महरोली पुरात्तव उद्यान

यह यात्रा 7 जनवरी 2018 को की गई 

कहाँ : महरौली पुरातत्वीय उद्यान
कैसे जाएँ : कुतब मीनार मेट्रो स्टेशन से पैदल भी जा सकते हैं या ऑटो भी ले सकते हैं। ऑटो वाले को अहिंसा स्थल बोलियेगा
शुल्क : फ्री है। अब तो घूम के आओ।

कुली खाँ का मकबरा और क़ुतुब मीनार 

पुस्तक मेले का मुझे बेसब्री से इंतजार रहता है। मैं 2015 में मुंबई से शिफ्ट हुआ था और तब से लेकर आज तक मेरी कोशिश यही रहती है कि पुस्तक मेले का एक चक्कर मार कर आ ही जाऊँ। इस साल भी यही कोशिश थी। पहले मेरा शनिवार यानी 6 तारीक को जाने का विचार था लेकिन फिर आलस ने मुझे इस तरह अपनी गिरफ़्त में लिया कि वो योजना मैंने कैंसिल कर दी और रविवार की तरफ योजना को स्थानांतरित कर दिया। वैसे मैं कई दिनों से महरौली पुरातत्वीय पार्क जाने की सोच रहा था तो मैंने सोचा कि चलो एक पंथ दो काज कर ही लिये जायें।

तो मेरा प्लान ये था कि पहले पार्क जाऊँगा और उधर घूमने के पश्चात पुस्तक मेले के लिए निकल पडूँगा। वहीं शनिवार शाम पाँच बजे के करीब मनीष भाई का कॉल भी आ गया। वो भी पुस्तक मेला जाना चाह रहे थे। मैंने उन्हें अपना प्रोग्राम बताया जो कि उन्हें जचा। उन्हें सुबह ट्यूशन पढ़ाने जाना था तो वो बारह बजे के करीब तक फ्री होने वाले थे। इसलिए मैंने उनसे कहा कि तब तक मैं उद्यान घूम लूँगा और फिर साथ ही पुस्तक मेले के लिए निकल पड़ेंगे। वो एम जी रोड से निकलने से पहले मुझे इतेल्ला कर देते और मैं फिर कुतब मीनार मेट्रो स्टेशन में उनसे मिल जाता। ये बात उन्हें भी जंच गई और प्लान पर रजामंदी की मोहर हमने लगा दी।

रविवार की सुबह हुई तो मैं काफी उत्साहित था। ये इस साल की पहली घुमक्कड़ी होने वाली थी। नाश्ता वगेरह निपटाया और साढ़े नौ पौने दस बजे तक अपने रूम से निकला। पीजी से बाहर निकला तो देखा सूरज तो चमक रहा था लेकिन वातावरण मैं अभी भी ठंडक थी। मेरे पास वक्त तो था ही तो सोचा ऑटो से एमजी रोड जाने की बजाय क्यों न पैदा ही चल लिया जाये। ऐसा मौसम जिसमें वातावरण में ठंडक हो लेकिन धूप भी हो मुझे काफी पसंद आते हैं। चलने के लिए उत्तम रहते हैं।

यूँ ही चला चल राही!! मुझे चलने का न्योता देती हुई सीधी सपाट सड़क 


तो लगभग पंद्रह बीस मिनट की पद यात्रा करते हुए मैं एमजी रोड मेट्रो स्टेशन पहुँच चुका था। उधर ज्यादा भीड़ नहीं थी तो एंट्री करके प्लेटफार्म में जाने के लिए भी इतना वक्त नहीं लगा। प्लेटफार्म में पहुँच कर मेट्रो का इन्तजार करते हुए मैंने अपने बैग से लीला चिरन्तन निकाला और उसके पन्नों में खो गया। ये आशापूर्णा देवी जी का उपन्यास था। कहानी लाहिड़ी परिवार की है। आनन्द लाहिड़ी ने संन्यास लेने का फैसला कर दिया है। अब इससे उनके परिवार, जिसमे उनकी पत्नी कावेरी, बेटी मोमिता, बेटा सदानंद और छोटी बेटी हैं, के जीवन में क्या बदलाव आता है यही कहानी दर्शाती है। कहानी मोमिता के दृष्टिकोण से है। वही कहानी की वाचक है। मैंने उपन्यास के बीच में था और उपन्यास चूँकि रोचक था तो मुझे पता भी नहीं लगा कि कब एम जी रोड से कुतब मीनार मेट्रो स्टेशन आ गया। मैंने किताब को बंद करके बस्ते में डाला और मेट्रो से उतरा। अब मैं क़ुतुब मीनार मेट्रो स्टेशन से बाहर निकला और थोड़ी देर तक गेट पर खड़ा हो गया।

गेट के बाहर ऑटो वालों की लाइन लगी थी जो साझे में सवारी को क़ुतुब मीनार लेकर जाते थे। मुझे अभी आइडिया नहीं था कि किस तरफ जाना है। हाँ, इतना पता था कि महरौली पुरातत्वीय  पार्क नज़दीक ही है। मैंने अपना मोबाइल निकाला और गूगल मानचित्र को खोलकर किस दिशा में जाना है वो देखा। रास्ता सीधा ही था। अगर कभी शंका हो तो किसी से भी अहिंसा स्थल की दिशा के विषय में पूछ लीजिये। अहिंसा स्थल से थोड़ा सा आगे ही महरौली पुरातत्वीय पार्क का गेट आता है। मैं रास्ते में बढ़ने लगा। रास्ते के किनारे छोटी छोटी दुकाने थे जिनमें रंग बिरंगे गमले रखे हुए थे। इधर काफी पौधे भी रखे हुए थे। शायद कोई नर्सरी थी। ये देखने में बड़े खूबसूरत लग रहे थे। मैं सड़क के उस तरफ ही चल रहा था जिसके बगल में ये दुकाने थीं। अगर दूसरी तरफ होता तो फोटो खीचता लेकिन आलस के कारण मैंने रोड क्रॉस नहीं किया और सोचा कि वापसी के दौरान वक्त लगा तो इसकी फोटो खींचूँगा।

ये सोचकर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ने लगा।


रास्ते में चलते हुए सीमेंट के काफी कॉलम आये थे जिनमें महरौली पुरातत्वीय पार्क लिखा हुआ था। इससे मुझे ये अंदाजा तो हो ही चुका था कि मैं सही रास्ते पर हूँ। इसी रास्ते में चलते हुए पहले अहिंसा स्थल आया। मुझे सड़क के इस पार से ही स्तूप दिखने लगा। वो आकर्षक था और मेरे मन में एक बार उधर जाने का ख्याल आया लेकिन मैंने मन को समझाया कि अभी जिधर के लिए आया है उसे पूरा कर। एक बार ये हो गया तो वक्त मिलेगा तो अहिंसा स्थल भी हो आना। ये सोचते हुए मैंने एक दो स्तूप की एक दो फोटो खींची और चलते हुए आखिरकार पुरातत्वीय उद्यान के गेट पर पहुँच गया।


रास्ते में ऐसे स्तम्भ काफी आये थे जिनसे पता चलता था कि मैं सही राह पर हूँ 

अहिंसा स्थल 

अहिंसा स्थल 

अन्दर जाने से पहले महरौली पुरातत्वीय उद्यान के विषय में कुछ बातें:

  1. महरौली पुरातत्वीय उद्यान 200 एकड़ में फैला हुआ है और क़ुतुब मीनार वर्ल्ड हेरिटेज साईट और क़ुतुब परिसर के बगल में है। 
  2.  इसमें 80 से ज्यादा स्मारक हैं। 
  3.  ये दिल्ली का एकलौता ऐसा इलाका है जहाँ पिछले 1000 सालों से लोग रह रहे हैं। 
  4.  इसके अन्दर तोमर राजपूतों द्वारा 1060 ईसवीं में बनाये गये लाल कोट के अवशेष भी मौजूद है। इसके अलावा  बाद के राजवंशों खिलजी, लोधी, तुगलक, मुग़ल और ब्रिटिश के दौरान बनाए गये स्मारक भी इधर मौजूद हैं 


पार्क का गेट एक आम पार्क के गेट के समान था। मैं अन्दर दाखिल हुआ और सीधे रास्ते में बढ़ने लगा। उधर छोटे छोटे पार्क थे।उनमें से एक  पार्क में कुछ व्यस्क लोग और कुछ स्कूल के बच्चे थे। रविवार के दिन वो इधर क्या कर रहे थे? पहले मेरे मन में ये सवाल कौंधा। फिर जब मैंने उनमें से कुछ लोगों को पार्क में चूने से लाइन्स बनाते हुए देखा तो समझ आया कि शायद खेल का कोई प्रोग्राम इधर होगा।  आगे एक पिलर टाइप का था जिसमें पार्क के अलग अलग हिस्सों की तरफ जाने का रास्ता इंगित था। पार्क के अंदर घुसते ही एक शिलालेख पर्यटकों का स्वागत करता है। ये शिलालेख पार्क के विषय में बताता है जिसके अनुसार इसमें 80 से ऊपर स्मारक हैं। ये पढकर मुझे पता तो लग गया था कि हर चीज तो मैं नहीं देख पाऊँगा। मेरे पास वक्त इतना नहीं था लेकिन जितना होगा उतना तो देखने की कोशिश करनी ही थी।


 वहीं पर एक दीवार थी जिसके सामने एक बाग़ दिखता था। बाग़ के पार दूर से क़ुतुब मीनार और एक गुम्बद दिखाई देते थे। मैंने जब ये दृश्य देखा तो कुछ पल के लिए ठहर गया। अभी जनवरी थी तो बाग में फूल नामात्र के थे। लेकिन अगर बाग़ फूलों से गुलजार हो तो ये दृश्य हज़ार गुना खूबसूरत हो जायेगा। मैंने उस वक्त सोच लिया था कि हो सके तो एक बार ऐसे मौसम में इधर आऊँगा जब बाग़ फूलों से भरा हुआ हो। इधर खड़े दो चार मिनट हो गये थे जिसमें मैंने कुछ तसवीरें भी ले ली थीं।

पार्क में मौजूद स्तम्भ जो पार्क के अलग अलग हिस्सों की तरफ इंगित करते हैं 

पार्क के गेट के निकट रखा शिलालेख जो पार्क की जानकारी देता है 

सामने मौजूद बागीचा 

सामने दिखते क़ुतुब मीनार और कुली खान का मकबरा 


अब मैं आगे बढ़ गया। मैं पहले जमाली कमाली मकबरे और मस्जिद को देखना चाहता था।मेरा विचार था कि गेट से नजदीक चीजें मैं वापस आते हुए देख लूँगा।मनीष भाई ने भी आना था तो मैं उनके आने से पहले दूर मौजूद चीजें देखना चाहता था।

मैं जमाली कमाली की तरफ बढ़ चला। जैसे पहले ही बताया कि इधर छोटे छोटे पार्क फैले हुए थे। चलते चलते रास्ते के दोनों तरफ टीले नुमा ऊँचे स्थान भी थे। जहाँ पत्थर, पुरानी इमारतों के अवशेष और पार्क में आराम करते लोग थे। धूप निकली हुई थी और लोग उसका आनन्द उठा रहे थे।मैं चलते जा रहा था और आकर्षक दिखती चीजों की तसवीरें उतारता जा रहा था।मेरे जैसे कैमरे लादे कई पर्यटक भी उधर मैं देख सकता था। वो भी फोटो खींचे जा रहे थे। इधर दिखती कई स्मारकों के नाम नहीं थे। वहीं इन स्मारकों के पीछे कई लोगों ने कूड़ा भी डाला हुआ था जहाँ सूअर मजे लेकर चरते हुए भी देखे जा सकते थे। इधर ही मैं कुछ देर तक घूमता रहा और मैंने फोटो लिए।

पार्क को जाता रास्ता 

जमाली कमाली की तरफ 

पार्क में मौजूद एक छतरी 

पार्क  में मौजूद एक अवशेष 

स्मारक के पीछे दावत उड़ाते जानवर 

ऐसे ही फोटो खींचते खींचते मैं जमाली कमाली मस्जिद के पास पहुँचा। उसके पिछले हिस्से में कुछ फूल उगे हुए थे जो दिखने में खूबसूरत लग रहे थे।मैंने उसकी तस्वीर निकाली। वही काफी गाड़ियाँ भी पार्क हो रखी थी जो न जाने किसकी थी। मैं मस्जिद के सामने था। उसके गेट के अपोजिट दिशा में एक कब्रिस्तान था जहाँ काफी कब्रे थीं। मैंने गेट से कब्रों की भी कोई तस्वीर निकाली। मैं मस्जिद में दाखिल हुआ। उधर एक गार्ड भाई साहब बैठे थे जो रखवाली कर रहे थे। एक महिला पर्यटक थीं जो कि मस्जिद के विषय में उनसे जानकारी चाह रही थी जो कि गार्ड साहब मुहैया नहीं करा पा रहे थे।मैं अन्दर दाखिल हुआ  और इधर उधर घूमने लगा। अन्दर से आप एक जगह से मस्जिद के पीछे देख सकते थे। मैं उधर गया तो पीछे एक क्रिकेट का मैच चल रहा था। एक आध बॉल उसकी देखी और फिर मस्जिद से बाहर आ गया।परिसर में ही एक शिलालेख था जिस पर जमाली कमाली मस्जिद और मकबरे के विषय में काफी जानकारी दर्ज थी।  उससे मुझे इस इमारत के विषय में निम्न बातें पता चलीं:

  1. इधर मौजूद मस्जिद और मकबरा शेख फजलुल्लाह जिसे जलाल खान या जमाली के नाम से भी जाना जाता था, से जुड़ी हैं 
  2. वो एक संत और कवि थे जो कि सिकंदर लोधी और हुमायू के राज्य के दौरान जीवित थे 
  3. ये मस्जिद भले ही 1528-29 में बनानी शुरू की गई थी लेकिन इसका निर्माण हुमायु के राज्य के दौरान हुआ था 
  4. मकबरे का निर्माण 1528 ई में हुआ था 
  5. इसके अन्दर दो मकबरे हैं जिनमें से एक जमाली का है और दूसरा किसी अनजान शख्स का जिसे कमाली बोला जाता है 
  6. मकबरे में जमाली द्वारा रची गई पंक्तियाँ ही उकेरी हुई हैं

उसके बाद मैं आगे बढ़ गया।मेरा इरादा अब पार्क का चक्कर मारने का था।मनीष भाई को आने में अभी वक्त था।मैं घूमने लगा। जमाली कमाली के बाद मैं आगे गया। उधर एक और मस्जिद थी जहाँ कंस्ट्रक्शन का काम चल रहा था। उसके बगल में एक पार्क था जिसके एक तरफ क्रिकेट मैच चल रहा था और एक रास्ता चलने वालों के लिए बना था। मैंने उधर का चक्कर मारा। आस पास कुछ अवशेष थे जिनके अन्दर मैं गया लेकिन ऐसे ध्यान से किसी को नहीं देखा। मनीष भाई का कॉल आ गया था कि वो जल्दी ही अपनी कार्य से फ्री हो जायेगें। मैंने उन्हें कहा कि ऐसा है तो मुझे मेट्रो के  बाहर आकर कॉल कीजियेगा। मुझे लग रहा था कि वो जल्द ही इधर पहुँचने वाले हैं। मैं ऐसे ही घूम रहा था कि तभी मनीष भाई का कॉल आया। वो मेट्रो से बाहर निकल गये थे और पूछ रहे थे कि किधर आना है। मैंने उनसे कहा कि आप पुरातत्व पार्क की तरफ आ जाओ। उन्हें  रास्ता बताया। रास्ता बताते हुए मैंने  अहिंसा स्थल को गलती से शांति स्थल बताया था। फिर थोड़े देर बाद उनका दुबारा कॉल आया कि इधर शांति स्थल तो कुछ है ही नहीं। अहिंसा स्थल है। मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ और मैं थोड़ा झेंपता हुआ बोला कि बेख्याली में मैंने अहिंसा को ही शांति कहा। क्योंकि अहिंसा होगी तो शांति तो होगी ही।

अब कुछ संशय नहीं था। जब तक वो आते तब तक मुझे गेट तक जाना था। मैं गेट की तरफ बढ़ गया। अब बाकि का पार्क उनके साथ घूमना था। मैं जब गेट के नज़दीक पहुँच रहा था तो एक पल को मेरी नज़र उसी छोटे पार्क पर गई जहाँ मैंने सुबह कुछ लोगों को चूने से लकीरे बनाते हुए देखा था। उधर बच्चे के बीच खेल प्रतियोगिता चलने लगी थी और तरह तरह के खेल हो रहे थे। यानी मैं सही था। अपनी डिडक्शन पॉवर की तारीफ़ करते हुए और खुद को शर्लाक होल्म्स के समान दिमागी सोचते हुए मैं आगे बढ़ रहा था। मैंने सोचा वो आयेंगे तो उन्हें इस विशेष बात के विषय में बताऊंगा।

जब तक मैं उनके पास पहुँचता हूँ तब तक आप इन तस्वीरों का लुत्फ़ उठाइये।

जमाली कमाली के दीवार के निकट लगे खूबसूरत फूल 

जमाली कमाली के ठीक सामने मौजूद कुछ कब्रें 

जमाली कमाली मस्जिद

जमाली कमाली मस्जिद में मौजूद शिलालेख 



मस्जिद के बगल में मौजूद मकबरा 

जमाली कमाली मकबरा







बलबन के बेटे खान शाहिद के मकबरे को जाता रास्ता 




मनीष भाई पहुँचे और मैं गेट में उनसे मिला।  वे मिले और बोले कि आपके बताये शांति स्थल से कंफ्यूज हो गया था। मैं जो अब तक खुद को शर्लाक मान रहा था था अर्श से फर्श पर गिरा। मुझे वो सारी घटनाएं याद आ गई जहाँ मैं किसी को भी दिशा निर्देश देने में खुद को असमर्थ पाया था और उनको भी कंफ्यूज कर दिया था। मैंने खुद को जब्त किया। और मनीष भाई से हँसी ठिठोली करके उनका ध्यान अपनी गलती के ऊपर से हटाने की कोशिश करने लगा। शर्लाक होल्म्स अब बाहर नहीं आना था।

मैंने उन्हें बताया कि मैंने जमाली कमाली मस्जिद और मकबरा देख लिया है। और अब हम दूसरे दिशा से जाते हैं और फिर आखिर में घूम कर उधर से होते हुए जमाली कमाली से ही बाहर निकल जायेंगे क्योंकि एक रास्ता उधर से बाहर को भी जाता है। वो इसके लिए राजी हो चुके थे।

अब हम लोग कुली खाँ के मकबरे की तरफ गये। हम फोटो खींचते हुए उधर पहुँचे। मकबरे के आस पास भी एक दो अवशेष थे तो उधर की फोटो हमने खींची। एक जगह से निकल कर सामने ही लेक नुमा जगह थी। उधर पानी तो नहीं था लेकिन आसानी से हम इसकी कल्पना कर सकते थे की पानीं होता तो आराम से बोटिंग हो सकती थी। हम सोचने लगे कि उस वक्त महराजा शाम को उधर से निकलकर प्रकृति का आनन्द लेते होंगे। सामने से ही रोज गार्डन भी दिखता था।  फिर हम कुली कुली खाँ के मकबरे पे पहुँचे और उधर मौजूद बोर्ड पर दर्ज जानकारी पढ़ने लगे। कुली कुली खाँ का मकबरा उसके भाई आदम खाँ का भाई द्वरा बनाया गया था। लेख को पढ़कर लग रहा था कि अपने जीवन में भी कुली खाँ अपने भाई के नाम से जाना जाता था और अब मरकर भी यही हाल था। बचपन में मेरी बहन को जब लोग कहते थे कि ये विक्की की बहन है तो वो चिढ जाया करती थी। वो कहती थी कि ऐसा क्यों नहीं कहते थे कि ये मेरा भाई है। शायद सभी अपने नाम से जाने जाना पसंद करते हैं न कि अपने भाई बहन के नाम से। यही याद करते हुए मैं सोचने लगा कि बेचारी कुली खाँ की आत्मा क्या सोचती होगी। मकबरा मेरे नाम का लेकिन लिखा कि ये आदम कुली खाँ का भाई था जैसे पूरी ज़िन्दगी में उसने एक ढंग का काम किया हो।  ये पढकर हम सोचने लगे कि इस भाई को अपने मरने के बाद भी अपने भाई के वर्चस्व से मुक्ति नहीं मिली है।सिबलिंग राइवलरी आपने सुनी होगी जहाँ भाई बहन में आपस में कम्पटीशन होता है। आदम  खाँ इसमें जीत चुका था और ये आईडिया हमारे लिए फनी था। हम इसी के ऊपर बात कर रहे थे कि ऊपर मौजूद एक व्यक्ति ने बोला कि जैसे ज्यादा फेमस भाई के नाम से कई भाई जाने जाते हैं वहीं हाल कुली खाँ का भी था।हमने उनकी बात सुनी और हामी भरी।

अब कुली खाँ के मकबरे की तरफ जाना था। लेकिन उधर जाने से पहले उस मकबरे के विषय में कुछ जानकारी ले ली जाए तो कैसा रहे:


  1. इस मकबरे का निर्माण सत्रहवीं शताब्दी में मुहम्मद कुली खाँ के नाम पर  किया गया 
  2. कुली खाँ मुगल बादशाह अकबर की दाई माहम अनगा का बेटा था। कुली खाँ आधम खाँ का  भाई था। आधम खाँ अकबर का एक जनरल(सिपहसालार) रहा था और उसके भाई की तरह था। हालाँकि बाद में अकबर के हुकम के कारण ही आधम खाँ की मृत्यु हुई थी क्योंकि आधम खाँ ने अपनी दुश्मनी के चलते अकबर के वजीर ए आजम अतगा खाँ को मार दिया था। बड़ी ही रोचक कहानी है। है न?
  3. इस मकबरे को बाद में थॉमस थियोफिलस मेटकाफ ने अपना सप्ताहंत मनाने के लिए बदल दिया था और इसे दिलकुशां कहने लगा था


मकबरे तक पहुँचने के लिए एक सीढ़ी थी जो कि काफी सीधी थी। उसमें  ऊपर चढ़ते हुए  डर भी लग रहा था। हम उधर चढ़े। और मुझे अहसास हुआ कि आते हुए जो कुतब मीनार के बगल में मैंने जो गुम्बद देखा था वो कुली खाँ का मकबरा ही था।

हमने उधर कुछ फोटो लिए और फिर मकबरे के दूसरे साइड गये। उधर पार्क था जहाँ लोग खेल कूद रहे थे। हमने उधर कुछ फोटो खींचे।


कुली खान के मकबरे के नजदीक एक अवशेष 




मकबरे का अंदरूनी भाग ऐसे ही नीली टाइल्स से सजाया है। 




तू खींच मेरी फोटो तू खींच मेरी फोटो - पोज़ देते मनीष भाई 

अब हम लोग आगे बढ़े। आगे एक मकबरा था और उसके सामने राजाओं की बाओली थी। मकबरा छोटा था और बाओली बड़ी तो हमने पहले मकबरे में जाने की सोची।

हम लोग मकबरे में गये। ये मकबरा लोधी राज्य के दौरान बना था।  मकबरा किसका है या ऐसी कोई जानकारी इधर नहीं मिलती।

उधर थोड़ी देर घूमने के बाद हम राजों की बाओली में गये जो बगल में ही थी। राजा की बाओली का  निर्माण दौलत खान ने सिकंदर लोदी के राज्य के दौरान करवया था। बाओली काफी बड़ी है। बाओली में ऊपर भी जाने के लिए सीढियाँ हैं।  ऊपर एक मकबरा और एक मस्जिद और है जिधर हमने कुछ वक्त बिताया। उधर मौजूद पानी हरा दिख रहा था और काफी बुरी हालत में थे। प्लास्टिक की बोतल उधर गिरी हुई थी।  ये सब लोग ही  करते हैं। हम घूमते घूमते फोटो खींच रहे थे।

जब फोटो खींचकर हम संतुष्ट हो गये तो आगे बढ़ गये। आगे एक और मकबरा था। उधर एक बोर्ड था जो मकबरे के विषय में जानकारी दे रहा था। उसके अनुसार मकबरे का निर्माण पठान काल में हुआ था। फिर मकबरे की बनावट और संरचना को लेकर जानकारी थी लेकिन ये सब बातें मेरे सिर के ऊपर से निकलती हैं तो मेरा ध्यान अपने आप इधर नहीं जाता। मेरी रूचि  इन  इमारतों से जुड़ी कहानियों में ज्यादा होती है जो कि इसके विषय में कहीं दर्ज नही थी। इसकी भी हमने दो चार फोटो खींची और हम आगे बढ़ चले।


राजाओ की बाओली के सामने बना एक मकबरा 

राजाओं की बाओली 

बोली में मौजूद मस्जिद और मकबरा 





पठान काल के दौरान बना एक मकबरा 

अब हमे देखने के लिए केवल गंधक की बाओली ही बची थी। उस बाओली को ढूँढने के लिए हमे काफी मशक्कत करनी पड़ी। वो बाओली पार्क से बाहर पीछे की साइड थी जहाँ रेजिडेंशियल एरिया था उधर के तरफ थी। हमने उधर कुछ लोगों से पूछा तो उन्होंने डायरेक्शन दी। हम अभी भी संशय में थे। ऐसे में उधर से एक फोरेनर आ रहे थे तो मनीश भाई ने कहा कि चलो उससे पूछते हैं शायद उसे पता हो। ये आईडिया सुनकर मुझे हँसी आ गई। मैंने कहा वो भी सोचेगा कैसे चमन हैं अपने देश में मुझसे ही अपने देश की बात पूछ रहे हैं। मैंने मनीष भाई से बोला आप ही पूछो। उन्होंने पूछा तो उसे आईडिया ही  नहीं था। हम हँसते हँसते आगे गये। फिर हमने बगल में मौजूद एक रेस्टोरेंट वाले से पूछा तो उसने सामने इंगित करते हुए बताया कि ये है वो बाओली। हम लोग आश्चर्य चकित थे। वो थोड़ा एंटी क्लाइमेटिक था। अगर वो भाई नहीं बताते तो हमे पता ही नहीं लगता। अब हम उधर गये। उधर कुछ लोग बैठे हुये और बाओली के हाल बेहाल थे। एक तो फोटो लेने के पश्चात हम लोग उधर से वापस उद्यान में दाखिल हो गये।

जाने जाँ ढूँढता फिर रहा हूँ तुम्हे रात दिन -  गंधक बाओली की तलाश में मनीष भाई 
गंधक की बाओली 


वैसे तो पुरातत्वीय पार्क काफी बढ़ा था। हमने काफी चीजें देखी थी और ये भी पता था कि काफी चीजें रह भी गई थी। दो बजे के करीब वक्त हो गया था और हमे पुस्तक मेले में जाना था।और हम चाहते थे कि एक दो घंटे हमे पुस्तक मेले में भी घूमने को मिले तो हमे इस यात्रा को इधर ही विराम देकर अपने दूसरे गंतव्य स्थल के लिए निकलना पड़ा।

मनीष भाई ने जो चीजें देखी थी उनसे इतर मैंने जमाली कमाली मस्जिद और उसके आस पास के अवशेष ही देखे थे।

मैंने उनसे कहा कि हम वो देखते हुए उधर से ही बाहर निकल जायेंगे। जमाली कमाली से एक रास्ता बाहर को जाता था जो कि मेट्रो जाने वाली सड़क पर मिलता था। मनीष भाई और मैं जमाली कमाली देखने गये और वो देखने के पश्चात जमाली कमाली के रास्ते से बाहर को आ गये।  हमने सोचा जो बाकी चीजें बची थी वो बाद में देखी जाएँगी। बहरहाल, मेरा मन था इधर का चक्कर लगाने का और वो तो कम से कम कर ही दिया था।

उधर से बाहर मैं निकला तो ऐसा लगा जैसा गुजरे वक्त से दोबारा आधुनिक वक्त में दाखिल हुआ हूँ। दिल्ली मुझे कई बार इस चीज का एहसास कराती है। इधर जैसे कोई टाइम मशीन लगी हो। आप एक जगह जाते हैं और दूसरे वक्त में ही पहुँच जाते हैं। इसलिए दिल्ली कितना भी घूम लो। बोर नहीं करती। इसके पास देने को बहुत कुछ होता है। हर एक यात्रा में ये कुछ नया निकालकर आपको देती है। जैसे बचपन में बुजुर्ग आते थे और उनके झोले से खिलौने, टोफियाँ या ऐसे ही कोई रुचिकर उपहार निकल जाते थे वैसे ही एहसास दिल्ली मुझे कराती है। ये शहर ऐसे ही एक बुजुर्ग की तरह है जिसके झोले में कुछ न कुछ आश्चर्यचकित करने वाला होता है और आज इसने हमे ऐसे ही कई उपहार दिये थे। हम बहुत खुश थे।

अब हमे अपनी अगली मंजिल प्रगति मैदान की तरफ जाना था। पुस्तकें मुझे पसंद है इसलिए उधर जाने के लिए मैं ललायित था। मनीष भाई का उत्साह भी चरम पर था। वो फैसला करके आये थे कि झोला भर के पुस्तक ले जाना था। मेरे मामले में तो ये था कि चूँकि मुझे अगले हफ्ते भी पुस्तक मेले में घूमने जाना था तो उस दिन मैं संयमित तरीके से खरीदारी करना चाहता था।

ये संयम कितना बरक़रार रहता ये तो उधर जाकर ही पता चलता। उस विषय में अगली पोस्ट में बताऊँगा। तब तक के लिए अलविदा। बाय, खुदा हाफ़िज़।

घूमते रहिये, पढ़ते रहिये। #रीड_ट्रेवल_रिपीट  #फक्कड़_घुमक्कड़


                                                                               समाप्त 


© विकास नैनवाल 'अंजान' 

6 टिप्पणियाँ

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  1. वाह,गढ़वाल यूनिवर्सिटी के सहपाठियों के साथ सन् 1980 में टूरिज्म डिप्लोमा का टूर जीवंत हो गया।

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    1. शुक्रिया,सर। ब्लॉग पर आपका स्वागत है। आते रहियेगा।

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