2 दिसम्बर 2018, रविवार
किताबी घुमक्कड़ी
इस घुमक्कड़ी की आधारशिला की बात करूँ तो वो राजभारती का उपन्यास रंगमहल के प्रेत था। मैंने कुछ दिनों पहले यह उपन्यास पढ़ना खत्म किया था। जब मैंने उपन्यास खत्म किया तो पता चला कि इस उपन्यास का अगला भाग भी है जिसका नाम प्रेत मण्डली है। अब इस उपन्यास को मैं ढूँढ रहा था। इसके लिए गुडगाँव बस स्टैंड में मौजूद नागपाल बुक स्टाल गया था। उधर काफी हिन्दी के पल्प उपन्यास मिल जाते हैं। परन्तु इस बार मुझे असफलता हासिल हुई। मैंने सोचा कि क्यों न दरियागंज वाले बाज़ार जाकर एक बार देख लिया जाये। फिर मुझे आलस आ रहा था तो मैंने योगी भाई को कॉल किया। पहले मैंने सोचा था कि उनसे दरख्वास्त करूँगा कि अगर उनका दरियागंज का चक्कर लगे तो वो क्या इस उपन्यास को खोज लायेंगे। उन्होंने हामी भी भर दी थी लेकिन फिर मैंने सोचा क्यों न इस बहाने एक चक्कर मैं भी मार लूँ। वैसे भी मुझे उधर गये काफी वक्त हो गया था और कई दिनों से कहीं गया भी नहीं था। एक छोटी सी घुमक्कड़ी भी हो जाएगी और शायद उपन्यास भी पढ़ने को मिल जाये। यही सोचकर मैंने योगी भाई से कहा कि मैं उन्हें सुबह मिलता हूँ और उन्होंने भी इसकी हामी भर दी।
सुबह उठकर मुझे थोड़ी देरी हो गई। निकलते हुए साढ़े दस हो गये थे। मैंने निकलते वक्त योगी भाई को कॉल कर दिया था और उन्होंने कहा कि वो उधर पहुँच जायेंगे। मैंने बात चीत के वक्त ही उन्हें बता दिया कि मैं दिल्ली गेट पौने बारह बारह बजे करीब पहुँच जाऊँगा। उन्होंने भी मुझे आश्वासन दिया कि वो भी मुझे उधर मिल जायेंगे। मेरी योजना थी कि मैं जल्द से जल्द किताबें लेकर लौट आऊंगा। ऐसा इसलिए भी जरूरी था क्योंकि शाम साढ़े छः बजे करीब मुझे कहीं जाना था और उधर जाना जरूरी था।
मैं रूम से निकला। कहने को तो दिसम्बर चल रहा है लेकिन सर्दी मुझे इतनी नहीं लग रही थी। मैं हाल्फ टी शर्ट में ही निकला। ऑटो लेकर पहले गुडगाँव बस स्टैंड पहुँचा और उसके बाद उधर से एम जी रोड मेट्रो का सफर किया। सब कुछ साझा वाला ऑटो ही था। मेट्रो में पहुँचा और प्लेटफार्म में पहुँचकर ट्रेन का इन्तजार करने लगा। जब तक ट्रेन आई तब तक मैंने बैग से फेवर ड्रीम(Fevre Dream) निकाल ली थी। यह जॉर्ज आर आर मार्टिन का उपन्यास है। जॉर्ज आर आर मार्टिन अपने गेम्स ऑफ़ थ्रोन्स सीरियल के लिए काफी चर्चा में रहे हैं। यह टीवी सीरीज उनके अ सोंग ऑफ़ आइस एंड फायर नामक उपन्यास श्रृंखला के उपन्यासों पर आधारित है। जबर्दस्त उपन्यास श्रृंखला है और जबदरस्त सीरियल है। जब मुझे पता चला कि उन्होंने एक उपन्यास ऐसा भी लिखा है जिसमें रक्त पिशाच (वैम्पायर) हैं तो मुझे उस उपन्यास को लेने का मन हो गया और मैंने उस उपन्यास को खरीद कर रख दिया। अब जाकर इसे पढ़ने के लिए निकाला है।
एबनर मार्श एक जहाजों के दस्ते का मालिक होता है जिसे हाल फिलहाल में काफी नुक्सान का सामना करना पड़ता है। ऐसे में जब आर्थिक रूप से बर्बाद हो चुका है तब जोशुआ यॉर्क नामक व्यक्ति उससे सम्पर्क साधता है और उसे अपने जहाज का कप्तान नियुक्त करता है। इस जहाज को बनाने की जिम्मेदारी भी वो एबनर मार्श को ही देता है। मार्श जिस जहाज को बनाता है उसका नाम फेवर ड्रीम रखता है और यहीं से उपन्यास का शीर्षक भी आता है। जोशुआ अपने कुछ अजीब दोस्तों के साथ इस जहाज में सवार हो चुका है और उनका सफर उन्हें किधर ले जायेगा यही उपन्यास का कथानक बनता है। उपन्यास में कुछ वैम्पायर्स की एंट्री हो चुकी है। एक सीन आ चुका है जिसमें वो एक गुलाम का खून चूसते हुए और बाद में उनमे से एक उस गुलाम युवती की गर्दन चीरते हुए दिखलाया गया है। आगे क्या होता है यह तो नहीं पता लेकिन इतना जरूर पता है कि जो होगा वो रोचक ही होगा।
इसी कथानक को मैं पढ़ रहा था और पता ही नहीं चला कि कब केन्द्रीय सचिवालय आ गया। मुझे इधर से वोइलेट लाइन की मेट्रो पकडनी थी जो कि मुझे दिल्ली गेट छोड़ती। मैं केन्द्रीय सचिवालय उतरा और उधर से वायलेट लाइन के लिए मौजूद प्लेटफार्म की तरफ बढ़ा। केंद्रीय सचिवालय से कश्मीरी गेट जाने वाली मेट्रो पर मुझे बैठना था। मैं उधर की तरफ बढ़ा। रास्ते में नक्शा था जिसे देखकर मुझे पता चला कि तीन स्टेशन (जनपथ,मंडी हाउस,आईटीओ) के बाद ही दिल्ली गेट पर मुझे उतरना था।
मैं नीचे पहुंचा और ट्रैन का इंतजार करने लगा। कुछ देर के इतंजार के बाद ही मेट्रो आ गयी और मैं उसमे चढ़
गया। मेट्रो जब मंडी हाउस पहुंची तो मैंने योगी भाई को कॉल किया। वो भी चढ़ चुके थे। इससे हमने अंदाजा लगाया कि शायद हम लोगों ने एक ही मेट्रो पकड़ी थी। मैंने फोन काटा और फेवर ड्रीम के कुछ पृष्ठ पढ़े। फिर दिल्ली गेट आ गया था मैं बाहर निकला। उसी ट्रेन से योगी भाई निकले। उन्होंने जैकेट पहनी हुई थी जिसे देखकर मुझे हैरत हुई क्योंकि गर्मी काफी हो रही थी। उन्होंने कहा शाम को ठंड हो जाती है तो वो पहन कर ही निकलते हैं। ये तर्क भी सही था। हम बगलगीर होकर मिले और फिर दिल्ली गेट से बाहर निकले।
बाहर निकल कर हमने सड़क पार की और कुछ ही देर में हम किताबों के बीच में थे। चारो तरफ किताबें ही किताबें थी।मैंने उन्हें बताया कि मुझे रंग महल के प्रेत का दूसरा भाग प्रेत मण्डली चाहिए। उन्होंने कहा चेक करते हैं।
अब हम घूमने लगे। हम एक जगह पहुँचे तो उधर दस रूपये में उपन्यास मिल रहे थे। मैंने एक नज़र मारी तो मुझे दिखा कि ज्यादातर उपन्यास विज्ञान गल्प हैं। मुझे इस विषय के उपन्यासों में रूचि रही है तो मैंने 100 रूपये के उपन्यास खरीदने का मन बनाया। मैंने कुछ 10 उपन्यास लिए और उनके 100 रूपये अदा किये।
वो उपन्यास निम्न थे:
हम फिर आगे बढ़ गये। मैंने अब फैसला कर लिया था कि मैं खाली वही उपन्यास लूँगा जो कि लेने मैं आया था। यह फैसला करके हम लोग आगे बढ़ रहे थे। मुझे कहीं वो उपन्यास नहीं दिख रहा था जिसकी मुझे जरूरत थी। मैंने एक दो फोटो भी ली। हम ऐसे ही आगे बढ़ रहे थे कि मुझे एक जगह एक ऐसा उपन्यास दिखा जिसे पढ़ने की इच्छा काफी दिनों से थी। यह जेम्स बांड श्रृंखला का उपन्यास था। मैंने इस श्रृंखला का केवल ओक्टोपुसी ही पढ़ा है। इसलिए मैं इस जगह पर रुक गया। बेचने वाले भाई से पता किया तो उन्होंने बताया कि वो बीस रूपये का उपन्यास बेच रहे थे। जब मैं उधर खड़ा हुआ तो मुझे एक दो उपन्यास और पसंद आ गये और मैंने पाँच उपन्यास लेने का मन बना लिया। मैंने 100 रूपये में निम्न उपन्यास लिए:
अब मैंने काफी उपन्यास ले लिए थे। अब हम चल रहे थे। चलते हुए गर्मी और लगने लगी थी और योगी भाई ने भी जैकेट बैग में डाल दी थी। अब मैं जानबूझ कर किताबों के नज़दीक नहीं जा रहा था। मुझे लग रहा था कि अगर मैं नजदीक गया तो कुछ न कुछ मुझे पसंद आ जायेगा और मैं उसे खरीदने का लोभ संवरण नहीं कर पाऊँगा। इस कारण मेरा ध्यान अब केवल फोटो खींचने पर था। हम लोग अब ऐसे ही टहल रहे थे। योगी भाई ने बताया कि वो एक जगह जानते हैं जहाँ हिन्दी के पल्प उपन्यास मिल सकते हैं। अब हम उसकी तरफ बढ़ने लगे। जब तक मैं उधर पहुँचता हूँ तब तक आप देखिये बाज़ार की कुछ और झलकियाँ।
चलते चलते हम एक ऐसी जगह पहुँचे जहाँ हमे सामने दिल्ली गेट दिख रहा था। इतनी भीड़ और चहल पहल में भी वह आपका ध्यान आकर्षित कर ही देता है।
दिल्ली गेट का निर्माण शाह जहाँ ने 1638 में किया था। दिल्ली के सातवें शहर शाहजहानाबाद को जो दीवार घेरती थी उसी के हिस्से के रूप में इसको बनाया गया था। शाह जहाँ जामा मस्जिद जाते हुए इस दरवाजे का प्रयोग करता था। अब यह एक संरक्षित इमारत है।
मैंने इसकी भी एक दो फोटो ली। योगी भाई ने दाएं तरफ इशारा करके बताया कि उधर की तरफ कुछ हिन्दी पल्प मिल जायेगा तो हम उधर को ही मुड़ गए।
कुछ ही देर में हम उस दुकान के पास जिसकी हमे तलाश थी। उधर हमें राज भारती की प्रेत मण्डली तो नहीं मिली लेकिन सुरेन्द्र मोहन पाठक जी की बिचौलिया मिल गई। मैंने यह उपन्यास नहीं पढ़ा था इसलिए मैंने इसकी कीमत योगी भाई से पुछवाई। दुकानदार ने तीस बोली तो मैंने योगी भाई को मना करते हुए खुद ही इसकी कीमत अदा कर दी।इसी बहाने पाठक साहब का एक और उपन्यास मेरे संग्रह में आ गया। मैं खुश था। अब प्रेत मण्डली मिलने का दुःख मुझे उतना नहीं साल रहा था।
इसके बाद एक और दुकान पर हम पहुँचे। वहाँ भी पाठक साहब के उपन्यास हमे दिखे। योगी भाई बता रहे थे कि वो ऊँचे दाम में उन उपन्यासों को बेचता है। मैंने उनसे एक उपन्यास खबरदार शहरी के विषय में पूछा।
मैं - "वो उपन्यास कितने का है?"
दुकानदार भाई- "कौन सा?"
मैं - "वो जो टॉप पर है। खबरदार शहरी। "
उन्होने किताब उठाई। उसे उल्टा पलटा और फिर दूसरी तरफ खड़े सज्जन से इशारों में पूछा। उधर से कुछ इशारा हुआ और वो दुकानदार साहब बोले - "200 रूपये"
मैं - "इतना महंगा? ये सुरेन्द्र मोहन पाठक कौन हैं जो इतना महंगा उपन्यास मिल रहा है?"
दुकानदार साहब- "अब उपन्यास छपता नहीं है न इसलिए महंगा है।"
मैंने योगी भाई को देखा वो मुस्करा रहे थे। उनकी बात सही साबित हुई थी। उस किताब के 200 रूपये देना मुझे वाजिब न लगा तो हम उन्हें नमस्कार बोल कर आगे बढ़ गये। थोड़ी देर और टहले। अब मार्किट खत्म हो चुका था। ज्यादा कुछ हमने लेना भी नहीं था। किताबे दिखती तो मैं तो अपनी गर्दन घुमा देता। एक किताब लेने आया था और अब तक सोलह ले चुका था। ऐसे में सस्ते में कोई पसंद की मिल जाती तो मैं और ले लेता। अब इधर से निकलने में ही भलाई थी।
भुक्कड़ घुमक्कड़
मार्किट से निकलकर अब मेरा चाय पीने का मन हो रहा था और फिर लंच भी करना था। मैंने योगी भाई से पूछा तो उन्होंने कहा कि कल उनका एक क्लाइंट सीता राम के छोले भटूरों की काफी तारीफ़ कर रहा था तो उधर चलेंगे। मैंने कहा कि चाय पीते हैं, फिर चलेंगे। योगी भाई तो चाय पीते नहीं हैं लेकिन मुझे तो पीनी थी इसलिए हम लोग चाय की टपरी खोजने लगे। जिधर मार्किट लगता है उसके सामने वाली सडक पर एक चाय वाला था। हम जब पिछले बार आये थे तो उधर चाय पी थी, मुझे यह तो याद था। इसलिए पहले सड़क पार की और चाय की उस दुकान को खोजने लगे। कुछ ही देर में हम चाय की दुकान के आगे थे। एक चाय का आर्डर दिया। योगी भाई को पूछा वो कुछ खायेंगे तो उन्होंने कहा कि सीधा सीताराम के छोले भटूरे ही वो खायेंगे। अब हम चाय का इन्तजार करने लगे। थोड़ी देर बाद चाय बन गयी और मैं एक कप लेकर उसे चुसकने लगा।
इसी दौरान के घटना हुई। हम लोग चाय पी रहे थे और एक व्यक्ति उधर अपने स्कूटर पर चाबी लगा रहा था कि एक बन्दा उसके पास आया और उससे कहने लगा कि उसने उसे पास्ता खिलाने का वादा किया था। जो व्यक्ति आया था, उसके बाल और दाड़ी बढ़ी हुई थी। उसकी हालत ऐसी लग रही थी जैसे मानसिक रूप से वह स्वस्थ नहीं हो। उसने आदमी को दोबारा बोला तो आदमी ने दुकानदार से उसे ब्रेड पकोड़ा देने को बोला। वो व्यक्ति शायद उसे ही पास्ता कह रहा था। उसने ब्रेड पकोड़े के पैसे दिए और उसने हमसे कहा खाने के पैसे नहीं होते इनके पास लेकिन शिखर(गुटखा) के पैसे जरूर होते हैं। जो व्यक्ति आया था उसे तो अपने मतलब की चीज मिल गई थी और इसलिए वह मराठी में कुछ कुछ बोलता हुआ उधर से चले गया।
मैंने उसकी बात का जवाब दिया खाना तो कोई न कोई खिला देगा शिखर जैसी चीज खरीदनी ही पड़ेगी। यह सुनकर योगी भाई कहने लगे कि इन्हे कम न समझो ये शिखर भी मांग लेते हैं। फिर वह अपना अनुभव बताने लगे जब वो भैरव के मंदिर गये थे। उस मंदिर में शराब चढ़ती है और उधर मौजूद भिखारी इस शराब की ताक में रहते हैं। उधर मौजूद भिखारी पुलिस के सामने ही शारब पीकर नशे में रहते हैं और फिर भी माँगते रहते हैं। यही सब बातचीत चल रही थी कि चाय खत्म हो गई। मैंने चाय के पैसे अदा किये और फिर हम लोग अब रिक्शा देखने लगे।
एक ऑटो वाले से बात की तो वो सत्तर रूपये माँग रहा था। हम लोग पचास देने को तैयार थे लेकिन वो इतने नहीं ले रहा था।वो साठ तक आया। हम पचास में अड़े हुए थे लेकिन वो मान नहीं रहा था। तभी उधर शेयरिंग वाला ई रिक्शा आया और हम लोग उस पर चढ़ गये। हम लोगों को चढ़ता देख वो पचास के लिए राजी हुआ लेकिन तब तक हम लोग आगे बढ़ गए थे।
रिक्शा आगे बढ़ने लगा तो हम लोग उपन्यासों की बातचीत करने लगे। बातचीत का विषय इस पर चले गया कि कैसे नए उपन्यासकारों को प्रकाशन भी प्रमोट नहीं कर रहा है। इसके बाद पल्प में कैसे विदेशी लेखकों के कथानक उठाये जाते हैं इस पर भी बात हुई। हमारे सामने एक बुजुर्ग बैठे हुए थे। वो भी हमारी बातचीत सुन रहे थे। जैसे ही हमने कथानक उठाने की बात की तो वो भी मुस्कराने लगे थे। एक बार पूछने का मन तो किया था कि आप भी पढ़ते हैं क्या? लेकिन फिर नहीं पूछा। हम लोग अपनी ही बातों में व्यस्त थे लेकिन मैं कनखियों से उनकी प्रतिक्रिया देखता जा रहा था। लग रहा था जैसे उन्हें हमारी बातों में रूचि हो।
शेयरिंग वाले ई-रिक्शा से हम अजमेरी गेट तक गये और फिर उधर से एक और शेयरिंग लेकर पहाड़गंज की तरफ उस सड़क के मुहाने तक गये थे जिसके अन्दर सीताराम छोले वाले की दुकान थी। अजमेरी गेट से जिस ऑटो में हम बैठे उसमें हमे दस बारह मिनट बैठना पड़ा था क्योंकि केवल हम दो ही सवारी थे। उस भाई ने कुछ देर तो इंतजार किया लेकिन जब कोई नहीं आया तो हमे लेकर ही आगे बढ़ा।
खैर, गली में पहुँचने के बाद हमने उसके पैसे दिए और सीताराम की दुकान की तरफ बढ़ गये। चलते हुए योगी भाई बता रहे थे कि यह छोले वाला शायद काफी प्रसिद्ध है। दुकान के बाहर हम पहुँचे तो उसकी प्रसिद्धि दृष्टिगोचर हो रही थी। काफी भीड़ लगी हुई थी। हम किसी तरह अन्दर गये और हमने एक एक छोले भठूरे की प्लेट और एक एक लस्सी का आर्डर दिया। हमे पर्ची मिली और हम उन्हें लेकर काउंटर की तरफ बढ़े। मैंने लस्सी ली और योगी भाई भठूरों की लम्बी लाइन में लगे। भठूरे लेकर वो आये तो मुझे थोड़ी हैरानी हुई। वो भटूरे कम कुलचे ज्यादा लग रहे थे। योगी भाई भी निराश से लग रहे थे।
खैर, हमने एक जगह ली और खाने लगे। स्वाद अच्छा था। पर थोड़ा एंटी क्लिमक्टिक तो था। योगी भाई के मुँह से ऊँची दुकान फीका पकवान निकल ही गया था। हम जिस टेबल पर खा रहे थे उसी में एक और लड़का खा रहा था। वो बताने लगा कि कैसे उसके दादाजी भी यहीं से खाते थे। इसके बाद वो थोड़ा बहुत इधर का इतिहास बताने लगा। वो कह रहा था कि पहले ये ठेले में बेचते थे और एक बार जब इनके ऊपर इनकम टैक्स वालों की रेड पड़ी तो उन्होंने कचरे के डिब्बे में मौजूद प्लेट गिनकर पता लगाया कि ये लोग दिन में कितनी प्लेट बेचते हैं। किस्सा रोचक था और सुनते सुनते खाने में मज़ा आ रहा था। मैं तो इस बात की कल्पना करने लगा कि कैसे उन्होंने रेड डाली होगी और किस तरह उन्होंने पकड़ा होगा। वैसे भी खाने के व्यापारियों की इनकम का पता लगाना मुश्किल ही होता है। मुझे याद है कि जब हम स्कूल में थे तो मेरे एक सहपाठी के पिताजी की दुकान और ट्रक चलते थे। लेकिन जब स्कूल में अभिभावकों की महाना आय के विषय में जानकारी देनी होती तो वो पाँच हजार ही बताते थे जबकि नौकरी पेशा लोगों की हमेशा इनसे ज्यादा रहती थी। उस वक्त मुझे काफी हैरानी होती थी लेकिन मुझे पता था कि नौकरी वालों की तो पे स्लिप होती है जिससे पता चल जाता है लेकिन व्यापारियों का कुछ भी नहीं होता। इसलिए इधर मिले लड़के की इनकम टैक्स वाली बात पर यकीन करने में हमे कोई परेशानी नहीं हुई।
बातों की जलेबियाँ छन रही थीं जिनमें योगी भाई ने उन्हें काफी प्रसिद्ध छोले भटूरों वाले दुकानों के विषय में बताया। वो भाई भी अपने तरफ से कुछ एक ठीयों के नाम ले रहे थे। दोनों ही खाने के शौकीन लोग बात कर रहे थे और मैं केवल सुन रहा था। कुछ देर में हमने अपनी अपनी प्लेट खत्म की। बातें भी खत्म की और उन भाई से इजाजत लेकर हम लोग दुकान से बाहर आ गये।
हम बाहर निकले तो मुझे चाय की तलाश थी। चाय के लिए निगाह घुमा ही रहा था कि योगी भाई को एक चाट वाला दिख गया। वो दही भल्ले और गोल गप्पे बेच रहा था। योगी भाई ने कहा कि वो गोल गप्पे लेना चाहते हैं। मैंने दही भल्ले चुना। फिर हमने एक एक प्लेट दही भल्ले और एक प्लेट गोलगप्पे खाए। मजा आ गया।
चाट खाने के बाद योगी भाई ने कहा कि वो एक जगह जानते हैं जहाँ हिन्दी के पल्प मिल सकते हैं। यह दुकान वाला एक पुल के नीचे बैठता था। योगी भाई ने बताया कि वो अक्सर उधर पहुँच जाते हैं। अगर उपन्यास मिलता था तो थोड़ा चलने में मुझे क्या दिक्कत होनी थी। अब हम उधर की तरफ बढ़ चले। हम उधर पहुँचे तो कमलकांत श्रृंखला के कुछ उपन्यास तो रखे थे लेकिन प्रेत मण्डली नहीं था। यह दुकान नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के बगल में थी। हम वापिस आ गये। अब हमे चाय की तलाश थी। हम लोग चाय की दुकान की तरफ बढे लेकिन यकायक मेरा जलेबी खाने का मन बोल गया तो योगी भाई ने कहा कि नजदीक ही बीकानेर स्वीट्स है तो उधर चलते हैं। अब अंधे को क्या चाहिए दो आँखें। हम लोग अब उधर की तरफ चलने लगे।
हम बीकानेर स्वीट्स पहुँचे और हमने सौ ग्राम जलेबी,एक स्पेशल मालपूडा विद रबड़ी और एक मालपूडा हलवा लिया। ये तीन आइटम हमने मिल बाँट कर खाए।
अब पेट फुल हो गया था। अब बस एक चाय की दरकार थी। उसके पश्चात हम पैदल ही राजीव चौक तक जाने वाले थे। मैंने देखा कि रोड पार करके एक चाय वाला था। फिर क्या था। रोड क्रॉस की और चाय वाले तक पहुँचे। उधर पहुँचकर एक कप चाय मैंने पी और वो पीने के पश्चात हम लोग राजीव चौक की तरफ बढ़ गये। चलते चलते कुछ ही दूर में हम लोग राजीव चौक पहुँच गये। उधर से हुडा के लिए मेट्रो पकड़नी थी। हम लोगों ने एंट्री की और मेट्रो के आने के पश्चात उस पर चढ़कर अपने गंतव्य स्थल की ओर बढ़ने लगे।
ख़ूब खा लिया था और अब सीधा रूम में जाना था। अभी दिन समाप्त नहीं हुआ था। मुझे एक आध जगह और जाना था। योगी भाई ने केन्द्रीय सचिवालय पहुँचकर विदा ली और फिर मैंने फोन पर सुपरनैचरल का एक एपिसोड लगा दिया था। काफी चलना हो गया था और खाना भी काफी हो गया था। मेरा कुछ पढ़ने का मन नहीं कर रहा था तो एक एपिसोड देखकर ही वक्त काटना बेहतर था। एपिसोड देखते हुए कब एम जी रोड आ गया मुझे इसका पता ही नहीं चला।
मैं मेट्रो से निकला और ऑटो पकड़ कर बस स्टैंड पहुँचा। उधर से मैं पैदल रूम के लिए बढ़ने लगा। अब मुझे रूम में पहुंचना था।
काल कोठरी में फक्कड-घुमक्कड़
रूम में पहुँचकर मुझे शेव करना था और उसके बाद का कुछ और प्लान था। मैं रूम में पहुँचा।किताबें सेट की और उसके बाद शेव किया। फिर जल्दी जल्दी तैयार होकर रूम से निकला।
मुझे अब आचार्यपुरी जाना था।यह बस स्टैंड के नज़दीक ही है। मैं रूम से निकला और फिर ऑटो लेकर बस स्टैंड पहुँचा।यहाँ से पैदल आचार्यपुरी जाना था जिसमें मुश्किल से पांच से दस मिनट लगते।
आचार्यपुरी में रंग परिवर्तन स्टूडियो है। यह थिएटर ग्रुप महेश वशिष्ट जी का है। मेरी दोस्त निधि भी उधर अभिनय करती है।उसी के माध्यम से मुझे रंग परिवर्तन के विषय में पता चला था। उधर हर रविवार को कोई न कोई प्रस्तुति होती है।
वैसे तो मैं अक्सर सप्ताहांत में घूमने निकल जाता हूँ लेकिन अगर मैं गुरुग्राम में होता हूँ तो रविवार को रंग परिवर्तन चले जाता हूँ। रविवार को अक्सर साढ़े छः बजे से शो होते हैं और ये शो निशुल्क होते हैं।
अगर आपको ज्यादा जानकारी चाहिए तो आप रंग परिवर्तन के फेसबुक पृष्ठ पर उनसे जुड़ सकते हैं। इस पृष्ठ के माध्यम से वो आने वाले शोज के विषय में जानकारी देते रहते हैं। उनके फेसबुक पृष्ठ का लिंक निम्न है:
रंग परिवर्तन
अगर आपको रंगमंच में रूचि है और आपको नाटक देखना पसंद है तो आपको एक बार इधर ज़रूर जाना चाहिए।
इस बार 'स्वदेश दीपक जी' का नाटक कालकोठरी का रंगपरिवर्तन में मंचन हुआ था। नाटक बेहतरीन था। यह नाटक रंगमंच के कलाकारों की ज़िन्दगी के इर्द गिर्द घूमता है। उनके जीवन से जुडी परेशानियों को बयान करता है। आज के वक्त में क्या आदर्शवादी होना या आदर्शवाद की बातें करना क्या सचमुच मूर्खता है? इस प्रश्न को भी यह नाटक उठाता है। कई जगह यह हँसाता है तो कई जगह मर्म को छूकर दुखी भी कर देता है। रंगमंच में जो सरकारी अफसरों द्वारा जोड़ तोड़ किया जाता है वह भी यह दर्शाने में कामयाब होता है।
मुझे यह प्रस्तुति देखने में काफी आनंद आया। कई जगह अभिनय इतना सशक्त था कि रोंगटे खड़े हो गए थे। सभी कलाकारों का अभिनय उम्दा था। मैं कोई विशेषज्ञ तो नहीं हूँ लेकिन एक दर्शक के नाते मुझे तो अच्छी ही लगी थी।
चलिए अब देखिये इस नाटक की कुछ झलकियाँ।
प्ले साढ़े छः बजे शुरू हुआ था और आठ बजे करीब तक चला था। अब मुझे रूम के तरफ जाना था। मैं अपनी दोस्त से मिला, उसे बधाई दी और उसके बाद रूम के लिए निकला। मुझे रूम में जाकर कुछ और काम करना था। क्या काम करना था ये अगली पोस्ट में बताऊंगा।
तब तक के लिए #पढ़ते_रहिये #घूमते_रहिये।
#फक्क्ड़_घुमक्क्ड़
समाप्त
दिल्ली की घुमक्कड़ी के और वृत्तांत आप इस लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
दिल्ली
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घुमक्क्ड़ी
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किताबों को देखते योगी भाई |
इस घुमक्कड़ी की आधारशिला की बात करूँ तो वो राजभारती का उपन्यास रंगमहल के प्रेत था। मैंने कुछ दिनों पहले यह उपन्यास पढ़ना खत्म किया था। जब मैंने उपन्यास खत्म किया तो पता चला कि इस उपन्यास का अगला भाग भी है जिसका नाम प्रेत मण्डली है। अब इस उपन्यास को मैं ढूँढ रहा था। इसके लिए गुडगाँव बस स्टैंड में मौजूद नागपाल बुक स्टाल गया था। उधर काफी हिन्दी के पल्प उपन्यास मिल जाते हैं। परन्तु इस बार मुझे असफलता हासिल हुई। मैंने सोचा कि क्यों न दरियागंज वाले बाज़ार जाकर एक बार देख लिया जाये। फिर मुझे आलस आ रहा था तो मैंने योगी भाई को कॉल किया। पहले मैंने सोचा था कि उनसे दरख्वास्त करूँगा कि अगर उनका दरियागंज का चक्कर लगे तो वो क्या इस उपन्यास को खोज लायेंगे। उन्होंने हामी भी भर दी थी लेकिन फिर मैंने सोचा क्यों न इस बहाने एक चक्कर मैं भी मार लूँ। वैसे भी मुझे उधर गये काफी वक्त हो गया था और कई दिनों से कहीं गया भी नहीं था। एक छोटी सी घुमक्कड़ी भी हो जाएगी और शायद उपन्यास भी पढ़ने को मिल जाये। यही सोचकर मैंने योगी भाई से कहा कि मैं उन्हें सुबह मिलता हूँ और उन्होंने भी इसकी हामी भर दी।
सुबह उठकर मुझे थोड़ी देरी हो गई। निकलते हुए साढ़े दस हो गये थे। मैंने निकलते वक्त योगी भाई को कॉल कर दिया था और उन्होंने कहा कि वो उधर पहुँच जायेंगे। मैंने बात चीत के वक्त ही उन्हें बता दिया कि मैं दिल्ली गेट पौने बारह बारह बजे करीब पहुँच जाऊँगा। उन्होंने भी मुझे आश्वासन दिया कि वो भी मुझे उधर मिल जायेंगे। मेरी योजना थी कि मैं जल्द से जल्द किताबें लेकर लौट आऊंगा। ऐसा इसलिए भी जरूरी था क्योंकि शाम साढ़े छः बजे करीब मुझे कहीं जाना था और उधर जाना जरूरी था।
मैं रूम से निकला। कहने को तो दिसम्बर चल रहा है लेकिन सर्दी मुझे इतनी नहीं लग रही थी। मैं हाल्फ टी शर्ट में ही निकला। ऑटो लेकर पहले गुडगाँव बस स्टैंड पहुँचा और उसके बाद उधर से एम जी रोड मेट्रो का सफर किया। सब कुछ साझा वाला ऑटो ही था। मेट्रो में पहुँचा और प्लेटफार्म में पहुँचकर ट्रेन का इन्तजार करने लगा। जब तक ट्रेन आई तब तक मैंने बैग से फेवर ड्रीम(Fevre Dream) निकाल ली थी। यह जॉर्ज आर आर मार्टिन का उपन्यास है। जॉर्ज आर आर मार्टिन अपने गेम्स ऑफ़ थ्रोन्स सीरियल के लिए काफी चर्चा में रहे हैं। यह टीवी सीरीज उनके अ सोंग ऑफ़ आइस एंड फायर नामक उपन्यास श्रृंखला के उपन्यासों पर आधारित है। जबर्दस्त उपन्यास श्रृंखला है और जबदरस्त सीरियल है। जब मुझे पता चला कि उन्होंने एक उपन्यास ऐसा भी लिखा है जिसमें रक्त पिशाच (वैम्पायर) हैं तो मुझे उस उपन्यास को लेने का मन हो गया और मैंने उस उपन्यास को खरीद कर रख दिया। अब जाकर इसे पढ़ने के लिए निकाला है।
एबनर मार्श एक जहाजों के दस्ते का मालिक होता है जिसे हाल फिलहाल में काफी नुक्सान का सामना करना पड़ता है। ऐसे में जब आर्थिक रूप से बर्बाद हो चुका है तब जोशुआ यॉर्क नामक व्यक्ति उससे सम्पर्क साधता है और उसे अपने जहाज का कप्तान नियुक्त करता है। इस जहाज को बनाने की जिम्मेदारी भी वो एबनर मार्श को ही देता है। मार्श जिस जहाज को बनाता है उसका नाम फेवर ड्रीम रखता है और यहीं से उपन्यास का शीर्षक भी आता है। जोशुआ अपने कुछ अजीब दोस्तों के साथ इस जहाज में सवार हो चुका है और उनका सफर उन्हें किधर ले जायेगा यही उपन्यास का कथानक बनता है। उपन्यास में कुछ वैम्पायर्स की एंट्री हो चुकी है। एक सीन आ चुका है जिसमें वो एक गुलाम का खून चूसते हुए और बाद में उनमे से एक उस गुलाम युवती की गर्दन चीरते हुए दिखलाया गया है। आगे क्या होता है यह तो नहीं पता लेकिन इतना जरूर पता है कि जो होगा वो रोचक ही होगा।
इसी कथानक को मैं पढ़ रहा था और पता ही नहीं चला कि कब केन्द्रीय सचिवालय आ गया। मुझे इधर से वोइलेट लाइन की मेट्रो पकडनी थी जो कि मुझे दिल्ली गेट छोड़ती। मैं केन्द्रीय सचिवालय उतरा और उधर से वायलेट लाइन के लिए मौजूद प्लेटफार्म की तरफ बढ़ा। केंद्रीय सचिवालय से कश्मीरी गेट जाने वाली मेट्रो पर मुझे बैठना था। मैं उधर की तरफ बढ़ा। रास्ते में नक्शा था जिसे देखकर मुझे पता चला कि तीन स्टेशन (जनपथ,मंडी हाउस,आईटीओ) के बाद ही दिल्ली गेट पर मुझे उतरना था।
मैं नीचे पहुंचा और ट्रैन का इंतजार करने लगा। कुछ देर के इतंजार के बाद ही मेट्रो आ गयी और मैं उसमे चढ़
गया। मेट्रो जब मंडी हाउस पहुंची तो मैंने योगी भाई को कॉल किया। वो भी चढ़ चुके थे। इससे हमने अंदाजा लगाया कि शायद हम लोगों ने एक ही मेट्रो पकड़ी थी। मैंने फोन काटा और फेवर ड्रीम के कुछ पृष्ठ पढ़े। फिर दिल्ली गेट आ गया था मैं बाहर निकला। उसी ट्रेन से योगी भाई निकले। उन्होंने जैकेट पहनी हुई थी जिसे देखकर मुझे हैरत हुई क्योंकि गर्मी काफी हो रही थी। उन्होंने कहा शाम को ठंड हो जाती है तो वो पहन कर ही निकलते हैं। ये तर्क भी सही था। हम बगलगीर होकर मिले और फिर दिल्ली गेट से बाहर निकले।
बाहर निकल कर हमने सड़क पार की और कुछ ही देर में हम किताबों के बीच में थे। चारो तरफ किताबें ही किताबें थी।मैंने उन्हें बताया कि मुझे रंग महल के प्रेत का दूसरा भाग प्रेत मण्डली चाहिए। उन्होंने कहा चेक करते हैं।
अब हम घूमने लगे। हम एक जगह पहुँचे तो उधर दस रूपये में उपन्यास मिल रहे थे। मैंने एक नज़र मारी तो मुझे दिखा कि ज्यादातर उपन्यास विज्ञान गल्प हैं। मुझे इस विषय के उपन्यासों में रूचि रही है तो मैंने 100 रूपये के उपन्यास खरीदने का मन बनाया। मैंने कुछ 10 उपन्यास लिए और उनके 100 रूपये अदा किये।
वो उपन्यास निम्न थे:
- Buried Evidence - Nancy Taylor
- The Survival Game - Collin Kapp
- Mojave Wells - L Dean James
- The Name of the Game was Murder - Joan Lowry Nixon
- The Third Lady - Shizuko Natsuki
- Cromm - Kenneth C Flint
- The Ion War - Colin Kapp
- The Red Tap War - Jack L. Chalker, Mike Resnick, George Alec Effinger
- Contrary Blues - Jim Billheimer
- Parasite War - Tim Sullivan
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10 रूपये प्रति उपन्यास |
हम फिर आगे बढ़ गये। मैंने अब फैसला कर लिया था कि मैं खाली वही उपन्यास लूँगा जो कि लेने मैं आया था। यह फैसला करके हम लोग आगे बढ़ रहे थे। मुझे कहीं वो उपन्यास नहीं दिख रहा था जिसकी मुझे जरूरत थी। मैंने एक दो फोटो भी ली। हम ऐसे ही आगे बढ़ रहे थे कि मुझे एक जगह एक ऐसा उपन्यास दिखा जिसे पढ़ने की इच्छा काफी दिनों से थी। यह जेम्स बांड श्रृंखला का उपन्यास था। मैंने इस श्रृंखला का केवल ओक्टोपुसी ही पढ़ा है। इसलिए मैं इस जगह पर रुक गया। बेचने वाले भाई से पता किया तो उन्होंने बताया कि वो बीस रूपये का उपन्यास बेच रहे थे। जब मैं उधर खड़ा हुआ तो मुझे एक दो उपन्यास और पसंद आ गये और मैंने पाँच उपन्यास लेने का मन बना लिया। मैंने 100 रूपये में निम्न उपन्यास लिए:
- Gold Mine - Wilbur Smith
- Life Expectancy - Dean Koontz
- Dolores Claiborne- Stephen King
- The Remorseful Day - Colin Dexter
- Gold Finger - Ian Fleming
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बीस रूपये प्रति उपन्यास के दर से खरीदे गये |
चलते चलते हम एक ऐसी जगह पहुँचे जहाँ हमे सामने दिल्ली गेट दिख रहा था। इतनी भीड़ और चहल पहल में भी वह आपका ध्यान आकर्षित कर ही देता है।
दिल्ली गेट का निर्माण शाह जहाँ ने 1638 में किया था। दिल्ली के सातवें शहर शाहजहानाबाद को जो दीवार घेरती थी उसी के हिस्से के रूप में इसको बनाया गया था। शाह जहाँ जामा मस्जिद जाते हुए इस दरवाजे का प्रयोग करता था। अब यह एक संरक्षित इमारत है।
मैंने इसकी भी एक दो फोटो ली। योगी भाई ने दाएं तरफ इशारा करके बताया कि उधर की तरफ कुछ हिन्दी पल्प मिल जायेगा तो हम उधर को ही मुड़ गए।
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सामने दिल्ली गेट है और इधर किताबें लगी हैं। दाएं तरफ को ही हिन्दी पल्प वाले भाई साहब की दुकान थी। |
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दिल्ली गेट |
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पोज़ देते योगी भाई |
कुछ ही देर में हम उस दुकान के पास जिसकी हमे तलाश थी। उधर हमें राज भारती की प्रेत मण्डली तो नहीं मिली लेकिन सुरेन्द्र मोहन पाठक जी की बिचौलिया मिल गई। मैंने यह उपन्यास नहीं पढ़ा था इसलिए मैंने इसकी कीमत योगी भाई से पुछवाई। दुकानदार ने तीस बोली तो मैंने योगी भाई को मना करते हुए खुद ही इसकी कीमत अदा कर दी।इसी बहाने पाठक साहब का एक और उपन्यास मेरे संग्रह में आ गया। मैं खुश था। अब प्रेत मण्डली मिलने का दुःख मुझे उतना नहीं साल रहा था।
इसके बाद एक और दुकान पर हम पहुँचे। वहाँ भी पाठक साहब के उपन्यास हमे दिखे। योगी भाई बता रहे थे कि वो ऊँचे दाम में उन उपन्यासों को बेचता है। मैंने उनसे एक उपन्यास खबरदार शहरी के विषय में पूछा।
मैं - "वो उपन्यास कितने का है?"
दुकानदार भाई- "कौन सा?"
मैं - "वो जो टॉप पर है। खबरदार शहरी। "
उन्होने किताब उठाई। उसे उल्टा पलटा और फिर दूसरी तरफ खड़े सज्जन से इशारों में पूछा। उधर से कुछ इशारा हुआ और वो दुकानदार साहब बोले - "200 रूपये"
मैं - "इतना महंगा? ये सुरेन्द्र मोहन पाठक कौन हैं जो इतना महंगा उपन्यास मिल रहा है?"
दुकानदार साहब- "अब उपन्यास छपता नहीं है न इसलिए महंगा है।"
मैंने योगी भाई को देखा वो मुस्करा रहे थे। उनकी बात सही साबित हुई थी। उस किताब के 200 रूपये देना मुझे वाजिब न लगा तो हम उन्हें नमस्कार बोल कर आगे बढ़ गये। थोड़ी देर और टहले। अब मार्किट खत्म हो चुका था। ज्यादा कुछ हमने लेना भी नहीं था। किताबे दिखती तो मैं तो अपनी गर्दन घुमा देता। एक किताब लेने आया था और अब तक सोलह ले चुका था। ऐसे में सस्ते में कोई पसंद की मिल जाती तो मैं और ले लेता। अब इधर से निकलने में ही भलाई थी।
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सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यास इधर मिले -खबरदार शहरी 200 का बताया गया था |
भुक्कड़ घुमक्कड़
मार्किट से निकलकर अब मेरा चाय पीने का मन हो रहा था और फिर लंच भी करना था। मैंने योगी भाई से पूछा तो उन्होंने कहा कि कल उनका एक क्लाइंट सीता राम के छोले भटूरों की काफी तारीफ़ कर रहा था तो उधर चलेंगे। मैंने कहा कि चाय पीते हैं, फिर चलेंगे। योगी भाई तो चाय पीते नहीं हैं लेकिन मुझे तो पीनी थी इसलिए हम लोग चाय की टपरी खोजने लगे। जिधर मार्किट लगता है उसके सामने वाली सडक पर एक चाय वाला था। हम जब पिछले बार आये थे तो उधर चाय पी थी, मुझे यह तो याद था। इसलिए पहले सड़क पार की और चाय की उस दुकान को खोजने लगे। कुछ ही देर में हम चाय की दुकान के आगे थे। एक चाय का आर्डर दिया। योगी भाई को पूछा वो कुछ खायेंगे तो उन्होंने कहा कि सीधा सीताराम के छोले भटूरे ही वो खायेंगे। अब हम चाय का इन्तजार करने लगे। थोड़ी देर बाद चाय बन गयी और मैं एक कप लेकर उसे चुसकने लगा।
इसी दौरान के घटना हुई। हम लोग चाय पी रहे थे और एक व्यक्ति उधर अपने स्कूटर पर चाबी लगा रहा था कि एक बन्दा उसके पास आया और उससे कहने लगा कि उसने उसे पास्ता खिलाने का वादा किया था। जो व्यक्ति आया था, उसके बाल और दाड़ी बढ़ी हुई थी। उसकी हालत ऐसी लग रही थी जैसे मानसिक रूप से वह स्वस्थ नहीं हो। उसने आदमी को दोबारा बोला तो आदमी ने दुकानदार से उसे ब्रेड पकोड़ा देने को बोला। वो व्यक्ति शायद उसे ही पास्ता कह रहा था। उसने ब्रेड पकोड़े के पैसे दिए और उसने हमसे कहा खाने के पैसे नहीं होते इनके पास लेकिन शिखर(गुटखा) के पैसे जरूर होते हैं। जो व्यक्ति आया था उसे तो अपने मतलब की चीज मिल गई थी और इसलिए वह मराठी में कुछ कुछ बोलता हुआ उधर से चले गया।
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जब तक चाय बनती है तब तक एक सेल्फी ही ले लें |
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अब पीते हैं चाय |
मैंने उसकी बात का जवाब दिया खाना तो कोई न कोई खिला देगा शिखर जैसी चीज खरीदनी ही पड़ेगी। यह सुनकर योगी भाई कहने लगे कि इन्हे कम न समझो ये शिखर भी मांग लेते हैं। फिर वह अपना अनुभव बताने लगे जब वो भैरव के मंदिर गये थे। उस मंदिर में शराब चढ़ती है और उधर मौजूद भिखारी इस शराब की ताक में रहते हैं। उधर मौजूद भिखारी पुलिस के सामने ही शारब पीकर नशे में रहते हैं और फिर भी माँगते रहते हैं। यही सब बातचीत चल रही थी कि चाय खत्म हो गई। मैंने चाय के पैसे अदा किये और फिर हम लोग अब रिक्शा देखने लगे।
एक ऑटो वाले से बात की तो वो सत्तर रूपये माँग रहा था। हम लोग पचास देने को तैयार थे लेकिन वो इतने नहीं ले रहा था।वो साठ तक आया। हम पचास में अड़े हुए थे लेकिन वो मान नहीं रहा था। तभी उधर शेयरिंग वाला ई रिक्शा आया और हम लोग उस पर चढ़ गये। हम लोगों को चढ़ता देख वो पचास के लिए राजी हुआ लेकिन तब तक हम लोग आगे बढ़ गए थे।
रिक्शा आगे बढ़ने लगा तो हम लोग उपन्यासों की बातचीत करने लगे। बातचीत का विषय इस पर चले गया कि कैसे नए उपन्यासकारों को प्रकाशन भी प्रमोट नहीं कर रहा है। इसके बाद पल्प में कैसे विदेशी लेखकों के कथानक उठाये जाते हैं इस पर भी बात हुई। हमारे सामने एक बुजुर्ग बैठे हुए थे। वो भी हमारी बातचीत सुन रहे थे। जैसे ही हमने कथानक उठाने की बात की तो वो भी मुस्कराने लगे थे। एक बार पूछने का मन तो किया था कि आप भी पढ़ते हैं क्या? लेकिन फिर नहीं पूछा। हम लोग अपनी ही बातों में व्यस्त थे लेकिन मैं कनखियों से उनकी प्रतिक्रिया देखता जा रहा था। लग रहा था जैसे उन्हें हमारी बातों में रूचि हो।
शेयरिंग वाले ई-रिक्शा से हम अजमेरी गेट तक गये और फिर उधर से एक और शेयरिंग लेकर पहाड़गंज की तरफ उस सड़क के मुहाने तक गये थे जिसके अन्दर सीताराम छोले वाले की दुकान थी। अजमेरी गेट से जिस ऑटो में हम बैठे उसमें हमे दस बारह मिनट बैठना पड़ा था क्योंकि केवल हम दो ही सवारी थे। उस भाई ने कुछ देर तो इंतजार किया लेकिन जब कोई नहीं आया तो हमे लेकर ही आगे बढ़ा।
खैर, गली में पहुँचने के बाद हमने उसके पैसे दिए और सीताराम की दुकान की तरफ बढ़ गये। चलते हुए योगी भाई बता रहे थे कि यह छोले वाला शायद काफी प्रसिद्ध है। दुकान के बाहर हम पहुँचे तो उसकी प्रसिद्धि दृष्टिगोचर हो रही थी। काफी भीड़ लगी हुई थी। हम किसी तरह अन्दर गये और हमने एक एक छोले भठूरे की प्लेट और एक एक लस्सी का आर्डर दिया। हमे पर्ची मिली और हम उन्हें लेकर काउंटर की तरफ बढ़े। मैंने लस्सी ली और योगी भाई भठूरों की लम्बी लाइन में लगे। भठूरे लेकर वो आये तो मुझे थोड़ी हैरानी हुई। वो भटूरे कम कुलचे ज्यादा लग रहे थे। योगी भाई भी निराश से लग रहे थे।
खैर, हमने एक जगह ली और खाने लगे। स्वाद अच्छा था। पर थोड़ा एंटी क्लिमक्टिक तो था। योगी भाई के मुँह से ऊँची दुकान फीका पकवान निकल ही गया था। हम जिस टेबल पर खा रहे थे उसी में एक और लड़का खा रहा था। वो बताने लगा कि कैसे उसके दादाजी भी यहीं से खाते थे। इसके बाद वो थोड़ा बहुत इधर का इतिहास बताने लगा। वो कह रहा था कि पहले ये ठेले में बेचते थे और एक बार जब इनके ऊपर इनकम टैक्स वालों की रेड पड़ी तो उन्होंने कचरे के डिब्बे में मौजूद प्लेट गिनकर पता लगाया कि ये लोग दिन में कितनी प्लेट बेचते हैं। किस्सा रोचक था और सुनते सुनते खाने में मज़ा आ रहा था। मैं तो इस बात की कल्पना करने लगा कि कैसे उन्होंने रेड डाली होगी और किस तरह उन्होंने पकड़ा होगा। वैसे भी खाने के व्यापारियों की इनकम का पता लगाना मुश्किल ही होता है। मुझे याद है कि जब हम स्कूल में थे तो मेरे एक सहपाठी के पिताजी की दुकान और ट्रक चलते थे। लेकिन जब स्कूल में अभिभावकों की महाना आय के विषय में जानकारी देनी होती तो वो पाँच हजार ही बताते थे जबकि नौकरी पेशा लोगों की हमेशा इनसे ज्यादा रहती थी। उस वक्त मुझे काफी हैरानी होती थी लेकिन मुझे पता था कि नौकरी वालों की तो पे स्लिप होती है जिससे पता चल जाता है लेकिन व्यापारियों का कुछ भी नहीं होता। इसलिए इधर मिले लड़के की इनकम टैक्स वाली बात पर यकीन करने में हमे कोई परेशानी नहीं हुई।
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सीताराम के छोले भठूरे |
बातों की जलेबियाँ छन रही थीं जिनमें योगी भाई ने उन्हें काफी प्रसिद्ध छोले भटूरों वाले दुकानों के विषय में बताया। वो भाई भी अपने तरफ से कुछ एक ठीयों के नाम ले रहे थे। दोनों ही खाने के शौकीन लोग बात कर रहे थे और मैं केवल सुन रहा था। कुछ देर में हमने अपनी अपनी प्लेट खत्म की। बातें भी खत्म की और उन भाई से इजाजत लेकर हम लोग दुकान से बाहर आ गये।
हम बाहर निकले तो मुझे चाय की तलाश थी। चाय के लिए निगाह घुमा ही रहा था कि योगी भाई को एक चाट वाला दिख गया। वो दही भल्ले और गोल गप्पे बेच रहा था। योगी भाई ने कहा कि वो गोल गप्पे लेना चाहते हैं। मैंने दही भल्ले चुना। फिर हमने एक एक प्लेट दही भल्ले और एक प्लेट गोलगप्पे खाए। मजा आ गया।
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दही भल्ले |
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खाये जाओ खाये जाओ!! घूमो फिरो!पचाये जाओ!! |
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गोल गोल गोल गप्पे!! |
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गोलगप्पे खाते हुए योगी भाई |
चाट खाने के बाद योगी भाई ने कहा कि वो एक जगह जानते हैं जहाँ हिन्दी के पल्प मिल सकते हैं। यह दुकान वाला एक पुल के नीचे बैठता था। योगी भाई ने बताया कि वो अक्सर उधर पहुँच जाते हैं। अगर उपन्यास मिलता था तो थोड़ा चलने में मुझे क्या दिक्कत होनी थी। अब हम उधर की तरफ बढ़ चले। हम उधर पहुँचे तो कमलकांत श्रृंखला के कुछ उपन्यास तो रखे थे लेकिन प्रेत मण्डली नहीं था। यह दुकान नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के बगल में थी। हम वापिस आ गये। अब हमे चाय की तलाश थी। हम लोग चाय की दुकान की तरफ बढे लेकिन यकायक मेरा जलेबी खाने का मन बोल गया तो योगी भाई ने कहा कि नजदीक ही बीकानेर स्वीट्स है तो उधर चलते हैं। अब अंधे को क्या चाहिए दो आँखें। हम लोग अब उधर की तरफ चलने लगे।
हम बीकानेर स्वीट्स पहुँचे और हमने सौ ग्राम जलेबी,एक स्पेशल मालपूडा विद रबड़ी और एक मालपूडा हलवा लिया। ये तीन आइटम हमने मिल बाँट कर खाए।
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बीकानेर स्वीट शॉप के सामने |
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जलेबी,स्पेशल मालपूडा रबड़ी के साथ, मालपूडा हलवे के साथ |
अब पेट फुल हो गया था। अब बस एक चाय की दरकार थी। उसके पश्चात हम पैदल ही राजीव चौक तक जाने वाले थे। मैंने देखा कि रोड पार करके एक चाय वाला था। फिर क्या था। रोड क्रॉस की और चाय वाले तक पहुँचे। उधर पहुँचकर एक कप चाय मैंने पी और वो पीने के पश्चात हम लोग राजीव चौक की तरफ बढ़ गये। चलते चलते कुछ ही दूर में हम लोग राजीव चौक पहुँच गये। उधर से हुडा के लिए मेट्रो पकड़नी थी। हम लोगों ने एंट्री की और मेट्रो के आने के पश्चात उस पर चढ़कर अपने गंतव्य स्थल की ओर बढ़ने लगे।
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सब खाने के बाद पचाने के लिए चाय |
ख़ूब खा लिया था और अब सीधा रूम में जाना था। अभी दिन समाप्त नहीं हुआ था। मुझे एक आध जगह और जाना था। योगी भाई ने केन्द्रीय सचिवालय पहुँचकर विदा ली और फिर मैंने फोन पर सुपरनैचरल का एक एपिसोड लगा दिया था। काफी चलना हो गया था और खाना भी काफी हो गया था। मेरा कुछ पढ़ने का मन नहीं कर रहा था तो एक एपिसोड देखकर ही वक्त काटना बेहतर था। एपिसोड देखते हुए कब एम जी रोड आ गया मुझे इसका पता ही नहीं चला।
मैं मेट्रो से निकला और ऑटो पकड़ कर बस स्टैंड पहुँचा। उधर से मैं पैदल रूम के लिए बढ़ने लगा। अब मुझे रूम में पहुंचना था।
काल कोठरी में फक्कड-घुमक्कड़
रूम में पहुँचकर मुझे शेव करना था और उसके बाद का कुछ और प्लान था। मैं रूम में पहुँचा।किताबें सेट की और उसके बाद शेव किया। फिर जल्दी जल्दी तैयार होकर रूम से निकला।
मुझे अब आचार्यपुरी जाना था।यह बस स्टैंड के नज़दीक ही है। मैं रूम से निकला और फिर ऑटो लेकर बस स्टैंड पहुँचा।यहाँ से पैदल आचार्यपुरी जाना था जिसमें मुश्किल से पांच से दस मिनट लगते।
आचार्यपुरी में रंग परिवर्तन स्टूडियो है। यह थिएटर ग्रुप महेश वशिष्ट जी का है। मेरी दोस्त निधि भी उधर अभिनय करती है।उसी के माध्यम से मुझे रंग परिवर्तन के विषय में पता चला था। उधर हर रविवार को कोई न कोई प्रस्तुति होती है।
वैसे तो मैं अक्सर सप्ताहांत में घूमने निकल जाता हूँ लेकिन अगर मैं गुरुग्राम में होता हूँ तो रविवार को रंग परिवर्तन चले जाता हूँ। रविवार को अक्सर साढ़े छः बजे से शो होते हैं और ये शो निशुल्क होते हैं।
अगर आपको ज्यादा जानकारी चाहिए तो आप रंग परिवर्तन के फेसबुक पृष्ठ पर उनसे जुड़ सकते हैं। इस पृष्ठ के माध्यम से वो आने वाले शोज के विषय में जानकारी देते रहते हैं। उनके फेसबुक पृष्ठ का लिंक निम्न है:
रंग परिवर्तन
अगर आपको रंगमंच में रूचि है और आपको नाटक देखना पसंद है तो आपको एक बार इधर ज़रूर जाना चाहिए।
इस बार 'स्वदेश दीपक जी' का नाटक कालकोठरी का रंगपरिवर्तन में मंचन हुआ था। नाटक बेहतरीन था। यह नाटक रंगमंच के कलाकारों की ज़िन्दगी के इर्द गिर्द घूमता है। उनके जीवन से जुडी परेशानियों को बयान करता है। आज के वक्त में क्या आदर्शवादी होना या आदर्शवाद की बातें करना क्या सचमुच मूर्खता है? इस प्रश्न को भी यह नाटक उठाता है। कई जगह यह हँसाता है तो कई जगह मर्म को छूकर दुखी भी कर देता है। रंगमंच में जो सरकारी अफसरों द्वारा जोड़ तोड़ किया जाता है वह भी यह दर्शाने में कामयाब होता है।
मुझे यह प्रस्तुति देखने में काफी आनंद आया। कई जगह अभिनय इतना सशक्त था कि रोंगटे खड़े हो गए थे। सभी कलाकारों का अभिनय उम्दा था। मैं कोई विशेषज्ञ तो नहीं हूँ लेकिन एक दर्शक के नाते मुझे तो अच्छी ही लगी थी।
चलिए अब देखिये इस नाटक की कुछ झलकियाँ।
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महेश वशिष्ठ जी नाटक के सफल मंचन के बाद |
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नाटक में अभिनय करने वाले सभी लोग |
प्ले साढ़े छः बजे शुरू हुआ था और आठ बजे करीब तक चला था। अब मुझे रूम के तरफ जाना था। मैं अपनी दोस्त से मिला, उसे बधाई दी और उसके बाद रूम के लिए निकला। मुझे रूम में जाकर कुछ और काम करना था। क्या काम करना था ये अगली पोस्ट में बताऊंगा।
तब तक के लिए #पढ़ते_रहिये #घूमते_रहिये।
#फक्क्ड़_घुमक्क्ड़
समाप्त
दिल्ली की घुमक्कड़ी के और वृत्तांत आप इस लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
दिल्ली
घुमक्क्ड़ी के दूसरे वृत्तांत आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
घुमक्क्ड़ी
बढ़िया लिखते हैं विकास जी।
जवाब देंहटाएंछोले भटूरे तो आपको दरियागंज में भी मिलते, वो भी वही फूले वाले भटूरे जो आपको खाने थे।
चलिए कभी और सही।
लिखते रहिये और घूमते रहिये...
जी, सही कहा आपने। अगली बार ही सही।
हटाएंदरियागंज दिल्ली गेट घुमाने को थैंक्यू आपका यात्रा वृतांत बढ़िया लगता 😊👌👌👌👌😊😊
जवाब देंहटाएंजी,शुक्रियाक। आपकी टिप्पणी भी मुझे प्रोत्साहित करता है।
हटाएंदिल्ली का दरियागंज अच्छा पुस्तक बाजार है। मैं यहाँ दो तीन बार आ चुका हूँ।
जवाब देंहटाएंआपने शाहजहाँ द्वारा निर्मित दरवाजे की अच्छी जानकारी दी। यह मेरी जिज्ञासा का समाधान है।
आपने पढने के साथ साथ खाने के भी शौकीन हो।
धन्यवाद ।
- गुरप्रीत सिंह
www.sahityadesh.blogspot.in
जी शुक्रिया। मैं गाहे बगाहे आता जाता रहता हूँ उधर।
हटाएंबहुत बढ़िया। सब कुछ आंखों के सामने था
जवाब देंहटाएंजी शुक्रिया। आपकी टिपण्णी प्रोत्साहित करती हैं।
हटाएंबढ़िया travelogue/यात्रा वृतांत,आपका लेखन इतना सजीव है लगता है जैसे योगी भाई नहीं मैं आपके साथ दरियागंज घूम आया हूँ, उम्दा👍
जवाब देंहटाएंजी शुक्रिया,अमित जी। आपकी टिप्पणी प्रोत्साहित करती रहती हैं।
हटाएंबहुत बढ़िया विकास जी
जवाब देंहटाएंशुक्रिया,महेश जी। आपकी टिप्पणी ही और बेहतर करने के लिए प्रोत्साहित करती हैं।
हटाएंभाई किताब पढ़ते पढ़ते घुमक्कडी करने वाले कम ही होते है....सीताराम के छोले भटूरे का नाम काफी सुना है....बढ़िया भुक्कड़ घुमक्कडी मुँह में पानी आ गया...
जवाब देंहटाएंजी शुक्रिया प्रतीक जी। कहानियों के साथ सफ़र करने का अपना मजा है। आप एक साथ कई यात्राएं करते हैं। यही इस अनुभव को अनूठा बनाता है।
हटाएंआपकी घुमक्कड़ी ने मुझे भी बहुत कुछ याद दिला दिया । कभी कभी मैं भी उपन्यास के दूसरे भाग की प्रतीक्षा करते हुए यूं ही भाई को दौड़ाया करती थी ।
जवाब देंहटाएंजी,कहानी अधूरी छूटी हो तो एक तरह की छटपटाहट होती है। अब सीधे प्रकाशक जी से ही मँगवाऊँगा। आगे क्या हुआ होगा ये प्रश्न तो अभी भी साल रहा है।
हटाएंउपन्यास , चाय, छोले भटूरे , दही भल्ले,गोलगप्पे, जलेबी, मालपुआ रबड़ी और रंग मंच इससे बढ़िया दिन बीत ही नहीं सकता है । शानदार घुमक्कड़ी
जवाब देंहटाएंजी सही कहा आपने। मज़ा आ गया था उस दिन।
हटाएंबढ़िया घुमक्कड़ी और अच्छी पढ़ने की आदत।
जवाब देंहटाएंजी, शुक्रिया।
हटाएंआपके सदके मैंने भी छोले भटूरे चख लिये।
जवाब देंहटाएंबढ़िया लिखा।
जी आभार.....
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