फूलों की घाटी #1: दिल्ली से हरिद्वार

यह यात्रा 14/7/17 से 21/7/2017 के बीच की गई 



शुक्रवार रात और शनिवार तड़के

(कहते हैं देर आयद दुरुस्त आयाद। यही बात इस वृत्तांत के विषय में भी चरित्रार्थ हो रही है। वैसे तो यह यात्रा मैंने पिछ्ले साल करी थी लेकिन लिखने का मौका अब लग रहा है। अब याद करता हूँ तो हँसी भी आती है। क्योंकि यात्रा के दौरान और उसके बाद के कई यात्राओं के साथी राकेश भाई अक्सर कहते थे कि यह वृत्तांत अगले साल ही आएगा। और यह चीज अब सच हो रही है। उन्होंने कल्सुबाई की यात्रा के दौरान भी एक चीज बोली थी जो कि सच हुई। उसके विषय में बाद में लिखूँगा लेकिन अब इतना तो कह सकता हूँ कि राकेश भाई कुछ कुछ भविष्यवक्ता से हो चुके हैं। कम से कम मेरे मामले में तो  उन्हें थोड़ा सम्भलकर बोलना चाहिए। उनका बोला सच ही हो रहा है।  

खैर, भले ही यात्रा को एक साल हो गया है लेकिन समय की धुंध अभी तक इस यात्रा की यादों को ढकने में कामयाब नहीं हो पाई है। इसकी यादें उतनी ही उजली, उतनी ही चटक मेरे मन में अंकित हैं जितने कि उस वक्त थी जब यह यात्रा की गई थी। तो आप भी चलिए इस यात्रा पर मेरे साथ। इस बार यादों के झरोखों में एक साथ सफर करते हैं।)
'फूलों की घाटी' इन तीन शब्दों को सुनकर मेरे ज़हन ने रोमांच सा दौड़ जाता है। जब हम छोटे थे तो फूलों की घाटी को लेकर कई तरह की कहानियाँ हम बच्चों के बीच में प्रचलित थीं। ऐसा कहा जाता  कि भारत में वह एकमात्र ऐसी जगह हैं जहाँ एलियन धरती पर उतरे थे। यह भी कहा जाता था कि जब फूलों की घाटी अपने पूरे जलाल पर होती है तो उधर माहौल इतना ज्यादा खुशबूदार हो जाता  है कि आदमी बर्दाश्त नहीं कर पाता है और उस पर बेहोशी तारी होने लगती है।

यह सब बातें जब मैं में सुनता तो अपनी कल्पना से उसमें और भी फुंदने टांक देता। मेरे लिए फूलों की घाटी एक मिथकीय जगह सी बन गई थी। ऐसी जगह जहाँ एलियन हो सकते हैं तो परियाँ क्यों नहीं हो सकती? अपनी कल्पना के उड़नखटोले पर बैठकर मैं अक्सर फूलों की घाटी तक पहुँच जाता और उधर मौजूद परियों और परग्रहवासियों के साथ मिलकर खूब धमाचौकड़ी मचाता। जब थक जाता तो हम लोग बैठकर मलाई रोटी खाते। जी, उस वक्त मैं सब्जियां नहीं खाता था। मलाई के साथ रोटी खाना ही मुझे पसंद था और चूँकि वो परग्रही और परियाँ मेरी दोस्त थी तो यह बात जरूरी हो जाती थी कि मैं उनके साथ अपना पसंदीदा भोजन बाँटू। हाँ, घाटी में मलाई रोटी कहाँ से आती इस बात पर मैंने ज्यादा विचार नहीं किया था। सपने टूटने का डर था उससे।

लेकिन फिर बचपन गया और साथ में बचपन से जुड़े सपने भी चले गये। 'फूलों की घाटी' की बस एक याद सी रह गई। मैं उसके विषय में सुनता, लोगों को उधर जाते हुए देखता और एक ठंडी आह सी लेकर रह जाता। मैं उधर जाना चाहता था और इसके कोई आसार दिखाई नहीं दे रहे थे।

फिर माउंट अबू की एसएमपियन मीट हुई। मैं उधर पहुँचा और राकेश भाई से मिला। वहाँ पहुँचकर और उनसे मिलकर पता चला कि वो भी एक जबर घुमक्कड़ हैं। और उधर जाकर ही हमने योजना बना दी कि एक तो हम लोग गिरनार पर्वत की चढ़ाई करेंगे और दूसरा उत्तराखंड की तरफ का कुछ प्लान बनायेंगे। फिर गाहे बगाहे हमारी बातचीत होती रहती और ऐसे ही फूलों की घाटी का जिक्र निकला। उन्होंने भी उसके विषय में सुना था और जाने की इच्छा रखते थे। मेरे भी बचपन में देखे स्वप्न आँखों के सामने आ गये और मैं भी जाने के लिए ललायित हो गया। अभी कब जाना था इसका कोई पक्का विचार नहीं बना था।

फिर जून में घर जाना हुआ तो उधर सोनू मामा आये थे (उनके साथ रांसी और कंडोलिया भी गया था। उस घुमक्कड़ी के विषय में जानने के लिए इधर क्लिक करें।)। वो ट्रेवलिंग से जुड़ी कम्पनी में ही कार्यरत हैं तो उन्हें आईडिया भी था। उनसे बातचीत हुई तो उन्होंने भी फूलों की घाटी की तरफ जाने की इच्छा जताई। अब हम दो से तीन लोग हो गये थे। मुझे और क्या चाहिए था। मैं जब घर से वापस गुड़गाँव आया तो राकेश से  भाई से बात की और जुलाई 14-21 का वक्त इसके लिए मुकर्रर कर दिया। फूलों की घाटी अमूमन जून में खुल जाती है तो हम लोग एक महीने बाद उधर जा रहे थे। नेट में पता कर लिया था कि इस वक्त तक काफी फूल भी खिल जाते हैं। वैसे जाने का जुलाई,अगस्त और सितम्बर होता है लेकिन छुट्टियों का भी मसला था। इसलिए सब चीजों का जो समीकरण बैठा उसमें यह हफ्ता फिट था। अब राकेश भाई,मैं और सोनू मामा निर्धारित तारीक के आने का इन्तजार कर रहे थे। यह सब जून में ही निर्धारित हो गया था।

जुलाई आते आते बारिश तेज होने लगी थी। न्यूज़ में खबरे आने लगी थी कि जोशीमठ जाने वाला मार्ग बारिश के कारण खतरनाक बना हुआ है। व्हाटसएप्प में विडियो आते और फोन पर जब घरवालों से बातचीत होती तो उनकी झिड़कियाँ सुनने को मिलती कि ऐसे ही पागलपन के काम करता रहता है। मेरी एक दोस्त है उसने भी मुझे चेताया था कि मैं इस वक्त उधर न जाऊँ। राकेश भाई अपना टिकेट करवा चुके थे। मेरा जाने का विचार था ही। मुझे पता था कि अगर अभी न जा सका तो शायद ही कभी जा पाऊँ। और मैं नहीं चाहता था कि बिना कोशिश किये ही घर बैठ जाऊँ। मैंने राकेश भाई को स्थिति के विषय में बता दिया था। उन्होंने मेरी राय पूछी तो मैंने कहा कि अगर रास्ता बंद हुआ तो वापस लौट आएँगे। कहीं और निकल लेंगे लेकिन बिना कोशिश किये प्लान स्थगित नहीं करेंगे। उनका भी यही सोचना था और हमने प्लान बरकरार रखा। उधर मामा जी भी स्थिति से वाकिफ थे। बारिश का उन्हें पता था और इसलिए उन्होने अपना प्लान स्थगित कर दिया। इसमें कोई बुराई नहीं थी। मैंने उनसे कहा कि इस बार नहीं तो फिर कभी। उन्होंने हामी भरी और एक ट्रेवल एजेंसी का नंबर हमे दिया। वो अपने एंड से आने की इटेनेरी बना रहे थे तो उसी चक्कर में यह नंबर उन्हें मिला था।

मेरा प्लान तो सिम्पल था। ज्यादा योजनाओं के चक्कर में मैं कभी पड़ता नहीं हूँ। चले चलो। फिर जो होगा देखा जाएगा। यही सोच के साथ  निकल जाता हूँ। मैंने नम्बर लिया और राकेश भाई को कॉल करके बता दिया कि एक साथी कम हो चुका है। कोई दिक्कत तो नहीं। उन्होंने कहा 'नो प्रोब्लेमो'

अब गुरुवार आ चुका था। हमारी बेसिक इटेनेरी कुछ ऐसी दिख रही थी:

  1. शुक्रवार रात को बस से चलेंगे और शनिवार सुबह ऋषिकेश पहुंचेंगे 
  2. शनिवार को ही ऋषिकेश से टैक्सी या गाड़ी से गोविन्दघाट पहुंचेगे 
  3. रविवार को गोविन्दघाट से घांघरिया तक की ट्रेक करेंगे 
  4. सोमवार को फूलों की घाटी देखेंगे 
  5. मंगवार को हेमकुंड साहब के दर्शन करेंगे 
  6. बुधवार को फिर से फूलों की घाटी देखेंगे और वापस गोविन्दघाट आयेंगे 
  7. गुरूवार को ऋषिकेश आयेंगे और उधर थोड़ा घूमेंगे 
  8. शुक्रवार को दिल्ली पहुँच जायेंगे जहाँ से राकेश भाई ने रात को ट्रेन पकड़नी थी और मुझे शनिवार और रविवार को आराम फरमाने को मिल जायेगा।


तो यह कुछ बेसिक प्लान था जिससे मैंने राकेश भाई को अवगत करवा लिया था। इसमें कई पेंच थे लेकिन कुछ न कुछ करके आगे उन्हें कसा जा सकता था। मामा का दिया नंबर था ही तो मैं बात करना चाहता तो कर सकता था। वैसे मामा ने मुझसे कहा था कि तुम बात करना वो ट्रैकर रोक के रखेंगे। मैंने हामी भर ली थी लेकिन फोन पर बात करना मुझे कभी भी पंसद नहीं रहा है तो मैंने इस चीज को आखिरी वक्त के लिए टाल रखा था।

गुरुवार की शाम आई तो राकेश भाई से बातचीत हुई। वो ट्रेन पर बैठ गये थे और आने को तैयार थे। फूलों की घाटी की तरफ मौसम ठंडा था तो मैंने पहले ही कह दिया था कि थोड़ा गर्म कपड़े रखें। फिर बारिश हो रही थी तो उससे बचने के लिए रेनकोट वगेरह भी रख लें ताकि घूमने में आसानी हो। गुरुवार को उन्होंने बताया था कि वो यह सब रखकर चल रहे थे। यह गुरुवार रात की बात थी और मैंने यह सुनकर खुद को लानत भेजी। मैंने अब तक कुछ नहीं खरीदा था। मैंने सोचा था कि शुक्रवार को जल्दी ऑफिस से निकल जाऊँगा और फिर डेकेथलोन, जो कि हुडा सिटी सेण्टर में जैसे  मेरे लिए ही बसाया गया था, में से सामान लेकर कश्मीरी गेट को निकल जाऊँगा। मैंने यह सोचकर खुद को दिलासा दी और फिर सो गया। बैग तैयार तो करना नहीं था क्योंकि बैग में जो सामान डालना था वो खरीदना बाकी था।


सुबह जल्दी पाँच बजे करीब उठ गया और चाय पीकर फ्रेश होकर जिम चला गया। जिम से आया तो थोड़ी थकावट भी लग रही थी। मुझे सुबह व्यायाम करने की आदत नहीं है बॉडी में हल्का खिंचाव सा आ गया था। कई बार मेरे साथ ऐसा हो जाता है।मैंने थोड़ा आराम करने की ठानी और सात पौने सात बजे थोड़ा लेट गया।

राकेश भाई से गुरुवार को ही पूछा था कि वो कब तक पहुंचेंगे तो उन्होंने कहा था कि सुबह नौ बजे के करीब। मैं चूँकि पीजी में रहता हूँ तो उसी समय यह निर्धारित कर लिया था कि वे उधर स्टेशन के करीब ही  एक कमरा ले लेंगे और मैं शाम तक उस कमरे में पहुँच जाऊँगा और फिर हम साथ में कश्मीरी गेट चलेंगे क्योंको बस वहीं पकड़नी थी। उनसे एक बार पता किया कि वो किधर तक पहुँचे है और जवाब आने के बाद मैं लेटा था। लेटते ही मुझे नींद आ गई थी और सीधे नौ बजे करीब आँख खुली। उठकर देखा तो ऑफिस के लिए लेट हो गई थी। वैसे भी मुझे आज जल्दी निकलना था तो मैंने सोचा इससे बढ़िया है जाऊँ ही नहीं। मैंने एक मेल लिखकर अपनी एच आर मेनेजर को डाला और फिर उठकर नाश्ता किया। उन्होंने छुट्टी की स्वीकृति दे दी थी। नाश्ता करके मैंने एक दो बार की चाय पी।

अब दस बज गये थे।मैंने सोचा कि ज्यादा  लेट करने की जरूरत नहीं है और यह सोचकर मैं तैयार हुआ और रूम से निकला। मेरे रूम से हुडा सिटी सेण्टर ज्यादा दूर नहीं है। मैंने बस ली और उधर पहुँच गया। मेरा विचार अब ट्रेक के लिए खरीदारी करने का था। आखिरी ही वक्त में सब करने की बुरी आदत इंजीनियरिंग करते हुए लगी थी। मैं उधर पहुँचा। तीन लोअर लिए, दो टी शर्ट ली और साथ में एक विंड शीटर लिया। उधर एक परेशानी हो गई। वहाँ दो रंग के विंड शीटर थे। एक काला और नीला। अब काले का लोअर मौजूद था तो ऊपर वाला जैकेट  नहीं मिल रहा था और नीले का ऊपर वाली जैकेट मौजूद थी  तो लोअर नहीं मिल रहा था। मुझे नीला पसंद आया था। और मैंने सोचा कि लोअर न भी हो तो चलेगा लेकिन ऊपर वाली जैकेट जरूरी थी। इसलिए मैंने नीला वाली जैकेट भी ले ली। सब सामान लेकर मैं वापस रूम में पहुँचा।

तब तक राकेश भाई भी कमरा लेकर सेटल हो चुके थे।मैंने उनसे कहा कि मैं खाना खाकर निकल रहा हूँ। रूम में पहुँचते हुए मैंने कुछ अंडे और बन्स ले लिए थे तो मैंने भुर्जी और बन्स को दूध के साथ खाकर दिन का खाना निपटाया। साथ साथ मैंने सामान भी पैक किया और फिर तैयार होकर रूम से निकल गया।

एम जी मेट्रो पहुँचा। अब मुझे उधर से नई दिल्ली रेलवे स्टेशन जाना था। उधर से ही राकेश भाई के रूम तक जाना था। उन्होंने मुझे रूम का एड्रेस दे दिया था तो मैं आसानी से गूगल के मार्गदर्शन से उधर पहुँच सकता था।

मैंने इस सफ़र में भी कुछ किताबें अपने साथ रखी थी। इनमे Ivo stourton की The Book Lover's Tale और अशोक बैंकर की दशराजन का हिन्दी संस्करण शामिल था।उधर से राकेश भाई भी कुछ किताबें लेकर चल ही रहे थे। फिलहाल मैं Ivo stourton की The Book Lover's Tale पढ़ रहा था। यह Matt de Voy की कहानी है जो कि लोगों को उनकी पर्सनल पुस्तकालय बनाने में मदद करता था। वह अमीर लोगों को यह बताता था कि उनके पुस्तकालय में किस तरह की किताबें हो ताकि दूसरे लोगों पर अच्छा प्रभाव पड़े। अक्सर यह उन अमीरों की बीवियों से ही बातचीत करता था और इस चक्कर में कई औरतों के साथ इसके सम्बन्ध भी बन जाते थे। ऐसा इसलिए भी होता था क्योंकि पतियों के पास अपनी पत्नियों को पैसे के सिवा देने के लिए कुछ नहीं होता और यह किरदार ऐसी औरतों के खाली पन का फायदा उठाने में माहिर था। ऐसे ही अपनी एक क्लाइंट Claudia से Matt कि मुलाक़ात होती है और Matt उसके इश्क में पड़ जाता है। Claudia एक रहस्यमय स्त्री है जिसको Matt जितना पाना चाहता है वो उससे उतना दूर जाती है। इससे Matt(मैट ) जूनून के हद तक उस पर आकर्षित हो जाता है। फिर ऐसी घटनाएं होती है कि Matt के ऊपर कत्ल का इल्जाम लग जाता है। क्या Matt ने असल में कत्ल किया था? आखिर Matt के साथ क्या हुआ? उसकी शादी शुदा ज़िन्दगी पर इसका क्या असर पड़ा? क्या Matt Claudia को पा सका? इन्ही सब प्रश्नों का उत्तर यह कहानी देती है। कहानी रूचिकर थी और मुझे मजा आ रहा था।  मेट्रो का सफ़र मेरा मैट की कारिस्तानियों में ही बीत गया।


पता ही नहीं चला कि कब नई दिल्ली स्टेशन आ गया।मैं उधर से बाहर निकला और फिर होटल की तरफ बढ़ गया। मैंने गूगल मैप पर होटल का नाम पता फीड कर लिया था और दिशा निर्देश फॉलो करता हुआ जा रहा था। मेट्रो से एक आध किलोमीटर ही दूर था और मैं चलते हुए उधर पहुँच गया। थोड़ा बहुत होटल के नाम में कन्फ्यूजन था लेकिन इस शंका निवारण राकेश भाई को फोन करके हो गया था।

होटल पहुँच कर उनसे मिला और चाय पानी का बंदोबस्त हुआ। फिर बात चीत हुई। उन्होंने ऋषिकेश से आगे जाने के विषय में पूछा तो मैने उन्हें बताया कि मुझे एक ट्रेवल एजेंसी का नंबर मामा ने दिया है। अभी उनसे बात नहीं की है। बात करके पूछ लेते हैं। उन्होंने भी हामी दी तो मैने गोपाल गुरुदेव ट्रेवल्स को फोन लाया। जब तक चाय आती तब तक बातचीत हो गई थी। मैंने उनसे कहा था कि हम लोग चार पाँच बजे तक ऋषिकेश पहुँच जायेंगे तो उन्होंने इस बात की तसल्ली दे दी थी कि वो हमारे लिए दो सीट रखेंगे। ६०० रूपये प्रति व्यक्ति में में गोविन्द घाट जाने की बात निर्धारित कर ली थी।

अब ऋषिकेश से आगे जाने का बन्दोबस्त हो चुका था तो हमने चाय पी और आधा एक घंटा बैठकर आराम किया। राकेश भाई सफ़र में शरदिंदु मुकर्जी की पृथ्वी के छोर पर पढ़ रहे थे। यह एक रोचक यात्रा वृत्तांत है। शरदिंदु जी,जो कि एक वैज्ञानिक हैं, ने अन्टार्टिका में कुछ वक्त बिताया था। अपने उन्ही अनुभवो को उन्होंने इस पुस्तक में साझा किया है।  इस दौरान हमने इन्हीं किताबों के ऊपर थोड़ी बात की। उन्होंने क्या पढ़ा और मैं क्या पढ़ रहा हूँ। फिर साढ़े-पाँच,पौने छः  बजे के करीब हम चलने को तैयार हुए।

हम होटल से निकले और पैदल ही मेट्रो स्टेशन के चल पड़े। कुछ ही देर में  नई दिल्ली मेट्रो स्टेशन पहुँच चुके थे। उधर से राकेश भाई ने मेट्रो का टोकन लिया और हम लोग फिर आगे कश्मीरी गेट की तरफ बढ़े। छः चालीस के करीब हम कश्मीरी गेट पर थे।

कश्मीरी गेट पर राकेश भाई
हम लोग अब ऋषिकेश वाली गाड़ियों की तरफ बढे। यह कांवड़ यात्रा वाला समय था। ऊपर से हरिद्वार ऋषिकेश मार्ग पर कुछ कार्य भी चल रहा था तो गाड़ियाँ हरिद्वार तक जा रही थी। हम एक बस पर चढ़े तो उसने हमे पहले ही बता दिया कि ऋषिकेश तभी जायेंगे जब हरिद्वार से रास्ता खुला होगा। अब उनके बोलने का तरीका इस तरह का था कि लग रहा था कि इन भाई का ऋषिकेश जाने का प्लान ही नहीं है। हाँ, दिलासा यह था कि जहाँ बाकी लोग साफ़ मना कर रहे थे उधर इन्होने कोशिश करने को कहा था।

यह तो सिर मुंडाते ही ओले पड़ने वाली बात थी। हमने सोचा क्या किया जाए। थोड़ा इन्तजार किया लेकिन हर बस का यही हाल था। सब हरिद्वार तक ही जा रही थीं। हमने  कंडक्टर  साहब से पूछा कि आगे का क्या करेगे। तो उन्होंने हौसला दिया कि उधर से आगे कुछ न कुछ मिल ही जायेगा। अब उनकी बात पर विश्वास करने के अलावा और कोई चारा नही था। कुछ कांवड़ वाले भी बस में चढ़े थे लेकिन वो चाहते थे बस ऋषिकेश जाये और बस वाला इसकी गारंटी नहीं ले रहा था तो वो उसे बुरा भला कहकर उतर गये। फिर कुछ और लोग चढ़े और साथ में कावड़ियों एक समूह भी था ।  बस अब भर सी चुकी थी तो हम लोग आगे बढ़ने लगे।

गाड़ी वाली सेल्फी


बस में राकेश भाई 

बस में रखी एक कांवड़

बस दिल्ली कश्मीरी गेट पार करके आगे बढ़ी और  फिर सफर कटने लगा। छोटी मोटी बातचीत के बाद हम लोग भी चुप हो गये थे। मैं और राकेश भाई दरवाजे के नजदीक वाली सीट में बैठे थे। आगे  कुछ कांवड़िये,जिनमे एक औरत और कुछ  अधेढ़ उम्र के मर्द, बैठे थे। पीछे के साइड सारे लौंडे लपाड़े बैठे थे। बस ने गति पकड़ी तो उन्होंने भी गति पकड़ ली। अब वो उधर कुछ फूंक रहे थे। पहले लगा बीड़ी है लेकिन धुंए की बदबू से पता लग गया था कि कुछ और है। आगे वालों ने बोला भी कि इधर औरत है लेकिन उनको फर्क नहीं पड़ा। उन्हें सुट्टा मारना था और वो मार रहे थे। हम खिड़की के नजदीक थे तो हमे फर्क नहीं पड़ना था। वैसे भी गाँव वाली बसों में धूम्रपान तो लोग करते ही हैं। कंडक्टर भी उनकी हरकतें देख रहा था लेकिन कुछ कह नहीं रहा था। हाँ, नशे के सुट्टे मारने के आलावा वो ज्यादा हुडदंग नहीं कर रहे थे तो सब लोग खिड़की की तरफ मुँह करके बैठे थे ताकि धुएं की बदबू से निजाद मिले।

कुछ देर बाद नाक भी उसकी आदि हो गई और बस का सफर चलता रहा। बस खतौली में रुकी जहाँ उतरकर हमने चाय पी। और फिर सीधे हरिद्वार में जाकर बस रुकी। पौने चार के करीब हम हरिद्वार में थे।


वैसे कहने को तो रात थी लेकिन भक्तों के जमघट के कारण माहौल काफी खुशनुमा हो रखा था। काफी चहल पहल उधर थी। लोग बाग़ खड़े थे। कुछ डीजे भी बज रहे थे। कई लोग आगे जाने की सवारी ढूँढ रहे थे लेकिन जितने ऑटो आ रहे थे वो सब भरे भरे आ रहे थे। अभी फोटो खींचने का किसे ख्याल था। हम जल्द से जल्द ऋषिकेश पहुँचना चाहते थे ताकि जो गाड़ी बुक करी है उसे पकड़ सकें। हमने फोन करके ट्रेवल एजेंट भाई को बता दिया था कि हम हरिद्वार में हैं और उन्होंने हमे दिलासा दिया था कि हम लोग पहुँचे वो हमारी सीट बचाकर रखेंगे।


अब मैंने  मैंने राकेश भाई को देखा और राकेश भाई ने मुझे। हम दोनों की नजरों में एक ही सवाल था। अब इधर से ऋषिकेश कैसे जाया जायेगा?

क्रमशः
अगली कड़ी: हरिद्वार से गोविन्दघाट

 © विकास नैनवाल  'अंजान'
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12 टिप्पणियाँ

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  1. Great,terrific
    विकास जी अगले भाग का इंतजार रहेगा।

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    1. शुक्रिया हितेश भाई। जल्द ही लिखता हूँ। बने रहियेगा।

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  3. बढ़िया यात्रा वृत्तांत , आगे के भाग की प्रतीक्षा रहेगी ।

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  4. आधा पार्ट पढ़ा लेकिन किसी उपन्यास का जिक्र नही हुआ तो लगा यह विकास नैनवाल नही कोई और लिख रहा है...फिर तसल्ली हुई कि नही सही जा रहे है....हरिद्वार से ऋषिकेश कई बार कावड़ के समय बस वाले राजाजी से भी ले जाते है..असेम्पियं मीट आबू के बारे में भी पढ़ा था आपके ब्लॉग पे

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    1. जी शुक्रिया प्रतीक भाई। मेरे लिए बिना उपन्यासों के यात्रा की सोचना भी मुश्किल है। यात्रा की थकान के बाद कहानियों में विचरण करना सुखद अनुभव देता है। यात्रा के दौरान ही कई यात्राएं हो जाती हैं इस तरह से। जी, उस वक्त तो हरिद्वार में ही छोड़ दिया था क्योंकि उधर रास्ता बंद था। शायद कुछ कंस्ट्रक्शन का काम चल रहा था।

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  5. सुंदर वर्णन,,,,लिखते रहो ऐसी यात्राओं को ओर हां अपने से बड़ों का कहा सुना करो😃👍👍

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    1. जी, दीदी। बढ़ो की तो सुननी चाहिए। वो हमारे भले की सोचते हैं।

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