मैंगो फेस्टिवल 2018 (जनकपुरी) की घुमक्कड़ी

8 जुलाई 2018 को घूमा गया


'आम' ये शब्द सुनते ही मेरे चेहरे की चमक दस गुना  बढ़ जाती है। फलों में मुझे जो चीज सबसे ज्यादा पसंद है वो आम ही है। आम के क्या क्या फायदे हैं ये तो आप सभी जानते होंगे। आम के अन्दर मौजूद विटामिन्स, एंटी ओक्सीडेंटस,बीटा कैरोटीन इत्यादि सेहत के लिए काफी लाभदायक होते हैं। आम के अन्दर पोटैशियम, कैल्शियम,कॉपर,आयरन,फोलेट और ऐसे ही कई सारी चीजें पाई जाती हैं जो उन्हें सच में फलों का राजा बनाती हैं। सेहत के लिए तो आम अच्छे होते ही हैं लेकिन मैं तो उनके स्वाद का दीवाना हूँ। अलग अलग तरह के आम का अलग अलग तरह का स्वाद होता है और मुझे ये स्वाद लेना बहुत पसंद आता है। मन करता है आम का मौसम कभी खत्म न हो, यूँ ही चलता रहा और मैं आम खाता रहूँ।

ऐसे में शुक्रवार यानी 6 तारीक को जब मैं आफिस में पहुँचा तो मेरे कलीग चंदन भाई ने मुझे जनकपुरी में शुरू होने वाले 'मैंगो फेस्टिवल' के विषय में बताया। मेरा फलों के राजा के प्रति प्रेम आफिस में सबको पता ही है और यही कारण था कि उन्हें लगा मेरी रुचि इसमें होगी। और चंदन भाई गलत भी नहीं थे। उस खबर में मेरे मन में एक उत्सुकता जगा दी थी और मैंने ये फैसला तो कर ही लिया था कि मैं इधर शिरकत करूँगा।

पहले मेरा मन शनिवार को जाने का था। कुछ दोस्तों के बात की तो किसी का भी रिस्पांस उत्साहवर्धक नहीं था। एक ने बोला शनिवार को तो नही लेकिन रविवार को वो आ सकता था। तो मैंने शनिवार के बजाय रविवार को जाने की योजना बनाई। वो अलग बात है कि मुझे पता था कि रविवार को वो नहीं आने वाला है।

खैर, शनिवार का दिन बीता और रविवार की सुबह हुई। मैंने मन बना लिया था कि मैं  तो जाऊँगा ही फिर  चाहे अकेले ही जाना पड़े।  जब सुबह आठ बजे तक किसी का रिस्पांस नहीं आया तो मैंने नाश्ता करके जाने की सोची। नाश्ते में मैंने छोले भठूरे खाये जो कि पीजी में बने थे।

नाश्ता 


फिर मैं तैयार होने लगा और करीब दस साढ़े दस बजे के करीब अपने रूम से निकल तिलकनगर के लिए निकल पड़ा। मैंने गूगल में सब देख लिया था जिससे मुझे पता लग गया था कि दिल्ली हाट जनकपुरी में चल रहे इस मेले के लिए मुझे तिलकनगर मेट्रो स्टेशन से गाड़ी मिल जायेगी।


रूम से बाहर आते हुए मुझे गर्मी का एहसास हो गया था। और रिक्शे तक पहुँचते पहुँचनते पसीने निकलने लगे थे। रिक्शा लेकर मैं एम जी मेट्रो तक गया और फिर उधर से राजीव चौक की गाड़ी पकड़ी। मेट्रो स्टेशन में भीड़ इतनी अधिक नहीं थी और मेट्रो में भी खड़े होने लायक जगह मिल गई थी। मैंने शनिवार को श्रीलाल शुक्ल जी का उपन्यास 'आदमी का जहर' शुरू किया था और आखिरी के चालीस पृष्ठ ही बचे थे। मैं तिलकनगर पहुँचने से पहले इसे खत्म करना चाहता था।



'आदमी जी जहर' एक जासूसी उपन्यास है जो श्री लाल शुक्ल जी ने लिखा था। अजीतसिंह एक पत्रकार था जो एक साप्ताहिक अखबार चलाता था। हरीशचन्द्र   को अपनी पत्नी रूबी  पर शक था कि उसके अजीत के साथ नजायज सम्बन्ध थे और इसी शक के कारण हरीश ने उस पर गोली चलाई थी। इसका नतीजा ये हुआ कि अजीतसिंह की मौत हो गई। कहानी में पेच तब पड़ा जब पोस्ट मार्टम में पाया गया कि अजीत की मौत गोली से नहीं बल्कि जहर से हुई थी। और पुलिस को शक था कि जहर देने वाली रूबी ही थी। उनके इसी शक के कारण कैस में उमाकान्त  का आगमन हुआ। उमाकान्त पत्रकार था लेकिन खोजी पत्रकारिता करता था। रूबी का मित्र था और उसके कहने पर उसने ये केस हाथ में लिया था।

अब देखना ये था कि आखिर अजीत सिंह को ज़हर किसने दिया? क्या पुलिस का शक सही था? रूबी ने अजीत सिंह को ज़हर दिया था? सारा दारोमदार उमाकांत के ऊपर था। तो ये उपन्यास था और मैं इसके आखिरी हिस्से पर था। रोमांच अपने चरम पर था।

उधर ट्रैन राजीव चौक तक पहुँच रही थी और इधर मैं उमाकान्त के साथ मशरूफ था। वो कैस को सुलझाने वाला था कि तभी राजीव चौक आ गया। मैंने किताब बन्द की और राजीव चौक उतरकर द्वारका जाने वाली मेट्रो की तरफ बढ़ गया। प्लेटफार्म में पहुँच कर ट्रैन का इंतजार किया और जैसे ही ट्रेन आई तो फट से उसमे चढ़ गया। ट्रैन में भीड़ ठीक ठाक ही थी। मैंने अपने लिए एक जगह चुनी और वापस उमाकान्त के साथ अजीतसिंह हत्याकांड की गुत्थी सुलझाने में व्यस्त हो गया। मुझे यकीन था तिलकनगर तक पहुंचने तक काफी हद तक केस सुलझ जाएगा और किताब खत्म हो जाएगी। ऐसा हुआ भी। तिलकनगर जब मैं पहुँचा तो कातिल का पता लग गया था। पुलिस ने उसे धर दबोचा था और बस उपसंहार ही रह गया था। मैंने सोचा इसे मैं आम फेस्टिवल से वापस आकर पढ़ लूँगा।

तिलकनगर मेट्रो स्ट्रेशन मैं पहली बार उतर रहा था। मुझे लगा वो नार्मल स्टेशन की तुलना में  काफी गहराई में है। मुझे काफी नीचे उतरना पड़ा। शायद एग्जिट गेट बेसमेंट में बना है क्योंकि जब मैं बाहर निकला तो एक सबवे से ऊपर सड़क पर पहुँचा।

सड़क पर एक व्यक्ति से जनकपुरी दिल्ली हाट के रिक्शो के विषय में पता किया और जिधर उन्होंने इंगित किया उस तरफ बढ़ गया। उधर रिक्शा पूछ रहा था तो एक व्यक्ति को भी उधर की तरफ जाना था। कोई भी रिक्शा वाला बीस रुपये सवारी से कम में जाने को तैयार नहीं था जबकि जो व्यक्ति साथ में जा रहा था उसे दस रुपये सवारी पे जाना था। किसी तरह एक रिक्शा वाला भाई पंद्रह में तैयार हुआ और हम उस पर बैठकर दिल्ली हाट तक पहुँच गए। हम उधर जा रहे थे तो जो व्यक्ति साथ में बैठे थे उन्होने मुझसे पूछा कि क्या मेरा भी उधर स्टाल है तो मैंने हँसते हुए कहा कि नहीं  मैं तो देखने जा रहा हूँ। उनका शायद उधर स्टाल था क्योंकि वो किसी रिश्तेदार से कह रहे थे कि उधर पहुँचने वाले हैं। शायद इसलिए क्योंकि मैंने पूछा नहीं था।


पहुँच गये फेस्टिवल
दस मिनट के सफ़र के पश्चात ही रिक्शा आखिरकार गेट के बाहर था। बाहर मौजूद गेट सजा हुआ था। उसमे बड़े बड़े अक्षरों में लिखा मैंगो वाओ दर्शा रहा था कि हम सही जगह पहुँच गये थे। अब देखना था कि अन्दर का माहौल कैसा है। अभी सजावट चल ही रही थी। मैं अन्दर दाखिल हुआ और चारो तरफ नज़र दौड़ाई। एक जगह बच्चों के खलेने के लिए झूले थे। एक जगह बंदूक से निशाने बाजी की व्यवस्था की हुई थी। उन सबको देखकर मुझे पौड़ी में लगने वाले सर्कस की याद आ गई जहाँ परिवार के साथ हम बचपन में जाया करते थे। थोड़ी देर मैं बचपन की यादों में खोया रहा।

बच्चों के लिए झूले


फिर मैं आगे बढ़ गया।  आगे एंट्री थी और उधर एक गार्ड  भाई साहब थे। उनसे पता किया कि टिकेट किधर मिलेगा और फिर टिकेट लिया। मैंने टिकेट देने वाली महिला को 100 रूपये का नोट दिया तो उन्होंने मुझसे खुल्ले पैसे देने को कहा। मेरे पास सौ का ही नोट था और इससे कम पैसे थे नहीं। फिर भी मैं पाँच दस मिनट तक अपने पर्स में ताँका झाँकी  करता रहा। मुझे ऐसा करते देख वो खुद ही परेशान हो गई और उन्होंने मुझसे सौ का नोट मांगकर फिर मुझे टिकेट दिया। मुझे हँसी आ रही थी लेकिन किसी तरह उसे रोका। फिर टिकेट लेने के बाद जब मुड़ गया तो हँसा। अगर मेरे पास खुल्ले होते तो मैं अवश्य दे देता लेकिन वो थे नहीं तो कहाँ से देता। आखिर उन्हें ही पैसे देने पड़े।

अब मैंने टिकेट ले लिया था तो मैंने महोस्तव में एंट्री करी। अन्दर गाने बज रहे थे। माहौल खुशनुमा था। लोग हँस खेल रहे थे। सच में उत्सव जैसा प्रतीत होता था। पेड़ों से बड़े बड़े आम लटक रहे थे। भले ही ये आम कृत्रिम थे लेकिन इन्हें देखकर मज़ा आ रहा था। लोग भी इन्हें देखकर उत्साहित हो रहे थे। कोई इन्हें पकड़कर फोटो खिंचवा रहा था तो कोई इनपे दाँत गढाते हुए फोटो खिंचवा रहा था। एक चीज जो सभी लोगों में समान थी वो थी उनके चेहरे पर मौजूद मुस्कुराहट। सभी खुश थे और एक सकारात्मक ऊर्जा उधर मौजूद थी। ऐसी जगह जब आप जाते हो तो खुद खुद आप पर इसका असर होने लगता है और आप भी प्रसन्न हो जाते हो।

एंट्री करते ही  सामने दो महिलाओं की मूर्ती थी। उन महिलाओं में से एक ने हाथ में टोकरी ले रखी थी। और लोग उनके साथ तस्वीर खीचा रहे थे। मैने भी उन्हें कैमरे में कैद किया और आगे बढ़ गया। जब तस्वीर ले रहा था तो सोच रहा था कि क्या इस टोकरी में भी आम होंगे। अपनी इस बचकानी सोच पर मुझे खुद ही हँसी आ गई।




अब  मैं पहले पूरे हाट के चक्कर काटना चाहता था। उधर काफी स्टाल्स से। कुछ स्टाल्स में आम से जुड़ी चीजें थी और कुछ में हाट में जैसी चीजें होती है जैसे हस्तकला के उत्पाद, सजाने का समान, कपड़े  वगेरह थे। गर्मी थी लेकिन इतनी नहीं कि चला न जा सके। भीड़ अभी नामात्र थी। लोग जरूर थे लेकिन अभी ये जगह खचाखच नहीं भरी थी। मैं आराम से पूरे हाट के चक्कर लगाने लगा। मुझे एक हॉल दिख गया था जहाँ आम की अलग अलग वैरायटी की प्रदर्शनी लगी थी लेकिन मैं उधर आखिर में जाना चाहता था। पूरी जगह घूमने में मुझे दस पंद्रह मिनट लगे होंगे। आप भी चलिए मेरे साथ :










आम इधर बिक रहे थे 

अब आखिरी में वही हॉल बचा था जहाँ तरह तरह के आम देखने को मिलते। हाट में ही एक जगह आम बिक भी रहे थे। मैंने पहले ही रूम में आम रखे हुए थे इसलिए मैंने कुछ खरीदना नहीं था। मैं तो घूमते हुए खाली इनका लुत्फ़ लेना चाहता था। मैने चक्कर मारा और अब प्रदर्शनी वाली हॉल में जाने का मन बनाया।

मैं अब तक कुछ ही आम की प्रजाति जैसे : लंगड़ा, चौसा,दशहरी,सफेदा,तोतापरी इत्यादि से वाकिफ था। इसके अलावा कुछ तरह के आम के विषय में रवीश जी की 2015 में की हुई रिपोर्ट से पता चला था। उसे आप इधर देख सकते हैं ( फलों के राजा आम की 'खास' कहानी)। आज मुझे और कई तरह के आम देखने को मिलने वाले थे। मैं काफी उत्सुक था।

मैं हॉल में घुसा तो हैरत में मेरी आँखें फैली की फैली रह गई। जब मैंने ५५५ वैरायटी के विषय में पढ़ा था तो मुझे यकीन करने में दिक्कत हो रही थी लेकिन उधर जाकर आसानी से यकीन हो सकता था। हॉल दो हिस्सों में विभाजित था। निचले हिस्से में अलग अलग स्टाल लगे थे और हर स्टाल में कुछ सौ-पचास के करीब आम दिखाई दे रहे थे । ये स्टाल प्राइवेट आम उत्पादकों के तो थे ही साथ में कुछ शिक्षण संस्थानों के स्टाल भी इधर थे और वो भी अलग अलग तरह के आम दर्शा रहे थे।  ये अनुभव काफी overwhelming था। अगर आप आम के शौक़ीन हैं तो सोच सकते हैं कि ये किसी जन्नत से कम नहीं था। मैं यही सोच रहा था कि अगर ये सारे आम बाज़ार  में मिलने लगे तो साल के हर दिन के लिए एक अलग आम हो सकता है। इन्ही सपनों में डूबा हुआ मैं हर स्टाल में घूमने लगा और उधर मौजूद आमों को तस्वीर में उतारने लगा।














हॉल के ऊपरी हिस्से में कुछ विशेष वैरायटी के आम रखे हुए थे। ऐसा लग रहा था जैसे प्रतियोगिता हुई हो और उसमे जीते हुए आमों को रखा गया हो। मसलन दशहरी आम के समूह में अलग अलग विक्रेताओं के दशहरी आम रखे थे और उन्हें पहला दूसरा तीसरा स्थान दिया गया था। मैंने ऊपर चढ़ कर भी काफी फोटो निकाले। इनका लुत्फ़ लीजिये।

ऊपरी हिस्से से दिखते स्टाल्स 

ऊपरी हिस्से से दिखते स्टाल्स 








घूमने आये और सेल्फी न ली तो फिर क्या किया


मैं मन भरने तक उधर घूमता रहा और फिर जब पूरी तरह मन भर गया तो हॉल से बाहर निकल आया।  मैं घूमते हुए यही सोच रह था कि जीवन कितना छोटा है। अब यही देखिये। दुनिया में इतने तरह के आम हैं और शायद ही अपने जीवन काल में कोई इन सबके स्वाद का अनुभव कर पाए। लेकिन फिर भी हम दूसरी चीजों में दिमाग खपाते रहेंगे जिनसे न हमे कोई फायदा न किसी और को। बस ऐसे ही टेंशन पालते रहेंगे। टेंशन तो इस बात की होनी चाहिए कि इतने सारे आम हैं जिनका नाम तक हमे नहीं पता, खाना तो दूर की बात। क्यों कैसी कही? जोक्स अपार्ट मैं सच में अभिभूत हो चुका था। इतना कि जो मैं सोच कर आया था कि हर आम का  नाम नोट करूँगा  और उसके विषय में जानकरी हासिल करूँगा वो न कर पाया। वैसे अगर इन सब आमों के प्रकारों को एक पैम्फलेट या बुकलेट में मेले में रखा जाता तो शायद बढ़िया होता। ऐसे में चलते चलते जानकरी हासिल करना थोड़ा मुश्किल सा होता है। वैसे, ये भी हो सकता है कि बुकलेट रही हो क्योंकि मैं तो आम के प्रकार देखकर इतना खोया था कि कुछ पूछने का ख्याल भी मन में नहीं आया।


मैं हॉल से बहर निकला तो उधर मौजूद दस फूटे आम पर मेरी नज़र गई। जब हॉल में जा रहा था तो कई लोग उसके पास खड़े होकर सेल्फी खिंचा रहे थे। अब हॉल से बाहर निकल रहा था तो भी वही हाल था। लेकिन फिर थोड़ी देर के लिए उन महाशय को छूट मिली और मैंने झट से उनको तस्वीर में उतार दिया।

आम के ऊपर आम,आम के नीचे आम, बोलो कितने आम



आम महाशय को कैमरे में कैद करके आगे बढ़ा तो राजस्थानी गाना चल रहा था और  दो कलाकार राजस्थानी नृत्य का प्रदर्शन कर रही थी। ऐसी हॉल से निकलकर मैं जब उनका नृत्य देख रहा था तो पसीने पसीने हो रहा था जब कि वो दोनों युवतियाँ नाच रही थी और पसीना कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। मैं नृत्य देखते हुए यही सोच रहा था कि ऐसा कैसे सम्भव है। उधर जितने  लोग खड़े थे  वो सब  भी पसीने में नहा रहे थे और वो कलाकर नाच रहे थे लेकिन उन्हें पसीना नही था। नाच खत्म होने तक मैं उधर रहा।  नाच खत्म होने के बाद उधर एक और प्रोग्राम हुआ जिसमें आम का अचार बनाना सिखाया जा रहा था। मुझे इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी तो मैं आगे बढ़ गया।



अचार बनाना सीखते लोग 


आगे एक स्टाल था जहाँ 100 रूपये देकर आप कितने भी आम खा सकते थे। एक बार के लिए मैंने सोचा कि उधर खाऊँगा लेकिन फिर याद आ गया कि डाइट पे हूँ तो मन मारकर उधर ही मौजूद एक हॉल में बैठने चला गया। हॉल ठंडा था और थोड़ी देर उधर आराम किया।
सौ है दाम, कितने भी खाओ आम

अब सब कुछ मैं देख ही चुका था। हाल में पाँच दस मिनट तक रुका और फिर पूरे हाट का एक और चक्कर मार कर वहाँ से बाहर निकल गया। जब मैं आया था तब साज सज्जा चल ही रही थी। लेकिन काफी कुछ चीजें लग गई थी। एक दस फुटे भाई साहब, आम की ड्रेस पहने कुछ लोग और ऐसे ही कई आकर्षण का केंद्र सक्रिय हो चुके थे। बच्चे हो या बड़े सभी इनके साथ फोटो खिंचवाने के लिए ललायित थे। मैंने जाते हुए इन चीजो को कैमरे में कैद किया और एक सुखद अनुभव लेकर हाट से बाहर निकल आया।

इस घूम घाम में मुझे भले ही एक डेढ़ घंटे के करीब ही लगे थे लेकिन मजा आया था। बहुत दिनों से कहीं बाहर जाने का मन था तो ये उसके लिए खुराक साबित हुई थी। मुझे अच्छा लग रहा था क्योंकि घुमक्कड़ी के कीड़े थोड़े शांत पड़ गये थे।







हाट से बाहर निकलते ही मुझे ऑटो मिल गया और मैं मेट्रो स्टेशन की तरफ बढ़ गया। अब वापस रूम तक जाना था। आदमी का जहर के आखिरी कुछ पन्ने पढने थे।

और एक नई यात्रा का प्लान भी बुनना था।

अभी के लिए अलविदा। फिर मिलेंगे एक और यात्रा के ब्योरे के साथ। तब तक पढ़ते रहिये, घूमते रहिये।
#रीड_ट्रेवल_रिपीट
                                                                      -- समाप्त --


पुनाश्च : आदमी का जहर मैंने मेट्रो में पढ़ ली थी। उपन्यास के विषय में इतना ही कहूँगा कि भले ही इसका अंत थोड़ा कमजोर लगा लेकिन उपन्यास के अधिकांश हिस्से ने मेरा मनोरंजन किया। लेखक की इस रचना को बिना पूर्वाग्रह और बिना अपेक्षा के पढेंगे तो शायद आप भी इसका लुत्फ़ उठा सकें। मेरा तो इसे पढ़ते वक्त भरपूर मनोरंजन हुआ। आप एक रोचक जासूसी कथानक पढ़ना चाहते हैं तो एक बार इसे पढ़ सकते है।
उपन्यास के प्रति मेरी विस्तृत राय आप निम्न लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं:

आदमी का ज़हर



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