नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला 2018 - एक किताबी घुमक्कड़ी


नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला 2018 निपटे हुए काफी वक्त हो गया है। मेला जनवरी 7-14 को प्रगति मैदान में आयोजित किया गया था। मैं जबसे गुडगाँव आया हूँ तब से ये कोशिश करता हूँ कि दिल्ली और आस पास में होने वाले पुस्तक मेले में शिरकत कर सकूँ। इस बार भी मैं दिल्ली पुस्तक मेले में गया और काफी किताब बटोर कर लाया। वैसे तो मैं अक्सर पुस्तक मेले में आखिरी शनिवार रविवार को जाना पसंद करता हूँ। पुस्तक मेले के  अलावा चूँकि मैं गाहे बगाहे काफी पुस्तकों की खरीद कर लेता हूँ तो मेरी कोशिश रहती है कि केवल एक ही दिन मेले में जाया जाए। लेकिन इस बार मैं तीन दिन मेले में गया। लेकिन खुशकिस्मती से खरीददारी केवल दो ही दिन करी। खुशकिस्मती इसलिए कि वरना वो किताबें जो पहले से खरीदकर रखी हैं वो नाराज़ हो जाती। तो चलिए मेरे साथ।



7 जनवरी 2018

महरौली पुरातत्व पार्क मैं घूम चुका था। मनीष भाई उधर ही आ चुके थे। उसके बाद हम लोग पुस्तक मेले के लिए निकल पड़े। महरौली पुरातव पार्क की घुमक्कड़ी के विषय में पढने के लिए इधर क्लिक करें। अब हम मेट्रो की तरफ बढ़े। जमाली कमाली गेट से हम निकले थे और उधर से मेट्रो ज्यादा दूर नहीं था। मेट्रो में बैठकर मनीष भाई ने कहा कि टिकेट हम पहले ले लें तो कैसा रहे। पुस्तक मेले के टिकेट साकेत में मिल रहे थे और पुस्तक मेले के गेट में भीड़ होने की सम्भावना थी।  मैंने सोचा फिर मेट्रो से बाहर निकलना पड़ेगा। कौन इतनी जहमत उठाये। फिर लाइन में लगना मुझे इतना परेशान नहीं करता है। ऐसे केस में मैं हमेशा किताब अपने साथ रखता हूँ।  मुझे याद आता है कि demonitization के दौरान मैं दफ्तर की इमारत में बने एटीएम के सामने एक बार लाइन में लगा था। आधा-एक घंटा खड़ा रहना पड़ा था। मैं  एक किताब साथ लेकर गया था और जब तक बारी आई तब तक उसके पचास पृष्ठों से ऊपर मैंने निपटा दिये थे। अगर इंतजार करना पड़े तो किताब से बेहतर कोई साथ नहीं होता। इसलिए मैं अपने साथ कोई न कोई किताब हमेशा रखता हूँ।


इधर भी तो लीला  चिरन्तन मेरे साथ ही थी। लाइन में लगे लगे मैं उसके कुछ पृष्ठ पढ़ सकता था। मैंने ना नुकर करते हुए कहा कि अब कौन मेट्रो से बाहर जाए। उन्होंने कहा बाहर जाने की जरूरत नहीं। जहाँ कार्ड रिचार्ज होता है उधर ही मिल जायेंगे। ये मुझे ठीक लगा और हम लोग साकेत उतर गये। हमने टिकेट लिए और फिर मेट्रो पकड़ ली। गप्पे मारते हुये पहले राजीव चौक गुजरा और फिर हम मेट्रो बदल कर प्रगति मैदान में पहुँच गये।


टिकेट तो थे ही इसलिए अब दाखिल होने वाली लाइन में लगे और कुछ ही देर में हम लोग स्टाल्स के चक्कर काट रहे थे। हमे पता चला कि देवराज अरोड़ा सर जो कि एक एसएमपियन(सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के फेन खुद को एसएमपियन कहलाना पसंद करते हैं ) हैं और बड़े मिलनसार स्वभाव के हैं उधर ही मौजूद थे। मनीष भाई ने उन्हें कॉल लगाई और हम अब उनके साथ घूमते हुए किताबों के स्टाल्स के चक्कर काटने लगे। देवराज जी के आने से पहले ही हम कुछ किताबें ले चुके थे। उनके आने के बाद भी हमने कुछ किताबें ली और तकरीबन साढे पाँच बजे तक उधर रहे। पुस्तक मेले में मेरा इरादा होता है कि मैं ऐसी किताबें लूँ जिनके विषय में साधारण तौर पर और अपनी ज़िन्दगी में मैं वैसे नहीं सुनूँगा। इनमें दूसरी भारतीय भाषाओँ से हिन्दी में हुए अनुवाद भी होते हैं। तो मैं ऐसी किताबों की तलाश में ही पुस्तक मेले जाता हूँ या फिर ऐसी किताबों की तलाश में जिन्हें मैं काफी देर से ढूँढ रहा हूँ और या तो वो ऑनलाइन नहीं मिलती या उनपर डिलीवरी चार्ज काफी ज्यादा लगता है। इधर भी मैं इसी विचार को लेकर आया था और मैंने इसी हिसाब से खरीदारी करी।


देवराज जी ने भी मनीष भाई को सुरेन्द्र मोहन पाठक जी की कुछ पुस्तकें राजा पॉकेट बुक्स के स्टाल से लेकर दी। देवराज जी दिलदार आदमी हैं। खुश रहने और खुशियाँ बाँटने में विश्वास रखते हैं।

अब हम थक भी चुके थे और देवराज जी को भी जाना था। हमने सोचा क्यों न एक चाय पी ली जाए और फिर चला जाए। चाय पीने गये और टोकन लिया। लेकिन उधर चाय नहीं थी। फिर कॉफ़ी का आर्डर दिया तो कॉफ़ी का इंतजार करने लगे। ऐसे में काफी वक्त गया। देवराज जी को जल्दी थी तो उन्होंने कहा आप चाय  पीजिये वो निकल रहे हैं। उन्हें कुछ जरूरी काम था तो  वो चले गये।

मैंने मनीष भाई को देखा। अब कॉफ़ी पीने का मन नहीं था। वैसे भी काफी देर हो रही थी और हमने सोचा क्यों न बाहर मेट्रो के आसपास मौजूद किसी टपरी वाले से चाय लिया जाए। वो टेस्टी तो होगी ही और साथ में सस्ती भी होगी। इंतजार करते हुए हमारे लिए अंगूर खट्टे हो चुके थे।  हमने टोकन लौटाए और हम भी बाहर को निकल गये।

फिर हमने एक चाय वाले को खोजा और उनसे दो मस्त चाय लगाने को बोला। हम लोगों ने चाय पी। अब  मनीष भाई ने बोला क्या करना है? प्रगति मैदान का भीड़ से बुरा हाल था। मैंने कहा नेक्स्ट स्टेशन कितने दूर है। उन्होंने कहा आई टी ओ भी नजदीक है और मंडी हाउस भी नजदीक है। मैंने कहा मंडी हाउस तक पैदल चलते हैं क्योंकि आई टी ओ जायेंगे तो उधर से भी राजीव चौक आयेगे। केन्द्रीय सचिवालय में इस वक्त गाड़ी भीड़ भाड़ वाली मिलेगी। वो आई टी ओ जाने के पक्ष में थे लेकिन इस बार मेरी बात मान गये। हम लोग अब मंडी हाउस की तरफ बढ़ने लगे।

हम लोग काफी घूम चुके थे। काफी नए दोस्त भी हमने इकट्ठा कर लिए थे। अब इन दोस्तों के सफ्हे कब पलटेंगे ये जुदा बात थी। कुछ ही देर में हम मंडी हाउस थे। और फिर मेट्रो में बैठ  गये। इधर से भी बातचीत का सिलसिला चला और फिर सिकन्दरपुर जाकर रुका जहाँ मनीष भाई उतर गये।

उनके अनुसार एम जी रोड में उन्हें गाड़ी मिलने से तकलीफ होती। हमने अब फैसला किया कि पुस्तक मेले के आखिरी दिन यानी 14 जनवरी के रविवार को दोबारा मिलेंगे और कुछ और दोस्त इकट्ठा करेंगे। फिर वो निकल गये और मैं बैठा एम जी रोड की तरफ बढ़ गया। एक ही स्टेशन दूर था लेकिन तब तक लीला चिरंतन की मोमिता से मुलाकात हो सकती थी। उसके बात करने का लहजा और जिस तरह से वो चीजों को बताती थी मुझे काफी मजाकिया लग रहा था। उसका बचपना उससे झलकता था और कभी कभी पढ़कर मेरी हँसी सी छूट जाती थी।

जब तक मेरा स्टेशन आता है तब तक आप मेले की तस्वीर देखिये।

पुस्तक मेले की कुछ तस्वीरें


पुस्तके चुनते पाठकगण



राज कॉमिक्स  का स्टाल 

कॉमिक्स खरीदते प्रशंसक 

मेट्रो स्टेशन के बाहर मौजूद इस कलाकृति ने मेरा ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया 


कुछ किताबें जो ली

  1. आसमानी चादर - भूमिका द्विवेदी 
  2. काला रजिस्टर - रवीन्द्र कालिया 
  3. सपाट चेहरे वाला आदमी - दूधनाथ सिंह 
  4. दूसरी जन्नत - नासिरा शर्मा 
  5. स्वेच्छा - ओल्गा (तेलगु से हिन्दी में अनूदित)
  6. भटके हुए लोग - हरचरन चावला (उर्दू से हिन्दी में अनूदित)
  7. विषकन्या - एस. के. पोट्टेकाट(मल्यालम से हिन्दी में अनूदित)
  8. सूरजमुखी का सपना - सैय्यद अब्दुल मलिक (आसमिया से हिन्दी में अनूदित)
  9. जैसी करनी वैसी भरनी - एम.एस.पुट्टण्णा(कन्नड़ से हिन्दी में अनूदित )
  10. यंत्र - मलयाट्टूर  रामकृष्णन (मलयालम से हिन्दी में अनूदित)
  11. श्रेष्ठ व्यंग्य - सूर्यबाला 
  12. इकबाल - जयश्री राय 
  13. लेडीज सर्किल - गीताश्री 
  14. इब्तिदा के आगे खाली ही - मीनाक्षी सिंह 






12 जनवरी 2018


वैसे मुझे सप्ताह के बीच में कहीं जाना पसंद नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि मुझे व्यायामशाला(जिम) जाना होता है। ऑफिस के बाद कुछ देर वेट ट्रेनिंग न करूं तो सुकून नहीं मिलता है। लेकिन कई बार अपवाद के तौर पर कुछ चीजें करनी होती हैं। 12 जनवरी का दिन भी ऐसे ही दिनों में था। पाठक साहब की आत्मकथा न बैरी न कोई बेगाना के पहले भाग का कवर लांच पुस्तक मेले में किया जाना था। और हम सब एसएमपियनस का जमावड़ा तो उधर लगना ही था।

मैंने निर्धारित कर दिया था कि मैं जल्द से जल्द ऑफिस का काम निपटाऊंगा और फिर प्रगति मैदान के लिए पौने पाँच पाँच बजे करीब निकलूंगा तो ही जाकर छः साढ़े छः बजे उधर पहुंचूंगा। बस डर इस बात का था कि जब हमे जल्दी होती है तो न जाने क्यों उसी वक्त काम आ धमकता है। भले ही पूरे हफ्ते ऐसा कुछ न हुआ हो। यही डर मेरे मन में भी था और इसलिए जैसे साढ़े चार के करीब बजे तो मैं गोली की तरह ऑफिस से भागा। वीकेंड था तो जल्दी जाया जा सकता था। मुझे लग रहा था कि एक पल भी और ऑफिस में ठहरूंगा तो कोई न कोई काम मुझे पकड़ा देगा। और मैं इस इवेंट को मिस नहीं करना चाहता था। मैं जो ऑफिस से निकला तो सीधे इफ्को चौक मेट्रो स्टेशन पहुँचकर ही रुका। उधर से मेट्रो में चढ़ा और प्रगति मैदान की ओर बढ़ चला। व्हाट्सएप के माध्यम से पता चलता जा रहा था कि और भी एसएमपियंस पहुँच चुके थे या मेरी तरह रास्ते में थे। पहले मेरे मन में साकेत उतरने का ख्याल आया लेकिन फिर मैंने सोचा उधर ही देख लूँगा। मुझे इवेंट में पहुँचने की excitement थी तो बार बार निगाहें फोन की स्क्रीन की तरफ बढ़ जाती और उंगलियाँ ग्रुप में आ रहे संदेशों के ऊपर टिपण्णी करने के लिए फोन की स्क्रीन पर टिपटिपाने लगती। मुझे मालूम था कि ऐसी स्थिति में मेरे लिए कोई किताब पढना मुश्किल है इसलिए पुस्तक मैंने निकाली नही थी।

जल्द ही छः सवा छः बजे करीब मैं  प्रगति मैदान के गेट के सामने था। लोग बाग़ मैदान से बाहर आ रहे थे और मैं उलटी दिशा में बढ़ रहा था। मैंने मेट्रो स्टेशन में टिकेट माँगा था तो उस भाई ने कहा था कि उधर से मिलना बंद हो चुके हैं और अब मुझे मैदान के गेट पर ही टिकेट मिलेंगे। मेरे मन में ये खयाल भी आ रहे थे कि उधर टिकेट न मिले तो क्या होगा? इवेंट मिस न हो जाये तो मैं बकायदा भीड़ को चीरने की कोशिश करते हुए आगे बढ़ रहा था। चीरने की कोशिश इसलिए क्योंकि भीड़ को चीरने में सफल नहीं हो पा रहा था। लोग ही इतने बाहर निकल रहे थे। लेकिन जैसे तैसे मैं गेट तक पहुँचा और मैंने टिकेट लिया।

अब मैं अन्दर जाने के लिए रेडी था और कोई मुझे रोक नहीं सकता था। मेरा दिल बल्लियों उछल रहा था कि चलो इवेंट तो देख ही लूँगा। मैं अन्दर दाखिल होने लगा और मैंने मनीष भाई को कॉल लगाई। वो भी आने वाले थे। उन्होंने कहा कि वो राजीव भाई के साथ उनके ऑफिस में हैं और जल्द ही ऑफिस की गाड़ी से पहुंचेंगे। मैंने कहा ठीक है फिर मैं इवेंट वाले हॉल में ही उनका इंतजार करूँगा।

अब मैं इवेंट वाले हॉल में पहुँचा। ये इवेंट हंगर में होने वाला था।  उधर काफी एसएमपियन पहले से ही मौजूद थे। मैं उधर पहुँचा। सबसे मिला और फिर पाठक साहब के आने का इंतजार करने लगा।

पाठक साहब आये और फिर प्रोग्राम शुरू हुआ। पाठक साहब का इंटरव्यू चला जिसमें उन्होंने प्रश्नों के उत्तर दिये। पाठक साहब का साक्षात्कार प्रसिद्द रेडियो जॉकी गिनी महाजन ले रही थीं। उन्होंने काफी रोचक प्रश्न पाठक साहब से पूछे और पाठक साहब ने भी उतने ही रोचक जवाब दिये।

बातचीत का दौर  खत्म हुआ तो न बैरी न कोई बैगाना के प्रमोशन की गतिविधि शुरू हुई। जो लोग उपस्थित थे उन्हें पाठक साहब के उपन्यास के ऊपर केंद्रीत दो पोस्ट कार्ड और पाठक साहब की कहानी 57 साल पुराना आदमी मिली जिसके ऊपर फिर पाठक साहब ने हस्ताक्षर किये।

राजीव  भाई, गुरूजी,मैं और मनीष भाई 


एसएमपी सर के साथ ऑटोग्राफ लेते हुए... चेहरे के भाव हैरान हैं न 


आत्मकथा की डमी कॉपी के साथ फोटो खिंचाते हुए 


ये इवेंट जब तक होता रहा तब तक हम उधर ही थे। उधर मौजूद साथी एससिम्पिय्न्स ने पाठक साहब के साथ काफी फोटो खिंचवाई। फिर जब पाठक साहब चले गये तो हम लोगों का एक ग्रुप गुरप्रीत  जी के कमरे की तरफ बढ़ गया। मैंने इस दिन कुछ विशेष नहीं खरीदा। मेरा  इवेंट के आखिरी दिन यानी 14 को मनीष भाई के साथ इधर आने का प्लान बना चुका था तो खरीद फरोख्त उसी दिन करने का विचार था। गुरप्रीत जी चंडीगढ़ से आये थे और रेलवे स्टेशन के परिसर में उनका कमरा बुक था। हम कुछ लोग उधर गये जहाँ आफ्टर इवेंट पार्टी हुई। हँसी-मजाक , खाना पीना सब चला। और ग्यारह बजे के करीब उधर से निकलना हुआ।

आफ्टर लांच पार्टी: बायें से अल्मास भाई,राजीव भाई,सुनीत भाई,संदीप अग्रवाल जी ,मनीष गुप्ता जी,जी पी सर, दिग्विजय भाई, मनीष भाई और मैं 

मुझे मेट्रो पकडनी थी तो मैं जब बाहर आया तो पता लगा कि हम स्टेशन के दूसरे तरफ हैं। मेट्रो के लिए पुल पार करके जाना पड़ता या घूम कर जाया जा सकता था।  राजीव भाई ने हिदायत दी कि मैं बिना टिकेट ही चले जाऊँ पुल पर लेकिन मेरा मन नहीं माना और जब वो चले गये तो मैं ऑटो की तलाश में घूमा। एक दो ऑटो वालों से पूछा तो उन्होंने 40 से 100 रूपये तक किराया बताया। फिर एक बंदे से वो रास्ता पूछा जिधर से मेट्रो स्टेशन पहुँचना था। उसने दिशा इंगित कि और बताया कि आप जाओगे तो एक पुल पड़ेगा। उस पर चढ़ जाना और आगे बढ़ते रहना वो पुल सीधा मेट्रो तक जाता है। मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और तेज गति के साथ आगे बढ़ने लगा। मुझे डर था कि कही मेट्रो छूट गई तो लेने के देने न पड़ जाये। मैं पुल तक तो तेज चलकर पहुँचा लेकिन जब पुल पर चढ़ गया तो जॉगिंग करने लगा और ऐसे ही मेट्रो तक पहुँचा। मेट्रो स्टेशन पहुंचकर मैंने अपने माथे पर आये पसीने की बूंदों को पोंछा।थोड़ी सांसों को व्यवस्थित किया और फिर अंदर दाखिल हुआ। मैं जल्द से जल्द प्लेटफार्म तक पहुँचना चाहता था। और मैंने यही किया भी।

प्लेटफार्म में पहुँचा और आतुर आँखों से इंडिकेटर को देखा। उधर हुडा सिटी सेंटर की तरफ जाने वाली गाड़ी के विषय में दर्शाया जा रहा था। मैंने राहत की साँस ली और फोन खोल दिया। फिर मेट्रो आई और मैं उस पर चढ़ गया। इतनी भागदौड़ के बाद मुझे कुछ पढने का मन नहीं था इसलिए मैंने फोन कर एक सीरियल का एपिसोड चला लिया और उसे देखने में तल्लीन हो गया। अब रूम तक तो पहुँच ही जाना था।


दौड़ कामयाब रही थी!!

14 जनवरी 2018

रविवार की सुबह मनीष भाई से बात करी तो पता चला कि उनका प्लान थोड़ा बदल चुका है। वो पाठक साहब (सुरेन्द्र मोहन पाठक जी) से मिलने उनके घर जा रहे हैं। काफी लोग उनके साथ जा रहे थे। लेकिन मुझे तो किताबें खरीदने जाना था। मैंने गुरूजी(राजीव रंजन सिन्हा) जी को मेसेज किया तो उन्होंने बताया कि वो उधर होंगे तो मैं भी उधर जाने के लिए तैयार होने लगा।

रूम में नाश्ता  किया और नाश्ता  निपटाने के बाद मेट्रो की तरफ बढ़ गया। मेट्रो पहुँचा और निकल पड़ा राजीव चौक के लिए।  मैंने कुछ दिनों पहले हरिशंकर परसाई जी का लघु उपन्यास तट की खोज मँगवाया था। शनिवार को इसे पढ़ना शुरू किया था तो सोचा इस सफर के दौरान निपटा दूँगा। उपन्यास शीला के इर्द गिर्द बुना गया है। शीला अभी बी ए में पढ़ रही है और शादी होने का इंतजार कर रही है। उसके पिता दहेज़ जुटा पाने में सक्षम न होने के कारण उसका विवाह नहीं करा पा रहे हैं। उसके जीवन में आगे क्या होता है यही इस उपन्यास का कथानक बनता है। उपन्यास मुझे पसंद आया था और मैंने इसके विषय में अपने दूसरे ब्लॉग में इधर लिखा था - तट की खोज

मैं शीला की दुनिया में खोया हुआ था जब राजीव चौक आया। फिर उधर से प्रगति मैदान पहुँचा।मौसम में जनवरी होने के बावजूद गर्मी थी। जब मैं स्टेशन पर उतरा तो धूप होने लगी थी। मैंने  टिकेट लिया और मेले के अन्दर दाखिल हुआ। मैं बारह नंबर हॉल में था और उधर मैंने गुरु जी को कॉल किया। वो शायद आठ नंबर हॉल में थे। उन्होंने कहा वो भी उधर की ही तरफ आ रहे हैं तो मैं उनका इंतजार करने लगा। थोड़ी देर में वो आये और हम लोग फिर मेला घूमने लगे। मैं एक चक्कर पहले भी मार चुका था लेकिन फिर कुछ खरीदने को काफी कुछ मिल गया। पहले जब मैं कविताकोष के स्टाल से निकल रहा था तो उधर मौजूद केलिन्डर ने मेरा ध्यान आकर्षित किया था। उस वक्त मैंने वो नहीं खरीदा था। इस वक्त गुरूजी के साथ घूमते हुए दोबारा गये तो उन्हें भी वो पसंद आ गया। उन्होंने भी एक कैलेंडर खरीदा और मैंने भी एक ले लिया।

गुरु जी को गीता प्रेस से कुछ किताबें भी खरीदनी थी तो हम उधर गये। वहाँ काफी भीड़ हमे मिली। लेकिन गुरूजी को उनकी पसंद की किताबें मिल गई थीं।

 फिर हम ऐसे ही घूम रहे थे कि मुझे अंतिका प्रकाशन का स्टाल दिखा। मुझे क्या दिखा। गुरूजी की तेज निगाहों में ये आया। जब हम मिले थे तो गुरूजी से मैं इस प्रकाशन के विषय में बात कर रहा था। उन्होंने दिखाया तो मेरी बाँछे खिल गई।  मुझे उधर से कुछ किताबें खरीदनी थी और मैं अन्दर दाखिल हुआ।

अंतिका प्रकाशन की किताबें अमेज़न से मिल तो जाती हैं लेकिन अक्सर ही उनमें डिलीवरी चार्ज लगता है। इधर किताबें बिना डिलीवरी चार्ज के मिल रही थीं तो मैंने ले ली। मुख्यतः मुझे वह भी कोई देस है महाराज और हुमायूँ अहमद की किताब नंदित नरक में लेनी थी। वह भी कोई देस है महराज मैंने पढ़ी तो हुई थी लेकिन मैंने अपनी प्रति अपने  दोस्त को दे दी थी। यही वो किताब थी जिसने यात्रा वृत्तान्त के प्रति मेरी रूचि जगाई थी। पहले मैं यात्रा करता था तो सही लेकिन उनके विषय में लिखता नहीं था। लेकिन इसने मेरी रूचि इस विधा के प्रति जगाई और शायद जो मैं थोड़ा बहुत कीबोर्ड पर टिपटिपाता हूँ उसमे भी इसका काफी हाथ है।

खैर,किताब तो मैंने ले ली लेकिन अब एक मुसीबत मेरे आगे मुँह बायें खड़ी थी। मेरे पास कैश खत्म हो गया था और अंतिका वाले कार्ड नहीं ले रहे थे। ऐसे में गुरूजी जो स्टाल के बाहर ही थे वो मदद के लिए आये और उन्होंने पाँच सौ रूपये देकर मुझे किताब लेने में मदद की। अब एक हॉल हम देख चुके थे। मुझे विश्व बुक्स के स्टाल से एक दो मिस्ट्री  उपन्यास खरीदने थे तो हम बारह नंबर हॉल से निकले और विश्व बुक्स के हॉल की तरफ बढ़े।

धूप तेज थी और गुरूजी को भी इससे परेशानी हो रही थी। और मुझे भी। गुरुजी को मैंने कुछ दिनों पहले कुछ कॉमिक्स पढने को दी थी वो उन्हें वापस लेकर भी आये थे। हम एक जगह रुके थे जहाँ से गुरूजी ने जूस लिया और फिर उसे पीते हुए कॉमिक्स उन्होंने मुझे दी। मैंने कॉमिक्स अपने पहले से ही भरे हुए झोले में रख दी। फिर जूस खत्म करके हम विश्व बुक्स वाले स्टाल की तरफ बढ़ गये।  हम हॉल पर पहुंचे तो उस हॉल में ज्यादातर स्टाल्स बच्चों से ही सम्बन्धित था। हम सीधा स्टाल में गये और जो किताबें मेरे मन में थी वो मैंने ले ली।

मैंने इस दिन निम्न किताबें ली:
  1. नंदित नरक में - हुमायूँ अहमद (बंगाली से हिन्दी में अनूदित)
  2. वह भी कोई देस है महराज - अनिल यादव 
  3. अन्तरिक्ष नगर - प्रदीप मिश्र
  4. गढ़वाली लोकगीत (गढ़वाली लोकगीतों का संकलन)
  5. सोनम गुप्ता बेवफा नहीं है - अनिल यादव 
  6. विस्मृत यात्री - राहुल सांकृत्यायन 
  7. घुमक्कड़ स्वामी - राहुल सांकृत्यायन 
  8. विस्मृति के गर्भ में - राहुल सांकृत्यायन 
  9. कानेला की कथा - राहुल सांकृत्यायन 
  10. मौत का रहस्य - परम आनन्द
  11. हिमसुन्दरी - यमुनादत्त वैष्णव 
  12. हरिया हेर्क्युलेस की परेशानी,ट-टा प्रोफेसर, हमजाद -मनोहर श्याम जोशी 
  13. नमक का कैदी - नरेंद्र कोहली 
  14. पोस्ट मार्टम - अजित कौर 
  15. काली आँधी - कमलेश्वर 
  16. नरक यात्रा - ज्ञान चतुर्वेदी 
  17. मुर्दा घर - जगदम्बा प्रसाद 





अब खरीदारी तो हो चुकी थी। मेला भी घूम लिया था। इसमें बकायदा डेढ़ दो घंटे लगे थे। चूँकि बाहर धूप  थी और हम दो लोग ही थे तो हमने वापस जाने का ही निर्णय लिया और हम मेले से बाहर की तरफ चलने लगे। जब हम बाहर आ रहे थे तो ऐसे ही यात्रा वृत्तांत वगेरह पर बात कर रहे थे। कुछ दिनों पहले मैं गिरनार होकर आया था और उस सफर में मैंने भोलाभाई पटेल का यात्रा वृत्तांत देवों की घाटी के विषय में पढ़ा था। उसमें कुछ वृत्तांत चिट्ठी के शैली में थे जो भोलाभाई पटेल ने अपनी पत्नी को लिखे थे। मैं उन चिट्ठियों से काफी प्रभावित था क्योंकि उनमें भोला भाई पटेल जी ने बड़े तफसील से सारी बातें बताईं थी और मुझे लग रहा था कि ऐसा मेरे बस का नहीं है। मैं होता तो वृत्तान्त तो लिख देता लेकिन उस जगह के इतिहास के विषय में चिट्ठी में लिखना तो मेरे लिए मुश्किल था। मैंने यही बात  गुरूजी को बताई तो उन्होंने कहा कि  वो खाली शैली वैसे इस्तेमाल की हुई है। मूल चिट्ठी लिखी होगी तो उसमें इतना विवरण तो नहीं होगा। ये सुनकर मुझे थोड़ी राहत सी मिली लेकिन असल बात क्या थी ये तो न मैं जानता हूँ और शायद न गुरूजी।

ये सब बातें करते हुए हम लोग मेले से बाहर आ गये थे। आज मैंने इधर उधर की ज्यादा फोटो नहीं खींची थी। मेट्रो स्टेशन के बाहर के एटीएम में मैंने पैसे निकालने की कोशिश की तो उधर पैसे नहीं थे। इसलिए गुरु जी के पैसे देना उस दिन तो मुमकिन नहीं था। फिर मैंने गुरुजी से चाय पीने का पूछा तो चूँकि गर्मी ज्यादा थी तो वो चाय पीने के मूड में नहीं थे। अकेले मेरा भी पीने का मन नहीं था तो हमने वापस जाने का ही निर्णय लिया।

इस वर्ष के पुस्तक मेले का अंत हो चुका था।  मैंने काफी नये दोस्त अपने संग्रह में जोड़े थे। मैं खुश था। अब अगले वर्ष का इंतजार था। (वैसे अभी एक और पुस्तक मेला इस साल होना है।)  यही सोचते हुए मैं मेट्रो में दाखिल हुआ। प्लेटफार्म पर पहुँचा और ट्रेन का इंतजार करने लगा। मेरे बैग में सारी किताबें थी। ट्रेन आई तो मैं उसमें चढ़ा। मैंने बैग से तट की खोज निकाली और उसे पढने में तल्लीन हो गया। जब मैं एम जी रोड से दो तीन स्टेशन ही पीछे था तब मनीष भाई का कॉल आया। दो ढाई बजने वाले थे और उन्होंने कहा कि वो लोग पुस्तक मेले में  आने के लिए निकल चुके हैं। मैंने  कहा मैं तो वापिस आ गया हूँ तो वो लोग एन्जॉय करें। अब कुछ नहीं हो सकता था। अब तो मुझे कमरे में जाकर एक कप चाय पीनी थी, शीला की कहानी का अंत पढ़ना था और थोड़ा सोना था। ये सब गतिविधियाँ किस क्रम में होती ये रूम में जाकर ही निर्धारित  करना था। फिलहाल ये किताबी घुमक्कड़ी तो हो चुकी थी।

#फक्कड़_घुमक्कड़ #रीड_ट्रेवल_रिपीट
                                                               समाप्त 
© विकास नैनवाल 'अंजान'

6 टिप्पणियाँ

आपकी टिपण्णियाँ मुझे और अच्छा लिखने के लिए प्रेरित करेंगी इसलिए हो सके तो पोस्ट के ऊपर अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा।

  1. स्वर्ग का वर्णन वो भी इतने अच्छे शब्दों में । बधाई ।

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह। मजा आ गया। मैं आजतक कभी पुस्तकमेले में नही गया 😢😢😢 इस बार आऊंगा। और हो सके तो अभी 25 august वाले में कोशिश करता हूँ। 😊3👌👌

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपको जरूर जाना चाहिए। यहाँ घूमना एक अलग अहसास कराता है। एक पॉजिटिव एनर्जी रहती है माहौल में और इतनी पुस्तकें कि मन खुश सा हो जाता है।

      हटाएं
  3. आभार आपका। कई साल हो गए पुस्तक मेले में गए कभी हर साल जाता था लेकिन पुस्तकों से नाता ही टूट गया था लेकिन अब पिछले साल से यात्रा वृतांत वाली पुस्तके पढ़ना आरम्भ किया है और अबकी बार अवश्य पुस्तक मेला जाऊंगा।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. वाह ये जानकर ख़ुशी हुई। उम्मीद है आपको इस बार पुस्तक मेले में कई नए दोस्त मिलेंगे। हर किताब एक यात्रा होती है जिसमें किरदारों के साथ पाठक भी उस यात्रा को करता है। उम्मीद है आप कई यात्राओं का सामान उधर से लायेंगे।

      हटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आपकी टिपण्णियाँ मुझे और अच्छा लिखने के लिए प्रेरित करेंगी इसलिए हो सके तो पोस्ट के ऊपर अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा।

और नया पुराने