नीलकण्ठ ट्रेक #१ : दिल्ली से रामझूला

यह यात्रा 19 जनवरी,2018 से 20 जनवरी 2018 में की गयी 
पौने छः बजे का रामझूला... जब भी इसे देखा था झूला कम लोग ज्यादा ही दिखते थे...पहली बार इसे इतने सुकून से देख रहा था 

नीलकंठ महादेव के विषय में जब घुमक्कड़ों के ब्लॉग पढ़े थे तो इस ट्रेक को करने का मन हो ही गया था। ब्लॉग में दिए विवरणों को पढ़ते पढ़ते इतना अंदाजा तो हो ही गया था कि ये ट्रेक साधारण थी। साधारण माने इधर चढ़ने के लिए किसी विशेष सामग्री की जरूरत नहीं पड़ने वाली थी। बस आपको चलते जाना था और ये चलना अब आराम से करते या बैठ कर करते  या लेट कर करते  ये आपके स्टैमिना पे निर्भर करता। मुझे अगर इस ट्रेक को वर्गीकृत करना हो तो मैं इसे आसान से मध्यम ट्रेक्स में से एक में गिनूँगा। आसान इसलिए क्योंकि रास्ता सीधा है। आप कहीं खो नहीं सकते। और मध्यम इसलिए क्योंकि दूरी जरा ज्यादा है। तो अगर आप ज्यादा चलते फिरते नहीं है तो इस ट्रेक को करते हुए आपके होश भी फाकता हो सकते हैं। फिर भी ट्रेक आप पूरी कर ही लेंगे, बस वक्त थोड़ा ज्यादा लगेगा।  लेकिन इस ट्रेक के अनुभव को क्या मैं आसान में गिनूँगा? ये जुदा बात है। और इस विवरण को पढकर ही आप अंदाजा लगाइयेगा।

खैर, ट्रेक करने का मन तो था लेकिन जब भी प्लान बनता कुछ न कुछ अड़चन आ जाती। जैसे अश्विन भाई के साथ जब रानी माजरा गया था तो उधर शनिवार को रानी माजरा रूककर रविवार को नीलकंठ की ट्रेक का प्लान था। लेकिन उधर भी कुछ जरूरी कारणों से ये योजना परवान नहीं चढ़ सकी (गुरुग्राम से रानीमाजरा की यात्रा के विषय में पढ़ने के लिए इधर क्लिक करें। )। फिर उसके बाद परीटिब्बा जाना हुआ और उसमें भी ये योजना बनाई थी कि शनिवार को परीटिब्बा की ट्रेक करने के पश्चात रविवार को नीलकंठ महादेव की ट्रेक करूँगा लेकिन फिर उस ट्रेक में चोटिल होने के कारण योजना को रद्द करना पड़ा और शनिवार को ही मैं गुडगाँव के लिए रवाना हुआ। (इसके विषय में विस्तार से जानने के लिए इधर क्लिक करें।) इसके बाद भी कई प्लान थे लेकिन सब रद्द होते गये। इसका एक कारण मेरा खुद का आलस तो था ही लेकिन इसके इलावा एक और बात थी।  पिछले साल मैं अपनी घुमक्कड़ी के लिए अपने मित्रों पर भी निर्भर रहता था। और वो घुमक्कड़ी के इतने शौक़ीन नहीं हैं तो मेरे प्लान भी कम ही बने थे। साल के अंत तक आते आते मैंने अकेले ही अपने शौक को पूरा करने का मन बना लिया था और एक दो एकल यात्राएं भी की थीं। इसलिए इस साल मैंने निर्णय ले ही लिया था कि इस ट्रेक को निपटाना ही है। पहले प्लान पिछले सप्ताहंत (यानी 12-13 जनवरी ) का  लेकिन उस दौरान पुस्तक मेला लग गया तो हफ्ते के आखिरी दिन मेरे  उधर ही बीत गये(उसके विषय में पढने के लिए इधर क्लिक करें।)। इसलिए आख़िरकार 19 वाले सप्ताहंत को जाने का प्रोग्राम बनाया।

सुबह ऑफिस जा रहा था तो मैंने अश्विन भाई को व्हाट्सएप्प में सन्देश डाला कि वो हरिद्वार जायेंगे क्या? अश्विन भाई का घर उधर ही है और व्यक्तिगत काम के सिलसिले में वो उधर हर सप्ताहंत जाते हैं। फिर मेसेज डालकर मैं ऑफिस की तरफ चलने लगा। पाँच दस ही मिनट हुए होंगे कि उनका कॉल आ गया। कॉल पर उन्होंने कन्फर्म किया कि वो जायेंगे । मैंने उनसे पूछा कि वो बस से जायेंगे या ट्रेन से? उन्होंने बस से कहा तो मैं खुश हो गया। उनसे मिले काफी दिन हो गये थे। तो मैंने उन्हें अपनी योजना के विषय में बताया।  उन्होंने मुझे बताया कि वो तो साढ़े आठ तक कश्मीरी गेट होंगे तो मैंने कहा कि मैं नौ सवा नौ तक पहुँचूँगा क्योंकि मैं ऋषिकेश 5-6 बजे करीब पहुंचना चाहता था। ऐसा इसलिए था क्योंकि मैंने ये बात तो सुनी थी कि पैदल रास्ता जंगल से होकर जाता है और इस कारण उधर जानवरों की आवाजाही ज्यादा होती है। यही बात मैंने उन्हें बताई तो उन्होंने भी कहा कि वो भी दस साढ़े बस में जाना ही प्रेफर करते हैं और वो मेरा इन्तजार करेंगे। मुझे और क्या चाहिए था। मैंने उनसे मिलने को बोलकर सम्बन्ध विच्छेद किया। फोन रखकर मुझे ध्यान आया कि मैंने व्हाट्सएप्प का बैकग्राउंड डाटा बंद किया हुआ है। बैकग्राउंड डाटा खोला तो पता लगा उनका सन्देश तो तुरंत आ गया था और जब मैंने जवाब नहीं  दिया तो उन्होने कॉल किया। खैर, अब दिन ही गुजारना था और सफ़र में एक पंथ दो काज हो रहे थे। इतने दिनों बाद अश्विन भाई से दोबारा मुलाक़ात हो रही थी और अब आलस के कारण यात्रा कैंसिल करने की सम्भावनाएं भी कम थी। मुझे आप लोगों का तो नहीं पता लेकिन में अक्सर किसी यात्रा में जाने से थोड़ी देर पहले मुझे कम्बल में ढका बिस्तर और देर तक सोना काफी आकर्षित करने लगता है। इस कारण एकल यात्रा कई बार मैं रद्द भी कर चुका हूँ। वो अलग बात है कि एक बार यात्रा पे निकल पड़ो तो उसका रोमांच इन प्रलोभनों पर भारी ही पड़ता है। ऐसे में कोई साथी हो तो आप जिम्मेदारी के कारण बंध से जाते हो। फिर वो साथी खाली सफ़र के आधे रास्ते तक ही क्यों न हो।

अब मैं ऑफिस में दिन गुजरने के इन्तजार कर रहा था। पूरा दिन साधारण तरीके से गुजरा और मैं अपने नियमित वक्त से दस पंद्रह मिनट पहले ऑफिस से निकल गया। मुझे पैकिंग तो कुछ नहीं करनी थी लेकिन मैं अपने शुक्रवार का व्यायाम टालना नहीं चाहता था। इसलिए रूम में पहुँचकर मैंने एक केला खाया और जिम में जाकर व्यायाम निपटाया। 45 मिनट में ही सब निपटाकर रूम आया और शेव करने लगा। इसके बाद नहाया और सवा सात बजे तक तैयार हो गया।मेरे पास दो केले और सेब थे तो मैंने वो भी बैग में डाले और फिर चेक करके कि सब कुछ रख लिया है इस यात्रा पे निकल पड़ा। यही सेब और केले मेरे दिन का खाना होने वाले थे। मैं सफ़र में अक्सर लाइट प्रेफर करता हूँ। अकेले रहता हूँ तो चाय, पार्ले जी या फलों से ही गुजारा कर लेता हूँ। खाना एक ही वक्त खाना पसंद करता हूँ और वो भी बहुत हल्का।

पहले मेरा प्लान पीजी से एमजी मेट्रो पैदल जाने का था लेकिन चूंकि अश्विन भाई जल्दी पहुँचने वाले थे तो मैं उन्हें ज्यादा इंतजार नहीं करवाना चाहता था। इसलिए मैंने एक साझा ऑटो पकड़ा और मेट्रो की तरफ निकल पड़ा। मैं उत्साहित था। ट्रेक का तो पता नहीं लेकिन अब ये पक्का हो चुका था कि मैं ऋषिकेश तक तो पहुँच ही जाऊँगा। सड़क तक पहुँचने तक मैं एक डेरी से अपने लिए बीस का टोंड पनीर ले चुका था। ये मेरा रात का खाना होने वाला था।

जल्द ही मैं मेट्रो के बाहर था। ठंड अभी मुझे इतनी नहीं लग रही थी। मैंने पैसे चुकाए और एंट्री गेट की तरफ बढ़ा। उधर एक लम्बी सी लाइन लगी थी जो कि सप्ताहंत और आठ बजे के वक्त में होना लाजमी था।मैं लाइन में लग गया और दस पंद्रह मिनट में ही मैं अंदर दाख़िल हो गया। मैंने रूम से निकलने से पहले ही अश्विन भाई को सन्देश डाल दिया था कि मैं निकलने वाला हूँ और नौ सवा नौ बजे तक पहुँच जाऊँगा। अश्विन भाई ने भी कहा था कि वो साढ़े आठ बजे तक वो भी पहुँच जायेंगे। मेट्रो का सफ़र साधारण ही था। मैं अपने साथ जेफ़री डीवर का उपन्यास 'रोडसाइड क्रोसेज़' लाया था और उसे ही पढ़ने में तल्लीन हो गया। रोडसाइड क्रोसेज़ कैथेरिन डांस श्रृंखला का दूसरा उपन्यास है। मैं पहली बार जेफ़री डीवर को पढ़ रहा हूँ। अक्सर जब भी अमेरिका में कहीं किसी हाईवे के निकट एक्सीडेंट होता है तो स्मारक के तौर पर उधर एक क्रॉस लगाया जाता है जिसपे फूल अर्पित किये जाते हैं और दुर्घटना में जिन लोगों ने अपनी जान गवाई उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की जाती है। शहर में ऐसे ही कई क्रॉस देखे जा रहे थे। और इन क्रॉसेज में अटपटी बात ये थी कि इनमे दर्ज तारीक आने वाले दिनों की थी। एक क्रॉस में दर्ज जो तारीक थी जब  उस दिन एक लड़की का अपहरण करके उसे मारने की कोशिश की जाती है तो सी बी आई हरकत में आ जाती है। वो लड़की तो खुशकिस्मती से बच गई थी लेकिन इसने सी बी आई को तहकीकात करने को मजबूर कर दिया था। अब ये कैथरीन डांस के ऊपर था कि वो इन क्रॉस के पीछे छुपे रहस्य का पर्दा उठाये और होने वाले अपराधों को रोके। उपन्यास ठीक जा रहा था लेकिन कभी कभी मुझे लग रहा था कि तकनीकी बातें ज्यादा दी गई है जो उपन्यास को सामान्य पाठकों के लिए थोड़ा बोझिल सा बना सकता है। खैर, उपन्यास की दुनिया में खोये हुए जल्द ही कश्मीरी गेट भी आ गया।

वक्त नौ बजने के लिए कुछ ही मिनट रह गये थे। अश्विन भाई पहुँच चुके थे। उन्होंने मुझे अपना एक नंबर भी भेजा था। मैंने उस नंबर को डायल किया तो नंबर नही मिला। फोन काटा और उपन्यास बैग में डाला और मैंने सोचा कि बाहर निकलकर ही कॉल करूँगा। मैंने उन्हें सन्देश डाल दिया था कि आपका फोन नहीं लग रहा। थोड़ी देर ही चला था कि मैंने व्हाट्सएप्प खोला तो देखा कि सन्देश उनको मिल चुका था। मैंने दोबारा कॉल लगाया तो कॉल लग गया। उन्होंने कहा कि वो सात नंबर गेट के पास मुझे मिलेंगे। अब मैं उधर की तरफ बढ़ चला।

जैसे ही सात नंबर गेट से निकला तो मैंने अश्विन भाई को दुबारा कॉल लगाया। लेकिन वो मुझे पहले ही दिख गये। हम दोनों बगलगीर होकर मिले और फिर मैंने उनसे पूछा कि उन्हें ज्यादा तो इन्तजार नहीं करना पड़ा। उन्होंने कहा नहीं। फिर उन्होंने कहा खाने का क्या करना है। अब मैं सफ़र में हल्का भोजन पसंद करता हूँ और मेरे पास तो पनीर भी था। उन्होंने कहा कि उन्होंने नहीं खाया तो मैंने कहा कि मैं ज्यादा तो नहीं खाऊंगा लेकिन साथ देने के लिए खा लूँगा। फिर हम  आईएसबीटी के निकट के एक ढाबे की तरफ बढ़ चले। वही एक ढाबा था और उधर ही हम बैठ गये। मेरे पास कच्चा पनीर था। मैंने अश्विन भाई को उसके विषय में पूछा तो उन्होंने खाने से मना कर दिया और इस तरह पनीर के अन्दर मौजूद 20 ग्राम प्रोटीन पूरा मेरे ही शरीर में समाया। खाने में मैं चावल नहीं खाना चाहता था क्योंकि उसे देखकर कण्ट्रोल करना मुश्किल होता है और मैं एक्स्ट्रा खा लेता हूँ तो हमने एक दाल  मक्खनी मंगवाई जिसके साथ मैंने दो रोटी (रोटी मन मारकर ही मैं खाता हूँ) और अश्विन भाई ने भी कुछ रोटियाँ खाई। फिर खाने का बिल उन्होंने अदा किया और हम आईएसबीटी के अंदर जाने के लिए बढ़ चले। अभी दस के करीब वक्त हो रहा था तो मैंने कहा थोड़ी देर और रुकते हैं और चाय पीकर चलेंगे। उन्होंने भी इसकी हामी भरी और हमने आईएसबीटी में दाख़िल होकर एक बार चाय पी।

आईएसबीटी में अश्विन भाई के साथ

चाय पीने के पश्चात  हम ऋषिकेश की तरफ जाने वाली  बसों की तरफ बढ़े। पहले अश्विन भाई उत्तराखंड की बस देखना चाहते थे लेकिन चूंकि वो मिली नहीं और उत्तर प्रदेश की बस लगी हुई थी तो हम उसी में बैठ गये। हमे सीट भी मिल गई और अब हम बस के चलने का इन्तजार करने लगे। इसी दौरान एक घटना हुई। बस में टोर्च बेचने वाले भाई चढ़कर टोर्च बेच रहे थे। बस चलने को हुई तो बस वाले ड्राईवर ने उन्हें बुरा भला कहकर भगा दिया। काफी विशेषणों का इस्तेमाल भी किया। मुझे गुस्सा तो आया लेकिन मेरी कई बार ऐसे मामलों में बहस ज्यादा हो जाती है और पूरा सफ़र खराब हो जाता है तो अब मैंने जब तक बातों तक चीजें सीमित रहती हैं तब तक बीच में पड़ना छोड़ दिया है।

कुछ ही देर में बस भी चलने लगी। हम इधर उधर की बातचीत कर रहे थे। बस में मैं खिड़की की साइड बैठा हुआ था लेकिन बैठने में तकलीफ सी हो रही थी। मुझे सकुचाकर बैठना पड़ रहा था क्योंकि सीट में फिट नहीं आ रहा था। वहीं यही हाल अश्विन भाई का भी था। मैं सोच रहा था कि किस आदमी को मॉडल रखकर ये सीट बनाई थी। कुछ देर में अश्विन भाई इस तरह से बैठ गये थे कि उनकी पीठ मेरे तरफ हो चुकी थी।  ऐसे ही सकुचाते हुए सफ़र जा रहा था। फिर टिकेट वगेरह कटा और बस की लाइट डिम हुई। अब अश्विन भाई नोर्मल तरीके से बैठ गये और थोड़ी बातचीत के बाद हम भी सोने लगे। अभी नींद आ भी नहीं रही थी कि बस तेजी से एक तरफ मुड़ी और हमारी बगल में मौजूद थ्री सीटर में सबसे किनारे वाले व्यक्ति ने अपना संतुलन खोया और सीट से नीचे गिर पड़ा। वो सो रखा था और अब सीट के बगल में जो आने जाने का रास्ता होता है उधर बैठा हुआ हतप्रभ सा था। थोड़ी देर तक जब वो बैठा रहा तो अश्विन भाई और उसके बगल वाले ने उसे उठाने की कोशिश की लेकिन फिर भी वो न हिले न डुले। थोडा कोशिशों के बाद शायद उसे अपने स्थिति का ज्ञात हुआ और उसे थोडा उठाया, थोडा वो खुद उठा और किसी तरह सीट पर पंहुचा।  मुझे लग रहा था उसने पी हुई है। अश्विन भाई का भी यही अंदाजा था। उन्होंने कहा कि या तो उसने पी है या उसका पैर सोया था। वैसे अगर शर्त लगानी हो तो पहले वाली की सम्भावना अधिक थी। खैर, थोड़ा बहुत एंटरटेनमेंट तो हुआ था। पीने वाले अगर लड़की से बदतमीजी और गाली गलौज न करें तो वो काफी मनोरंजन करते हैं।

खैर, इसके बाद सफर चलता रहा। बीच में गाड़ी कुछ यात्रियों को चढाने के लिए रुकी। ये नॉएडा के आस पास की बात है शायद। उधर एक अंकल आंटी चढ़े थे। अब सीट इस तरह थी कि कहीं भी दो खाली नहीं थी। अब वो लोग कंडक्टर को इस बात के लिए कोसने लगे कि सीट हैं नहीं। कंडक्टर भाई ने कई बार कहा भी कि आप बैठो तो सही। आगे मेरी सीट है उसमे ही बैठ जाओ दोनों लेकिन वो अपना ही राग अलाप रहे थे। कुछ देर बार उनका रेडियो इस पर अटक गया कि बस रोको हम उतरेंगे। कंडक्टर ने थोड़ा  बहुत बैठने के लिए कहा लेकिन फिर भी वो नहीं माने तो गाड़ी रोक दी गई और उन्हें उतार दिया गया। अब फिर बस चल पड़ी और इसके बाद कुछ हुआ हो ये मुझे याद नहीं क्योंकि मैं सो चुका था। जब बस अचानक से रुको तो मेरी नींद खुली। बाहर कुछ अफसर लोग खड़े थे जो बसों की चेकिंग कर रहे थे। आगे उत्तर प्रदेश परिवाहन की एक और बद खड़ी थी। एक अफसर बस में चढ़े और यात्रियों की संख्या गिनने लगे। फिर बाहर निकलकर उन्होंने अपने साथियों के साथ कुछ मन्त्रणा की और नतीजा ये निकला कि आगे की बस में चूंकि कम यात्री थे तो उन्हें इधर शिफ्ट कर दिया जायेगा।


एक ही बस आगे भेजी जाएगी। ये सुनकर मुझे मेरी ग्वालियर वाली यात्रा की याद आ गई (इसके विषय में आप इधर पढ़ सकते हैं। )। उधर मध्य प्रदेश की बस में ऐसा ही हुआ था। इधर ऐसे होने का मेरे लिए नया अनुभव था। मैं देहरादून अक्सर उत्तर प्रदेश की बसों में ही जाता हूँ और ऐसा मेरे साथ कभी नहीं हुआ था। खैर, अब यात्रियों को लाया गया। जिसे सीट मिली वो बैठा। एक बुजुर्ग दम्पति भी आये। अंकल काफी गुस्से में थे और यूपी परिवाहन के अफसरों की माँ बहनों को याद कर रहे थे। उनका कहना था कि जब ऐसा ही करना था तो आईएसबीटी से चलवानी ही नहीं चाहिए थी।अब उन्हें सीट भी नहीं मिल रही थी। दोनों को साथ बैठना था। उन्होंने एक व्यक्ति से आगे बैठने की गुजारिश की। जब वो उठा तो मैंने उधर देखा तो पता लगा ये  वही महानुभव थे जो सीट से गिरे थे। वो थोडा बहुत झूमते हुए ड्राईवर के तो सीट की बगल वाली सीट में बैठ गये। अभी भी लोग आते जा रहे थे और बस खड़ी थी। काफी देर हो चुकी थी।तो सीट पर बैठने के कुछ देर बार सीट वो महानुभव ड्राईवर से मुखातिब होते हुए बड़ी झल्लाहट साथ बोले कि बस कब चलेगी। उनके बोलने का अंदाज तल्ख था और ऊपर से पूरा लग रहा था कि वो पिए हुए हैं तो ड्राईवर साब उनके बोलने के तरीके से नाराज हो गये और कहने लगे कि  जब अफार काम पूरा करेंगे तभी तो चलेगी और ये नसीहत भी दे डाली कि वो तमीज से बोले। तमीज से बोलने की बात सुनकर मुझे थोड़ी हँसी सी आई क्योंकि ये वही ड्राईवर थे जिन्होंने आईएसबीटी  पे चढ़ने वाले एक टॉर्च बेचने वाले को बड़ी बदतंमीजी से माँ  बहन के विशेषणों से नवाज कर उतार दिया था। अब खुद इज्जत की मांग कर रहे थे। खैर, यही दुनिया है।

इसके बाद अफसरों ने अपना काम निपटाया और बस वापस चालू हुई। बस निकल रही थी तो मुझे एक चीतल नाम का रेस्टोरेंट दिखा। इससे पहले ही बस रुकी थी बाकी जगह के विषय में तो मुझे पता नहीं। अब बस चलना शुरू हुई तो सीधा अलकनंदा रेस्टोरेंट के बगल में रुकी। ये पूजा नाम का रेस्टोरेंट  था। अश्विन भाई ने पहले ही बता दिया था कि इधर रुकेगी। अब पहले मैं बस से उतरा। बस से उतरने के बाद मैंने कुछ तस्वीरें  ली।

बस से झाँकते अश्विन भाई

हमारी सवारी सब पर भारी

बस के सफ़र के दौरान ब्रेड ओम्लेट खाने का अलग ही मजा है.,.. अफ़सोस मैंने खाना खा लिया था... इसलिए इनका आनन्द नहीं ले पाया 
उसी रेस्टोरेंट में मौजूद जूस की दुकान...  हम तो चाय वाले हैं...  जूस से थोड़ा दूर ही रहते हैं.... 


वातावरण में ठंड ज्यादा थी। कुछ देर में अश्विन भाई भी नीचे आ गए। मैं और अश्विन भाई बाहर खड़े हो गये। हम बस के निकट ही खड़े थे क्योंकि अश्विन भाई का बैग बस में ही था। वो कहते हैं न कि प्रिवेंशन इस बेटर देन क्योर। फिर अश्विन भाई उधर के रेगुलर भी थे तो वो सामान छोड़कर नहीं जाना चाह रहे थे। वैसे पौड़ी जाने वाली गाडी में तो मैं सामान कि इतनी चिंता नहीं करता हूँ। खैर, हम बारी बारी से लघु शंका से निपटे और फिर उसके बाद अश्विन भाई चाय लेने चले गये। उन्होंने कहा कि उन्हें पता है कि किधर अच्छी चाय किस रेस्टोरेंट से मिलेगी। हमने चाय पी और उसके बाद बाहर खड़े बस के चलने का इन्तजार करने लगे। बतकही चल ही रही थी।

बस चलने को हुई तो हम बस में चढ़े और इस बार अश्विन  भाई खिड़की की साइड बैठे और मैं उनके बगल की  सीट पर बैठा। जब मैं बैठ रहा था तो मेरी नज़र मेरे बगल के सीट पर बैठे एक सज्जन पर पड़ी। उनकी दाड़ी उगी थी और वो थोड़ा बहुत घुमक्कड़ नीरज जाट जी की तरह लग रहे थे। फिर मैं संकोच के कारण उनसे कुछ कह नहीं पाया। खैर, बस चलने लगी और हम लोग बस में दोबारा नींद के आगोश में सो गये। हाँ, ये संशय मन में पूरे सफ़र के दौरान बना रहा।  बीच में जब बस रूडकी से होकर गुजरी तो आँखे खुली। उस वक्त अचानक मेरे मन में चोटी कटवा का ख्याल आया लेकिन फिर नींद ने उस ख्याल को परे धकेल दिया। रुड़की में ये ख्याल क्यों आया अब याद नहीं। जो धुंधली से याद है वो यही है कि बस से चलते हुए किसी औरत की चोटी दिखी थी शायद। अब असल में दिखी थी या ऐसे लगा था ये भी याद नहीं। मैं नींद में जो था।

 बस चल रही थी और मेरी नींद पूरी तरह से तभी खुली जब अश्विन भाई को उतरना था। उन्हें रानी माजरा जाना था तो वो उस हिसाब से उतर गये। हमने अभिवादन किया और फिर मैंने खिड़की की सीट पर कब्जा जमा दिया। अब मैंने अपनी मुंडी शीशे पे टिकाई और सो गया। ऐसा सोना मुझे पसंद है। बस चलती है तो खिड़की पर हल्का कम्पन सा होता है। उसपर सिर टिका कर सोओ तो मुझे अच्छा लगता है और नींद जल्दी आ जाती है। लगता है कोई थपकी दे रहा हो। ऐसे में मुझे गहरी नींद आनी ही थी और ऋषिकेश से पहले मेरा उठने का कोई इरादा भी नहीं था।

और हुआ भी ऐसा ही। ऋषिकेश के करीब ही मेरी आँख खुली। जब बस अड्डे पर लगी तो मैं नीचे उतरा। मैंने हुड डाला हुआ था लेकिन ठंड मुझे लग ही रही थी। मैं थोडा बहुत काँप भी रहा था। वहीं बगल में मुझे एक चाय वाले दिखे तो मैं उनके तरफ बढ़ गया। मैंने एक चाय माँगी और चाय की चुस्कियों के साथ बढ़ती ठंड से लड़ने लगा। चाय के शरीर में जाते ही मुझे थोड़ा सी राहत मिली। मैंने उसके पैसे अदा किये और फिर अपना मोबाइल निकाल लिया।

मुझे अब राम झूला पहुँचाना था। वैसे तो मुझे यकीन था कि ऑटो उधर के लिए मिल जायेंगे लेकिन चूँकि मैं तो ट्रेक करने आया था और ठंड भी थी ही तो मैंने पैदल ही उधर तक जाने का मन बना लिया। मैंने गूगल मैप में रामझूला फीड किया और आये हुए निर्देशों का पालन करते हुए उस दिशा में बढ़ने लगा।

तकनीक ने भी घुमक्कड़ी को कितना आसान बना दिया है। इससे मेरे जैसे लोग जिन्हें बातचीत करने में थोड़ी झिझक होती है काफी आसानी से घूम फिर सकते हैं। मैं आये हुए रास्ते में बढ़ने लगा। रास्ते बस स्टैंड के पीछे से जाता था। ज्यादातर रास्ता सुनसान ही था। ऐसा लग रहा था कि ऋषिकेश अभी सोया हुआ ही था। इक्के दुक्के लोग जो कि सुबह की सैर के आदि थे ही जगे थे। मैं सुनसान गलियों में बढ़ता जा रहा था।

ऐसे ही चलते चलते मैं एक दो राहे पे आया। इस दौरान मेरे पीछे पीछे एक आंटी ही भी आ रही थी। दो राहे से एक राह थोड़ी चढ़ाई पे जाती थी और एक राह उतराई पे जाती थी। मैं मैप देखकर समझ नहीं पा रहा था कि किधर को जाना है। फिर मैंने सोचा पहले चड़ाई वाली राह पकड़ के देख लूँ। अगर गलत भी चलूँगा तो मैप बता ही देगा और ये सोचकर मैंने वो राह पकड़ ली। थोड़ी ही देर में मुझे पता चल गया कि मैं गलत था। मैं वापस लौटा तो पाया कि जो आंटी कुछ देर पहले मेरे पीछे थीं अब वो मेरे आगे आगे चल रही थीं। उन्होंने मुझे गलत राह से उतरते हुए देखा। वो शायद मेरे मन का संशय भाँप गयीं थी। उन्होंने ही मुझसे पूछा:’ किधर जाना है, बेटा ?
 मैंने झेंपते हुए कहा,’जी आंटी जी रामझूला तक जाना है।’
आंटी - ‘मैं समझ गयी थी लेकिन फिर तुम्हे हैडल जाते देखा तो सोचा उधर ही जाना होगा।’
मैं हँसते हुए,’नहीं नहीं वो मैप पढ़ने  में दिक्कत हो रही थी तो गलत निकल गया था? आप बता देंगी कि किधर को रास्ता है।’
आंटी-’कोई बात नहीं अकसर लोग गलत रास्ते पकड़ लेते हैं। तुम इसी रास्ते पर सीधे चलते जाओ और रोड क्रॉस कर लेना तो वो सड़क सीधे रामझूला तक जाएगी।’

मैं -’थैंक यू, आंटी जी।’

आंटी-’कोई बात नहीं।’

और मैं आंटी के बताये रास्ते पर चलने लगा। तकनीक कितनी भी अच्छी क्यों न हो अगर आप घुमक्कड़ी का शौक रखते हैं तो लोगों से रास्ता पूछने में हिचकिचाना नहीं चाहिए। फिर चाहे आप मेरी तरह संकोची स्वभाव के ही क्यों न हो। मैं इसलिए भी एकल यात्रा करता हूँ क्योंकि इसमें मुझे अलग अलग लोगों से इंटरैक्ट करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। साथी के साथ रहता हूँ तो बोलचाल का काम उसी पर छोड़ देता हूँ। मेरी यात्राओं में मुझे अभी तक जितने भी लोग मिले हैं वो सब ऐसे मिले हैं जो मदद करने को तत्पर रहते हैं। मैं आंटी जी के बताये रास्ते पर बढ़ने लगा और आखिर एक सड़क पर आ गया। उस सड़क के दोनों तरफ आश्रम थे। थोड़ी बहुत लाइट जल रही थी और इक्का दुक्का गाड़ियों को छोड़कर जो कि सरपट बगल से गुजर जाती पूरी रोड खाली थी। मैं ख़ुशी ख़ुशी अपने गंतव्य स्थल की ओर बढ़ता जा रहा था। साथ साथ आकर्षक चीजों की फोटो भी उतारता जा रहा था।

बस स्टैंड से रामझूला मैप में डेढ़ दो किलोमीटर दिखा रहा था और ऐसे ही चलते चलते मैं आखिर रामझूला पहुँच ही गया। इधर पहुँचकर मैंने एक चाय ली। चलते हुए शरीर में गर्मी आ गई थी और चाय ने भी तरो ताज़ा कर दिया था। अब इतनी ठंड नहीं लग रही थी। मैंने थोड़ी देर घाट में बैठने का निश्चय किया। पाँच दस मिनट शांति से उधर बैठा। बहते पानी के संगीत को सुकून से सुना और जब पानी और मेरे मन ने काफी बात चीत कर ली थी तो उठ गया। इसके बाद थोड़ी बहुत फोटो उतारने लगा। फोटो उतारने के बाद मेरा अगला लक्ष्य नीलकण्ठ का रास्ता  पता करना था। यही सोचते हुए मैंने रामझूला क्रॉस कर लिया।

झूला पार करते ही ही मुझे दीवार पर एक दिशा निर्देश भी दिख गया जो कि नीलकण्ठ की ओर इशारा कर रहा था । अब मैं चिंता मुक्त था । मैंने कुछ वक्त इधर ही रहकर फोटो खींचने का विचार बनाया और आस पास के मंदिर, मूर्तियों की तस्वीरें उतारने लगा।


किसी होटल या आश्रम के बाहर ये स्कल्पचर था...रंग बदलते जा रहे थे..... इस रंग में मुझे ज्यादा पसंद आया... 

रास्ते में पड़ा एक आश्रम

राम झूला 

टिमटिमाते मंदिर 
गंगा किनारे आचरण के नियम

भैया जी स्माइल...   

मंजिल दूर नहीं राही...  बस बढ़ता चल
क्रमशः

4 टिप्पणियाँ

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  1. बहुत बढ़िया पोस्ट...अमेरिका के एक्सीडेंट से लेकर भारत के परिवहन और आपकी दिनचर्या के साथ बढ़िया पोस्ट....

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  2. शुक्रिया,प्रतीक भाई....उपन्यास वाकई रोचक था....अगर आपको थ्रिलर उपन्यास में रूचि है तो आपको इसे एक बार जरूर पढ़ना चाहिए....

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  3. बहुत बढि़या पोस्ट विकास जी, बहुत अच्छा लगा पढ़कर, बहुत जी मजेदार रहा आपका सफर। वो सोते सोते उस व्यक्ति का लुढ़क जाना यही साबित करता है कि वो पीए हुए था। ऐसा पहली बार सुना है मैंने कि दो बसों की सवारियों को एक में बैठा दिए, फिर जिसके पास ज्यादा सामान हो उसके लिए तो दिक्कत ही दिक्कत है। खैर अब दूसरा पोस्ट पढ़ते हैं।

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    उत्तर
    1. जी सर... यह कई लोगों की आदत होती है कि रात के सफ़र वाली बस में कुछ न कुछ चढ़ाकर चलते हैं। बाकि बस वाली यही बात मैंने ग्वालियर यात्रा के दौरान भी देखी थी। उधर तो सब प्राइवेट वालों के पास है।उन्होंने दिल्ली से झाँसी की सवारी भरी लेकिन ग्वालियर से कुछ देर पहले ही उन्हें दूसरी बस में शिफ्ट कर दिया था। उत्तराखंड में मैंने पहली बार देखा।
      पोस्ट आपको पसंद आई। हृदय से धन्यवाद। आपके शब्द प्रेरणा देते हैं।

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