगल राज सभा से प्रेरित होकर राजा मधुकर शाह ने इस दीवान ए आम की स्थापना की थी।
  2. राजा इधर अपनी प्रजा से मिला करते थे और अपने न्यायिक और प्राशसनिक कार्यों को करते थे।
  3. राजा अपने निजी निवास से सीधा दीवान ए आम में प्रवेश कर सकते थे। 

दीवान ए आम 
दीवान ए आम में मौजूद मंदिर 

दीवान ए आम से निकलकर हम बाहर को आये तो तोप खाना के  बोर्ड ने आकर्षित किया। इधर कभी तोप रही होंगी लेकिन अभी कुछ न था। इसलिए तस्वीर लेकर हम आगे बढ़ गये। तोपखाना के पश्चात श्याम दउआ की कोठी, रसलदार की कोठी, हाथी खाना देखने के बाद हम लोग राय प्रवीण महल पहुँचे।

कोठियाँ तो खस्ता हाल थीं।  मुझे इन्हें देखकर लगा कि इनका जीर्णोधार होना चाहिए और इन कोठियों को उस तरह से रखना चाहिए जैसे उस वक्त ये रही होंगी। अगर ऐसा होता तो देखने में ज्यादा मजा आता। पर्यटक भी फिर ज्यादा रूचि लेते।

हाथीखाना शीश महल के पीछे बना है और ऐसा माना जाता है कि इधर हाथियों को रखा जाता रहा होगा। अभी तो बेतरतीब उठी हुई झाड़ियाँ ही इधर थी। सरकारी मामला था तो कोताही होना आम बात थी।

इन सबकी एक एक तस्वीर लेकर ही हम लोग आगे बढ़ गये।

तोप खाना



 श्यान दउआ की कोठी


रसलदार की कोठी 



हाथी खाना 

राय प्रवीण महल

राय प्रवीण महल कोठियों से काफी बड़ी है। इधर ज्यादा लोग तो नहीं थे। एक आध मजदूर भाई काम कर रहे थे।

राय प्रवीण महल के विषय में शिला लेख में जो जानकारी मिलती है उसमें यही बताया गया है कि इन्द्रजीत सिंह ने यह महल राय प्रवीण के लिए बनाया था। यह महल दो मंजिला है और इसके साथ एक बाग़ भी है।

राय प्रवीण इन्द्रजीत सिंह के दरबार में मौजूद गायिका, कवियत्री और नर्तकी थीं। राजा की आसक्ति भी उन पर थी। शिलालेख के हिसाब से राय प्रवीण इन्द्रजीत की प्रेयसी थीं। कहते हैं कि राय प्रवीण बहुत ही ज्यादा खूबसूरत थीं और उनकी खूबसूरती के चर्चे मुगल बादशाह अकबर तक पहुँच गए थे। अकबर ने उन्हें अपने दरबार में बुलाया था। इंद्रजीत सिंह के अंदर इतनी ताकत नहीं थी कि वो अकबर का हुकुम टाल सके और उसने राय प्रवीण को अकबर के पास भेज दिया।  राय प्रवीण जब अकबर के दरबार में पहुंची तो उन्होंने अपनी लिखी कविता से अकबर को बता दिया कि वो इंद्रजीत सिंह से मोहब्बत करती हैं। उनकी पवित्र मोहब्बत से प्रभावित होकर  और उसका सम्मान करते हुए अकबर ने उन्हें इज्जत के साथ वापिस भेज दिया था। खैर, उस वक्त तक हमे यह जानकारी नहीं थी।

इसलिए महल देखकर राकेश भाई बोले- "देखो, राजा लोग नर्तकियों के लिए भी महल बनवाते थे।"
मैं - "आप राजा होते तो क्या आप नहीं बनवाते? अपनी पसंदीदा नर्तकी के लिए।"
राकेश भाई मुस्कराने लगे।  उनकी मुस्कुराहट में ही उनका जवाब मिल चुका था।

वो ही क्यों  अगर मैं भी होता तो मैं भी बनाता। मैं तो अपने पसंदीदा शायर,लेखक इत्यादि के लिए भी बनाता।  यह सब साधारण बात ही है।

यही बातचीत करते करते हम अंदर दाखिल हुए। यह महल तीन मंजिला है। अभी फिलहाल कोई इधर न नहीं था और हम घूमने लगे।

 इधर एक रोचक वाक्या हुआ।  मैं कुछ देर के लिए व्हाटसएप्प में व्यस्त हुआ था। किसी ने रोहित शेट्टी के पिक्चर सिम्बा का ट्रेलर देखने को बोला था। मैंने ट्रेलर देखा। और जब देखकर फोन से नज़र हटाई तो राकेश भाई गायब हो गये। मैंने आस पास खोजा लेकिन वो कहीं नही मिले। मेरे मन में सबसे पहले यह ख्याल आया कि कहीं महल में ही तो वो गायब नहीं हो गये। क्या पता यह कोई भूतिया महल हो? फिर मैंने सोचा कि क्या हो कि अगर हम इस महल से कभी निकल ही न पाए। और क्या पता यही कारण हो कि इधर कोई हमे न दिखा हो। सब इधर कैदी बन गये हो।

यह दिन का वक्त था। धूप तेज हो रही थी। फिर भी अपने मन में उभरते इन ख्यालों से मुझे खुद ही डर लग गया।मैं महल से बाहर निकल और मैंने राकेश भाई को कॉल किया। वो ऊपर वाले कमरे में फोटो उतारने में व्यस्त थे। मैं ऊपर पहुँचा। ऊपर दीवारों पर चित्रकारी करी हुई थी। इन चित्रों को राय प्रवीण को अलग अलग मुद्राओं में चित्रित किया गया है। हमने दस से पंद्रह मिनट इधर बिताए थे।

अब देखिये कुछ चित्र:


राय प्रवीण महल को दर्शाता बोर्ड और महल का प्रवेश द्वार 

राय प्रवीण महल 

महल में बने चित्र 

विभिन्न मुद्राओं में बने चित्र 

राय प्रवीण महल देखते देखते तीन बज गये थे। इधर सैलानी कम ही थे। जब तक हम लोग राय प्रवीण महल में थे तब तक इधर कोई आया ही नहीं था। घूमते हुए मैंने राकेश भाई को कहा-"आपको पता है जब मैं एक बार तुगलकाबाद फोर्ट में घूम रहा था तो उधर कुछ लोग तो किले वालों ने सैलानियों को आगाह करने के लिए रखे थे?"
राकेश भाई - "मतलब?"
मैं - "मैं जब उधर था तो एक दो बार लोग मुझसे आकर कह रहे थे कि मैं ज्यादा अंदर या वीरान इलाके में न जाऊँ। उधर ऐसे गैंग सक्रिय थे जो सैलानियों को अकेला पाकर लूट लेते थे।"
राकेश भाई ने हँसते हुए कहा- "ये तो इधर भी हो सकता है? वैसे भी इधर तो डकैती वगेरह आम बात ही है। और इलाका तो सुनसान है ही।"
मैं - "बात तो सही कह रहे हो। आगे जाना है क्या?"
राकेश भाई ने उधर ही मौजूद एक व्यक्ति से पूछा कि आगे कुछ है? उन्होंने जवाब दिया कि एक दो छोटे मंदिर हैं। राकेश भाई ने मुझे देखा। मैंने कंधे उचका दिये और हमने वापिस जाने का विचार कर दिया।
"अब मंदिरों की तरफ चला जाये?" मैंने पूछा।
"हाँ।" राकेश भाई ने कहा।
"चलो फिर। फिर सूरज ढलने से पहले नदी के किनारे मौजूद छतरियों तक जाना है। पहले मंदिर देख लेते हैं और फिर उधर निकल चलेंगे।"
राकेश भाई ने सहमति में गर्दन हिलाई और हम लोग किले के गेट की तरफ बढ़ने लगे। मुझे अब चाय की तलब लगने लगी थी। मैं जल्द से जल्द जाकर चाय की चुस्की मारना चाहता था।

क्रमशः 

झाँसी और ओरछा भ्रमण की सभी कड़ियाँ:
दिल्ली से झाँसी
झाँसी रेलवे स्टेशन से किले की ओर
झाँसी का किला और रानी महल
ओरछा किला 
ओरछा भ्रमण:मंदिर, कोठियाँ ,छतरियाँ इत्यादि 
© विकास नैनवाल 'अंजान'

10 टिप्पणियाँ

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  1. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 13/02/2019 की बुलेटिन, " मस्त रहने का ... टेंशन नहीं लेने का ... ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. घबेहद उम्दख लेख । फोटोग्राफी ने इसे सम्पूर्णता दे दी है । यही कहना चाहूंगी कि बहुत बढ़िया शैली है आपकी ।

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  3. वाह राकेश भाई इमेजिन भी bike के साथ होने लग गए है....ओरछा में GDS का पहला मिलन हुआ था 2016 में....बहुत सुंदर जगह है...बेतवा के किनारे चाय पीना और बेतवा की छत्रिय देखना मजेदार है....किले के बारे में पढ़कर अच्छा लगा...

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    1. जी राकेश भाई बिना बाइक के अधूरे से लगते हैं अब। वाह!! ओरछा में जी डी एस का मिलन हुआ है। यह जानकर अच्छा लगा। सही एन्जॉय किया होगा आप लोगों ने। ओरछा का एक और चक्कर मारूँगा मैं। तफ्सील से आराम से ठहर कर उधर घूमूँगा उस वक्त। इस बार तो जल्दी जल्दी ही सब निबटाया।

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  4. आपने जहांगीर महल का सबसे खूबसूरत हिस्सा उसके मुख्य द्वार को मिस किया । जहां से आप प्रवेश किये वो पिछला द्वार था । जिसे आप लकड़ी के खम्बे बता रहे , वो पत्थर के है । और पत्थर की कारीगरी ही जहांगीर महल को विशेष बनाती है ।

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    1. ओह बेहतरीन। पहाड़ों में घरों के बीच ऐसे जोड़ अक्सर लकड़ियों के होते हैं तो मैंने सोचा कि इधर भी इन्ही का इस्तेमाल किया गया होगा। लेख में सुधार कर लेता हूँ। जानकारी का शुक्रिया।

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