जी डी एस मीट : सेंट्रल पार्क 6 जनवरी 2019

6/01/2018


एक ग्रुप फोटो

मैं सुबह उठा तो मौसम की हालत थोड़ी नासाज़ थी। रात को बारिश हुई थी और अभी भी बारिश की सम्भावना बनी हुई थी। ग्यारह बजे के करीब मुझे सेन्ट्रल पार्क में समूह के दोस्तों से मिलना था। घुमक्कड़ी दिल से नामक फेसबुक ग्रुप की मीट थी और मैं उनसे मिलने के लिए ललायित था। इस कारण मैं छः बजे ही उठ गया था। मैंने सोचा था कि थोडा बहुत ब्लॉग का काम निपटाकर आठ बजे करीब तैयार होने लगूँगा और फिर 9 बजे करीब रूम से निकल जाऊँगा। ऐसा करने से 11 बजे तक सेन्ट्रल पार्क तो मैं पहुँच ही जाऊँगा। इधर से ही ग्रुप के सदस्य यशवंत जी भी जा रहे थे तो प्लान बना था कि नौ साढ़े नौ बजे करीब हम लोग एम जी रोड मेट्रो स्टेशन पर मिलेंगे।

लेकिन फिर सिर मुंडाते ही ओले पड़ गये। आठ बजे के करीब लाइट चली गई। अब नहाया कैसे जाये मैं इसी पशोपेश में था। शेव भी करनी थी। मैंने सोचा कि शेव वगेरह कर लेता हूँ और उसके पश्चात ये देखेंगे कि करना क्या है? शेव किया लेकिन लाइट के आने की कोई सम्भावना नहीं दिख रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे ऊपर से सिग्नल हो कि न जा बेटा। ऊपर से मौसम भी ऐसा कि अभी बारिश होने लगे। लेकिन फिर मैंने सोचा कि ठंड के इस मौसम में एक दिन नहीं नाहेंगे तो क्या फर्क पड़ेगा और यह सोच कर मैंने मुँह में पानी के कुछ छीटें  मारे और उसके बाद तैयार होकर रूम से निकला।

हलकी हलकी बारिश हो रही थी तो मैंने छाता ले लिया था। इसी बीच यशवंत जी का कॉल आ गया था। उन्होंने बताया कि वो हुडा पहुँच चुके हैं। मैंने कहा कि मैं एम जी रोड के लिए निकल रहा हूँ। अगर वो तब तक उधर पहुँचे तो सही है वरना सेंट्रल पार्क में ही मिलेंगे। मुझे थोड़ी देर हो चुकी थी और मैं उन्हें अपने वजह से देर नहीं करवाना चाहता था। छाता लेकर मैं अब गुडगाँव बस स्टैंड की तरफ चलने लगा। कुछ ही देर में उधर पहुँच कर मैंने एक शेयरिंग वाला ऑटो लिया। पहले विचार उस ऑटो से एमजी रोड जाने का था। लेकिन बाद में पता चला कि वो ऑटो सिकन्दरपुर तक जायेगा तो मैंने वहीं जाने का मन बना लिया। मैं एक स्टेशन आगे ही पहुँच रहा था। क्या दिक्कत थी।



सिकन्दर पुर उतरा और उधर एक चाय वाली टपरी पर नजर पड़ी। ठंड थी ही और चाय की केतली से उठती भाप मुझे न्योता दे रही थी। मैं इसका लोभ संवरण नहीं कर पाया और थोड़ी ही देर में मैंने खुद को चाय के गिलास से चाय चुसकते हुए पाया। चाय खत्म की पैसे अदा किये और एक मेसेज यशवंत जी को डाला कि मैं सिकन्दरपुर आ चुका हूँ।

मेट्रो स्टेशन में एंट्री लेकर अन्दर दाखिल हुआ और प्लेटफार्म तक पहुँचा। ट्रेन आने में वक्त था तो सोचा यशवंत जी को पूछ लूँ। उन्हें कॉल किया तो पता लगा कि वो आगे निकल चुके थे। अब सीधे सेंट्रल पार्क में ही मिलना था।

यह सोचकर मैंने अपने बैग से 'Anita: a trophy wife' निकाली और उसके पन्नों में खो गया। यह किताब तमिल लेखक सुजाथा के तमिल उपन्यास का अंग्रेजी अनुवाद है। 'सुजाथा' एस रंगराजन जी का उपनाम था। इसी नाम से वो उपन्यास लिखते थे। अनीता : अ ट्राफी वाइफ एक मर्डर मिस्ट्री है। सप्ताहंत में मुझे मर्डर मिस्ट्री या कोई ऐसी अपराध या रोमांच कथा पढ़ना ही पसंद है। अभी एक जोड़े को एक लाश मिली ही थी कि मेरी ट्रेन आ गई। मैंने किताब बंद की और मेट्रो में दाखिल हुआ। मैंने अपने लिए एक कोना ढूँढा और उधर पहुँचकर मैंने दोबारा किताब खोल दी।
सफ़र की साथिन अनीता 

इंस्पेक्टर राजेश मौका ए वारदान पर पहुँच चुका था और मैं जानने के लिए व्याकुल था कि खून किसका हुआ है और क्यों? कहानी दिल्ली के आस पास की ही थी तो मैं इसमें खो सा गया।

मेरे आस पास सब कुछ साधारण था। एक व्यक्ति तेज आवाज़ मे फोन पर बात कर रहा था। जो बात मेरे कानों में पड़ी वो यह थी कि जिससे वो बात कर रहा था उसके कुछ एक या डेढ़ लाख रूपये किसी बंदे ने लेकर अभी तक नहीं लौटाए थे। ये भाई उन पैसों को निकलवाने की तरकीब उसे समझा रहा था और शायद ये दिलासा दे रहा था कि वो पैसे निकलवाने में मदद करेगा। मैं अजीब पशोपेश में था - एक जगह मर्डर था और दूसरी जगह बातचीत के टुकड़े जिसमें ठग से पैसे वापस निकालने की जुगत चल रही थी।मैं चुप चाप खड़ा दोनों का आनन्द ले रहा था। जब तक फोन पर बात चली तब तक ऐसा ही चला फिर एक योजना बनाकर उस भाई ने फोन काट दिया। योजना कुछ ऐसी थी: ये भाई उसके(पैसे जिसने हड़पे थे) ऑफिस में जाकर उसकी बेइज्जती करेगा और तब भी न माना तो ऊँगली टेढ़ी करके पैसे निकलवायेगा। इससे योजना से सामने वाला भी संतुष्ट था और फिर वो ऐसे ही इधर उधर की बातें करने लगे थे और मैं दुबारा उपन्यास में खो गया था। उपन्यास के हीरो गणेश ने एंट्री ले ली थी। गणेश एक वकील था जिसे मकतूल(जिसका कत्ल हुआ था ) की बेटी मोनिका ने इसलिए रखा था ताकि मकतूल की बीवी अनीता उसकी दौलत न हड़प सके। प्लाट गहरा होता जा रहा था। मैं पचास पृष्ठ पढ़ चुका था कि राजीव चौक आ गया।

मैंने जीडीएस का मीट वाला ग्रुप देखा।उसमें गेट छः  और सात  से निकलने की बात थी। मैं पाँच छः से निकला। मौसम अच्छा हो गया था। बारिश अब नहीं हो रही थी और मैं पार्क के अन्दर जाने का गेट देखने लगा। फोन पर मैंने बात कर ली थी। यशवंत भाई पहुँच चुके थे और उन्होंने बताया था कि वो लोग झंडे के सामने ही खड़े हैं। मेरा पहले एक चाय पीने का मन था लेकिन चाय कहीं दिख नहीं रही थी। यही कारण है मैंने पहले अंदर जाने का गेट खोजा। छः नंबर मेट्रो स्टेशन से मैं बाहर निकला था लेकिन उधर से पार्क का  गेट मुझे बंद मिला था।  मुझे आगे बढ़ना पड़ा था और थोड़ी दूर चलकर मुझे एक खुला गेट मिला और मैं पार्क में दाखिल हो गया। अनीता,गणेश,मोनिका इत्यादि किताब में बंद होकर मेरे बैग में जा चुके थे। अब मीट के बाद ही उनसे मिलना होना था।

पार्क के तरफ आते हुए ये कलाकृति दिखी थी। आकर्षक थी तो इसकी तस्वीर उतार ली।

कुछ ही देर में मुझे एक जगह पर समूह के कुछ सदस्य खड़े मिल गये। मैं उनकी तरफ बढ़ा और पहले हाथ मिलाये और फिर गले लगे। मैं सभी से पहली बार मिल रहा था। कुछ  देर तक हम उधर ही खड़े रहे और आपसी बातचीत चलती रही। धीरे धीरे लोग आते रहे और हम उनसे मिलते रहे।  यह सब होने में बारह बज गये थे। बातें लगभग चलती रहीं थी।


अब काफी लोग आ चुके थे तो हम लोग पार्क में उस जगह की तरफ बढने लगे जिधर सीढ़ियाँ थी। सभी उधर बैठ गये  थे।  सबसे पहले योगेन्द्र जी ने समूह के विषय में लोगों को बताया। यह इसलिए भी जरूरी था क्योंकि कई लोग ऐसे थे जो समूह के नही थे और पहली बार इधर आये थे।

और अब औपचारिक  इंट्रोडक्शन का दौर शुरू हुआ। बीच बीच में हँसी मजाक भी होते रहा और सभी लोगों ने अपना परिचय दिया। सबने अपने जीवन में की घुमक्कड़ी के पलों को साझा किया। यह दौर लगभग दो बजे तक चला। जब लोग अपने विषय में बता रहे थे तो कई लोग कोतुहलवश आकर पूछने लगते थे कि क्या हो रहा है। फ़ोन और कैमरे और माइक को देखकर कई लोगों को लगने लगता था जैसे किसी समाचार के चैनल का कोई कार्यक्रम हो रहा है। मुझे ऐसा इसलिए पता है क्योंकि मैंने दो लडकों को देखा था जो यह कहते हुये बैठे थे कि हमारी फोटो भी आएगी। ये मुझे रोचक लगा था। बीच बीच में दूसरे लोग भी  आ रहे थे। इस परिचय सत्र का  विडियो आशीष जी ने अपने यू ट्यूब चैनल पर लगाया है।

आप निम्न लिंक पर जाकर इसका आनंद ले सकते हैं:
जी डी एस मीट अप

इतने अनुभवी घुमक्कड़ों के बीच में शिरकत करके मुझे बड़ी खुशी हो रही थी। काफी कुछ सीखने को भी मिल रहा था। कई रोमांचक कथाओं का मैं स्वाद ले रहा था- मसलन झीलों को ढूँढने का जुनून हो या स्टेचू ऑफ़ यूनिटी की रोमांचक यात्रा हो, चादर ट्रेक को अकेले करने का जूनून हो, गये थे दूसरी जगह लेकिन वक्त और हालात के चलते किसी अन्य खूबसूरत चीज को देख आने की खुशी हो, बर्फ में बाइक चलाने के अनुभव या एक बार घुमक्कड़ी का स्वाद चखने के बाद जीवन में आये बदलाव हों। हर कोई अपने आप में घुमक्कड़ी का एक ग्रन्थ था जिसे पढ़ने के लिए यह जन्म कम होगा। हर तरह के पेशे वाले और हर तरह के घुमक्कड़ जुनूनी इधर मौजूद थे। कोई विडियोग्राफर, कोई फोटोग्राफर कोई राइडर और कोई हम जैसे सार्वजनिक वाहनों को पसंद करने वाले। अलग अलग माध्यम जरूर हों लेकिन मंजिल वही थी- घुमक्कड़ी। एक  मीट में इतना  सब ज्ञान समा लेना तो काफी मुश्किल था।  इसलिए मैंने सोच रखा था कि रेगुलर मिलना जुलना तो होगा ही।

 परिचय होने के बाद हम लोग तिरंगे के नजदीक गये और उधर जाकर सबने  राष्ट्रीय गान गाया।

अब सब लोग एक दूसरे के विषय में जान गये थे। अब खाने पीने का दौर चालू हुआ। खाने में ब्रेड पकोड़ा, चाय, लड्डू,पेठा, बालू शाही, गुड़  इत्यादि इतनी चीजें थीं कि पेट पूरी तरह भर गया था।

मुझे पुस्तक मेले भी जाना था लेकिन इधर से जाने का मन ही नहीं कर रहा था। हितेश भाई जिन्हें मुझे पुस्तक मेले में मिलना था जल्दी पहुँच गये थे। उन्होंने सुबह मुझसे कहा था कि वो दो ढाई बजे करीब आएंगे लेकिन वो डेढ़ बजे करीब ही आ गये थे। लेकिन मेरा इधर से निकलना मुश्किल लग रहा था तो मैंने उनसे कहा कि वो अगर जाना चाहते हैं तो वापिस चले जाये क्योंकि मैं शायद न आ सकूँ। सुबह लाइट नहीं थी तो मेरा फोन भी डिस्चार्ज हो रहा था। मैं पॉवरबैंक तो लाया था लेकिन उसका वायर लाना भूल गया था। और फोन किसी भी वक्त पर धोखा दे सकता था। इसलिए कहीं वो मेरी राह न देखते रहें यह सोचकर उन्हें इत्तला करना  मैंने जरूरी समझा था।

सारा प्रोग्राम तीन चार बजे के करीब निपटा और हम लोग एक दूसरे से विदाई लेकर मेट्रो स्टेशन की तरफ बढ़े। योगेन्द्र जी, अभयानंद सिन्हा जी,रुपेश जी, योगेश चौहान जी, आशीष दुबे जी और अतुल नैथानी जी थे। मुझे प्रगति मैदान की तरफ जाना था तो मैं भी इनके साथ ब्लू लाइन में चढ़ गया। इधर भी मीट की बातें चलती रही। कुछ ही देर में प्रगति मैदान आ गया और मैं सबसे से विदा लेकर उतर गया।

अब मुझे पुस्तक मेले की तरफ जाना था। उसकी बात फिर कभी।

तब तक आप देखिये मीट की कुछ तस्वीरें(जिन तस्वीरों में वाटर मार्क नहीं है वो व्हाट्सप्प पर विभिन्न सदस्यों ने भेजी थी। मैंने इधर लगा दी हैं आशा है उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। ):

हो गए जी सब इकट्ठा

झण्डा ऊँचा रहे हमारा 

गप्पे शप्पे 

क्या है? क्यों है ? किसलिए है? सबका जवाब मिलेगा। 

परिचय देते और अपने घुमक्कड़ी के अनुभव साझा करते सदस्य 

परिचय देते और अपने घुमक्कड़ी के अनुभव साझा करते सदस्य 

परिचय देते और अपने घुमक्कड़ी के अनुभव साझा करते सदस्य 

परिचय देते और अपने घुमक्कड़ी के अनुभव साझा करते सदस्य 
परिचय देते और अपने घुमक्कड़ी के अनुभव साझा करते सदस्य 
एक और ग्रुप फोटो

ये बालू शाही बिलकुल शाही है... 

उँगलियाँ चाटते रह जाओगे। 

 अब थोड़ा गुड़ हो जाये 

थोड़ा तेल मिला लेते हैं गुड़ में स्वाद बढ़ेगा 

अरे ठंड का मौसम हो और चाय न हो !! ये कैसे हो सकता है।
एक यादगार मीट का मैं भागीदार बना था। मुझे बहुत आनंद आया था। उम्मीद है आगे की मीट्स में भी शिरकत कर पाऊँगा। तब तक के लिए यही कहना चाहूँगा: घुमक्कड़ी दिल से, मिलेंगे फिर से....


© विकास नैनवाल 'अंजान'

21 टिप्पणियाँ

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  1. घुमक्कड़ी दिल से....मिलेंगे फिर से....

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  2. वाह वाह क्या सजीव वर्णन है... इतना बेहतर शायद मैं अपने विडियो में भी नहीं दिखा सका... बहुत शानदार रचना... बहुत बधाई आपको...

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  3. वाह भाई बारिश और इतनी ठंड में बारिश भी आपके उत्साह को कम न कर सकी...आप इस ग्रुप मीट के लिए लालायित थे और सुबह 6 बजे ही उठ गए... भाई जानकर बहुत अच्छा लगा....चाय की केतली से निकली भाप आमंत्रित कर रही थी...चाय का यह आमंत्रण का तरीका बहुत अच्छा लगा...वाह मर्डर वाली कहानि और लाइव कहानी दोनों साथ साथ चल रहे थे...वाह फोन कैमरे एयर माइक से समाचार पत्र का कार्यक्रम लग रहा था...हर कोई अपने आप मे ग्रंथ था लेकिन मंज़िल एक वो है घुमक्कडी बहुत बढ़िया विकास भाई..बहुत बहुत धन्यवाद भाई आपका इस meet में आने के लिए और दिल से धन्यवाद post के लिए.... घुमक्कडी दिल से....मिलेंगे फिर से...

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    1. जी यह एक ऐसा अनुभव था जो आसानी से नहीं मिलता। मेरे लिए तो खुशी की बात थी शामिल होना। हार्दिक आभार।

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  4. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 20/01/2019 की बुलेटिन, " भारत के 'जेम्स बॉन्ड' को ब्लॉग बुलेटिन का सलाम“ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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    1. बुलेटिन में मेरी रचना को शामिल करने के लिए दिल से आभार शिवम जी।

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  5. बहुत सुन्दर और जीवन्त लेख ।

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  6. बेहतरीन वर्णन, काश मैं भी पहुंचता खैर कोई बात नही सेंट्रल पार्क न सही कुम्भ मिलन ही सही।

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  7. बेहतरीन वर्णन, काश मैं भी पहुंचता खैर कोई बात नही सेंट्रल पार्क न सही कुम्भ मिलन ही सही।

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    1. जी शुक्रिया अरविन्द जी। आपने सही कहा, जो भी मौका मिले उसका आनन्द लेना चाहिए।

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  8. आपने यादों को फिर ताज़ा कर दिया।

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  9. बहुत शानदार विवरण पेश किया आपने इस मिलन का,बहुत आनन्द आया पढ़कर।वैसे वापसी में हम भी साथ थे।

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    1. जी शुक्रिया रुपेश भाई। मुझे लग रहा था कि कोई रह गया था। अच्छा हुआ आपने याद दिला दिया। उम्मीद है आगे भी मिलना होगा।

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