कानपुर मीट #6 : ब्लू वर्ल्ड वाटर पार्क और वापसी

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रविवार 9 जुलाई 2017

ब्लूवर्ल्ड वाटर पार्क में (बाएँ से दायें: अल्मास भाई,राजीव सिंह जी, आजादभारती जी, पुनीत भाई, नवल जी,राघवेन्द्र जी ,युग, पार्थ  ,मैं और योगी भाई )

टीवी की आवाज़ ने मेरी तंद्रा को भंग किया। टीवी पर कोई गीत आ रहा था। गाना खत्म हुआ तो पता चला जो प्रोग्राम चल रहा था वो रंगोली था। इतने वर्षों बाद रंगोली से दोबारा जुड़ना हुआ। जब पौड़ी में रहता था यानी 2005 से पहले तो रंगोली रविवार की दिनचर्या का महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करता था। सुबह छः बजे उठ जाया करते थे और नाश्ते के वक्त रंगोली देखा करते थे।  उसके बाद कभी पढ़ाई के सिलसिले में और कभी नौकरी के सिलसिले में भटकना चालू हुआ तो टीवी और उसके साथ रंगोली भी कहीं छूट गया था। इसलिए एक बार को जब टीवी पर रंगोली चलने का एहसास हुआ तो लगा कि वापस अपने बचपन में पहुँच चुका हूँ। लेकिन फिर थोड़ी देर में ही सब याद आ गया कि कानपुर के एक होटल में हूँ।  खैर, नींद तो अब खुल गयी थी। उठा तो सामने आज़ादभारती जी दिखे जो चाय पीते हुए टीवी का आनन्द ले रहे थे। उन्होंने मुझे जगा हुआ देखा तो चाय के लिए पूछा तो मैंने भी हाँ कर दी। अब अकेले रहते हुए तो बेड टी नहीं मिल पाती है। खुद ही सब करना होता है इसलिए आज बेड टी मिली तो उसने चाय के स्वाद को चार पाँच गुना ज्यादा बड़ा दिया। अब मैं रंगोली के गाने देखते हुए चाय की चुस्कियाँ ले रहा था। थोड़े ही देर में योगी भाई भी जाग गए। उनसे चाय के लिए पूछा तो वो कॉफ़ी वाले निकले। अब उनके लिए कॉफ़ी मंगवाई गयी। अब सब अपने पेय पी रहे थे और टीवी में आ रहे गीतों का आनंद ले रहे थे। इतने में नवल जी कमरे में आये। उन्होंने रंगोली चलते हुए देखा तो उस पर थोड़ी देर बात हुई। कौन कौन सी एक्ट्रेस इसको होस्ट कर चुकी हैं। कैसे ये जीवन का हिस्सा हुआ करता था इत्यादि।  इसके बाद हमे तैयार होने के लिए बोला गया। क्योंकि हम लोगों को आज वाटर पार्क जाना था तो जितने जल्दी तैयार होते उतना ठीक रहता। क्योंकि फिर हॉल में जाकर नाश्ता भी करना था। लेकिन करते कराते देर हो ही गयी और जब नीचे पहुँचे तो ग्यारह के करीब वक्त हो गया था।

जब सब नीचे पहुँचे तो नाश्ता किया गया। नाश्ते में पोहा, जलेबी,दही, पराठे, बटर टोस्ट, आॅमलेट, चाय और कॉफ़ी थी। नाश्ते का मेनू हमने एक दिन पहले ही निर्धारित कर लिया था। सबने जमकर नाश्ता किया। मैंने सोचा था कि हल्का नाश्ता करूँगा। लेकिन फिर एक नया प्रयोग किया। मैंने बटर टोस्ट को कॉफ़ी में डुबाकर खाया तो वो इतना स्वादिष्ट लगा कि मैं न जाने कितनी कप कॉफ़ी पी और कितने बटर टोस्ट खा लिए। बड़ी मुश्किल से प्लेट अलग रख पाया। उसके बाद नज़र जलेबी पर गयी तो कैसे छोड़ सकता था तो वो भी खाई लेकिन इस बार जल्दी ही मन को जब्त कर लिया। बाकियों का पता नहीं लेकिन मैंने बहुत खाया।   हम नाश्ता कर ही रहे थे कि बगल वाले होटल से राघव भाई भाभी जी और बच्चों के साथ आये। उन्होंने पहले ही नाश्ता कर लिया था लेकिन फिर हमारा साथ देने के लिए उन्होंने थोड़ा बहुत नाश्ता लिया।

पिछली रात एसी ने बड़ा परेशान किया था। वो डर इधर भी दिखा रहा तभी सब ए सी चेक कर रहे। 


होस्ट अंकुर भाई जांचते हुए कि सभी ठीक ठाक खा रहे हैं या नहीं 

मेरी नास्ते की प्लेट। ऐसे ही इस प्लेट को कई बार भरा गया था। नतीजा ये कि कानपुर से वापस आया तो एक किलो वजन बढ़ा हुआ था। 

अंकुर भाई अपनी होस्ट होने के जिम्मेवारी को पूरी संजीदगी से लेते हुए। 

नाश्ते से निपटने के पश्चात हम ऊपर वापस रूम में आये। अब जैसा की निर्धारित हुआ था हम लोगों को सामान पैक करना था और उसे ले जाकर होटल के एक स्टोर रूम में रखना था। सब लोग अपने अपने सामान को पैक करने में व्यस्त हो गए। हमारे सामने पूरा दिन था और नाश्ता मेरे से कुछ ज्यादा हो गया तो मैंने सोचा कि थोड़ा फ्रेश हो लूँ। सामान तो मेरा पैक था ही। फिर हमे पूरे दिन घूमना था और घूमते हुए ही सीधा रेलवे स्टेशन तक निकल जाना था। इसलिए मैं फ्रेश होने चला गया। मैं हो ही रहा था कि किसी ने रूम में आकार मुझे आवाज दी। मैंने अपनी स्थिति से उन्हें परिचित करवाया तो उन्होंने मुझे निपटने के बाद बगल वाले कमरे में आने के लिए बोला। मैंने हामी दी तो वो चले गए। अब उस समय हालत ऐसी थी कि कारण पूछना नहीं सूझा। जब निपट लिया और बाहर आया तो मन ये जानने के लिए व्याकुल हो गया कि बगल वाले कमरे में क्या है।

इसलिए जल्दी ही बगल वाले कमरे की तरफ बढ़ गया। उधर सभी लोग मौजूद थे। मैंने पूछा कि आप लोग बुला रहे थे तो उन्होंने हामी भरी। मैंने कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि आपको गिफ्ट देना था। ये सुनकर तो मेरी बांछे खिल गयी। गिफ्ट मिलना किसे बुरा लगता है?  मैंने कहा क्या गिफ्ट तो मुझे बताया गया कि सबको पाठक साहब कि कुछ पुस्तकें मिल रही थीं। अब खाली मैं ही बचा था। और पुस्तकें तीन थी। मुझसे पूछा कौन सी चाहिए तो मैंने सोचने के लिए थोड़ा वक्त लगाया कि पुनीत भाई ने कहा तुम नये पढने वाले हो तीनो ले लो और तीन पुस्तकें मुझे दे दीं। सच मानिए दिल गद गद हो गया।गिफ्ट और वो भी किताबें और ऊपर से तीन तीन। सच कहा है कि जब मिलता है तो छप्पर फाड़ कर मिलता है।  अंकुर भाई ने पिछले रात को ही बोला था कि वो पुस्तकें छाँट रहे थे ताकि जो उनके पास दो हों वो आने वाले लोगों को गिफ्ट कर सकें। उस वक्त मैंने सोचा नहीं था कि वो मुझे इतना अमूल्य खजाना दे देंगे। वो पाने के बाद मैं कितना खुश था ये बयान करने के लायक अल्फाज मेरे पास नहीं है। मैंने झट से वो पुस्तकें ली और अपनी अच्छी किस्मत और अंकुर भाई की  दरियादिली का शुक्रगुजार हुआ। मैंने उन्हें थैंक यू बोला और अपने कमरे की तरफ बढ़ चला। अब पैकिंग निपटानी थी क्योंकि इन नगीनों को भी संभालकर रखना था।

मीट में मिला उपहार 

 उपहार पाने के बाद प्रफुल्लित मैं फिर अपने कमरे में आ गया और नये सिरे से इन नगीनों के लिए बैग में जगह बनाने लगा। पैकिंग कर ही रहा था कि योगी भाई  और अल्मास भाई आये। उनके मन में कुछ पक रहा था। उन्होंने मुझ से पूछा - आपके बैग में कुछ जगह है क्या?
मैं-  'हाँ, थोड़ी बहुत है। '
वो लोग - 'थोड़ी बहुत ही चाहिए।'
मैं -' क्यों क्या करना है?'
वो लोग - 'बस कुछ अमानत आपको देनी है। '
 ये कहते हुए अपनी एक अमानत मुझे थमा दी और कहा - ' इसे चुप चाप बैग में रख लीजिये। किसी को कानो कान खबर न हो'
मैं पहले तो झिझका लेकिन फिर उनकी बात मानकर उसे अपने बैग में जगह दे दी। वो अमानत क्या थी ये तो योगी भाई और अल्मास भाई से ही पूछियेगा। मैं इससे ज्यादा कुछ भी बताने में असमर्थ हूँ, मुझे अपनी जान जो प्यारी है😛😛😛😛😜😜😜😜।

खैर, सब पैक करने के बाद हम लोग सामान लेकर नीचे आये। बैग में मौजूद उस रहस्यमयी अमानत के चलते मैं थोड़ा घबराया हुआ भी था लेकिन फिर बैग को सबके साथ स्टोर रूम में रखवा दिया।

इसके पश्चात सारे गाड़ी में बैठ गए। अंकुर भाई किसी कारणवश हमारे साथ नहीं आ रहे थे। उन्होंने हमसे शाम को होटल में मिलने का फैसला किया था।  आजादभारती जी राघव भाई के साथ उनकी गाड़ी में बैठ गये। ऐसा इसलिए भी किया गया क्योंकि हमारी गाड़ी में सारे पीने-खाने वाले लोग थे। और उससे उन्हें थोड़ा तकलीफ हो सकती थी।

अब हम अपने गंतव्य स्थल की ओर बढ़ चले। हमारी गाड़ी आगे आगे चल रही थी और राघव भैया लोगों ने अपनी गाड़ी में पीछे पीछे आना था। हम उनसे आगे थे तो बातें करते करते जा रहे थे। तभी गाड़ी में बैठे लोगों को प्यास लगी। ये पिपासा नीर के साथ किसी और विशेष पेय की भी थी। इसके लिए गाड़ी रोकी गयी और इस तृष्णा को शांत करने का सामान लिया गया। हमे गाड़ी रोके हुए कुछ टाइम हो गया था लेकिन राघव भाई की गाड़ी का कुछ पता नहीं था। उन्हें फोन लगाया तो मालूम हुआ कि पीछे से आते वक्त उनके आगे कि कोई गाड़ी एक खम्बे से टकरा गयी थी और उधर खम्बा गिर गया था और जाम की स्थिति बन गयी थी। अब वो घूम के आ रहे थे और हमे सीधा ब्लू वर्ल्ड वाटर पार्क पे ही मिलने वाले थे। अब क्या किया जा सकता था। हम लोग आगे बढ़ गए।

हम चूंकि वाटर पार्क जा रहे थे तो गीले होने की संभावाना काफी थी। इसलिए हमने सोचा कि गमछों का बंदोबस्त कर लिया जाए ताकि भीगने के बाद सुखाने की व्यवस्था हो। इसलिए रास्ते में कल्यानपुर के मार्किट से हमने पाँच गमछे ले लिए।(जो ऊपर फोटो में गमछे डाले हैं वो वही थे।)

अब हम बिना रुके सीधे ब्लू वर्ल्ड वाटर पार्क की तरफ बढ़ गए। हम उधर पहुँचे और कुछ ही देर के इन्तजार के बाद राघव भाई लोग भी उधर पहुँच गए थे। सब लोग मिले। अब टिकटस  लेना था। वाटर पार्क में दो तरीके के टिकट थे। या तो हम पूरा टिकट ले सकते थे जिसमे हमे वाटर और लैंड दोनों राइड्स मिलती या इनमे से कोई एक के लिए टिकट ले सकते थे। हम डेढ़ या पौने दो बजे करीब ही इधर पहुँचे थे और लाइन भी काफी थी। इसलिए सारी राइड्स लेने का कोई तुक नहीं था। राघव भाई के साथ  पार्थ और युग  भी थे तो हमने सोचा कि उनके लिए दोनों तरह के राइड्स के  टिकट ले लेंगे और बाकी सबके लिए वाटर राइड वाले टिकट ले लेंगे।

अब चूंकि उधर लाइन में भीड़ ज्यादा थी भाभी जी(राघव भाई की धर्मपत्नी) को टिकेट लेने को कहा गया। महिलाओं की कतार पुरषों के मुकाबले काफी कम थी। भाभी जी लाइन में लग गईं और साथ में मुझे भेजा गया। हम वहाँ पहुँचे तो पता चला कि पार्क वालों का बच्चों का भी एक क्राइटेरिया था। उधर ११० cm की ऊंचाई से कम बच्चों को ही कंसीडर किया जा रहा था। इसके लिए टिकट विंडो के करीब ही एक लाइन बनी हुई थी। अब जो बच्चों के लिए टिकट लेते  उससे बच्चों को बुलाकर नपवाने के लिए कहते। जो बच्चा लाइन से ऊपर होता  उसका वयस्कों का टिकट लगता और जो लाइन से नीचे होता उसका बच्चों का टिकेट।

हमारा नंबर आने में अभी काफी वक्त था। हम खड़े होकर अपने नंबर आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। मौसम में गर्मी थी। और पसीने आने लगे थे। हमारे आगे जो महिलाएं खड़ी थीं उनके साथ तीन चार छोटे छोटे बच्चे आये थे। हम खड़े ही थे कि उनमे से एक बच्ची गौरया की तरह फुदकते हुई आई और बोली- 'ममा! मैं बड़ी हूँ। मेरा अडल्ट टिकेट ही लेना। बच्चों वाला टिकेट मत लेना।' उसकी बात सुनकर हम सब हँस पड़े। वो अपने टिकेट के प्रकार को लेकर बहुत संजीदा थी। इतना कहकर वो फुदकते हुए फिर अपने दोस्तों के बीच चली गयी। उसके द्वारा कहे गए इन शब्दों ने उधर का माहौल काफी हल्का कर दिया था। कुछ देर में उन लोगों का नम्बर आया तो उसे भी हाइट नपवाने के लिए बुलाया गया। वो आई और लाइन के सामने खड़ी हुई। उसकी हाइट लाइन से ऊपर थी और उसके लिए अडल्ट का टिकेट लिया गया। इतना होना था कि वो चहकते हुए कहने लगी-'देखा! मैंने कहा था मैं बड़ी हो गयी हूँ।' वो बड़ी खुश थी और उसका चेहरा खुद को बड़ा साबित होने से चमक रहा था।

मैं सोच रहा था कि जब हम भी बच्चे थे तो हमारी सबसे बड़ी ख्वाहिश जल्दी बड़े होने की थी। वो लड़की हमसे अलग नहीं थी। लेकिन एक उम्र में पहुँचने के बाद हमारी दूसरी ख्वाहिश इसके उलट हो जाती है। तब हम समय को काबू कर खुद को और जवान दिखाने की कोशिश करने लगते हैं। जो बच्चा खुद के बड़े होने का इतना बेसब्री से इतंजार करता था वो ही अब खुद की उम्र बढ़ने पर परेशान रहने लगता है और उम्र को रोकने के इतंजाम करने लगता है।  मैं यही सोच रहा था कि उस उम्र में पहुँचने पर ये नन्ही सी गौरैया किस तरह प्रतिक्रिया देगी। लेकिन उसमे काफी वक्त था। मैंने ये ख्याल दिमाग से झटका। अभी तो उसकी मासूमियत ने हम सबका मन मोह लिया था।

थोड़ी देर बाद हमारा नंबर भी आ गया था। हमने भी अपने टिकट के पैसे अदा किये और पार्क के अन्दर दाखिल हुए। चेकिंग वगेरह कराकर अन्दर दाखिल हुए तो पार्क ने हमे -मोहित कर दिया। पार्क बेहद खूबसूरती से बनाया हुआ था।

हम दो  बजे करीब उधर दाखिल हुये थे और पौने सात बजे करीब पार्क से बाहर निकले थे। काफी सारी राइड्स ली और खुशनुमा माहौल का आनंद लिया। यहीं एक रोचक घटना हुई :

हमे वाटर पार्क में जाने से पहले कुछ कॉसट्यूम लेने थे। उन्हें पहनकर ही अन्दर वाटर पार्क में जाया जा सकता था। अपना सामान रखने के लिए हमे लॉकर भी दिये गए थे। हमने अपने कपडे बदले और जूते वगेरह उतार कर उधर डाल दिया। हमारे पास एक बैग था जिसमे हमने हमारे मोबाइल फोन,कैमरा और बाकी का सामान रख लिया। हम उसे लॉकर में नहीं रखना चाहते थे तो पुनीत भाई ने उसे  टांगा और हम पार्क में दाखिल हुए।

पार्क का माहोल रुमानी  था। हर तरफ खुश लोग। संगीत लहरियाँ गूँज रही थी। उस संगीत को सुनते हुए लोग थिरक रहे थे।  पार्क की शुरुआत में एक शेड बना था। उससे पानी की हल्की हल्की फुहार निकल रही थी। हम उसके नीचे गए और उस फुहार का आनन्द लिया। ऐसे में पुनीत भाई को अलग देखना अच्छा नहीं लग रहा था। अगर बैग साथ में होता तो एक व्यक्ति को हमेशा बाहर रहना ही पड़ता। ऐसे में उसका मज़ा किरकिरा हो जाता।
तो हमने सोचा कि हम बैग को लॉकर में डाल देंगे और फिर सभी माहोल का जम कर आनन्द उठाएंगे। अब हम वापिस लॉकर की तरफ बढे। हम लॉकर खोलकर उसमे अपना सामान डालने वाले थे कि अल्मास भाई ने कहा रुको। हमने पूछा क्या हुआ? उन्होंने कुछ न कहते हुए चाबी ली और जो दूसरा लॉकर में वही चाबी डाली जिससे पहले वाला लॉकर खुला था।  उन्होंने लॉकर में चाबी डालकर उसे खोला और मुस्कुराते हुए हमारी तरफ देखने लगे। अब बात हमारी समझ में आई। एक चाबी से कोई भी लॉकर खोला जा सकता था। वो विजेता की तरह हमे देख रहे थे। हमने उन्हें उनके सुनीलियन दिमाग के लिए बधाई दी और बैग को लॉकर में न रखने का फैसला किया। अब पुनीत भाई ने अपने होस्ट होने का कर्तव्य निभाते हुए बैग की जिम्मेदारी खुद के कन्धों में लेनी चाही। तभी हमे ख्याल आया कि आज़ाद भारती जी भी राइड्स  नहीं करने वाले थे। इसलिए बैग उन्हें दिया जा सकता था। लेकिन उन्हें ढूँढना था। इसलिए पुनीत भाई उन्हें पार्क में ढूँढने लगे और हम पार्क में खेलने लगे। राजीव सिंह जी के साथ मैंने वाटर स्लाइड्स का आनंद लिया। साथ में पार्थ और युग भी थे। वहीं स्लाइड के नजदीक एक और मजेदार चीज थी। एक बड़ा सा बैरल था जिसमे पानी भरता जाता था और एक लेवल पे पहुँचने के बाद वो पानी से भरा बैरल पलट जाता था और अपना सारा पानी लोगों के ऊपर उड़ेल देता था। उतना सारा पानी सब एक साथ पड़ता था तो मज़ा आ जाता था और अगर ये पानी अचानक से आपके ऊपर पड़े तो मजा दोगुना हो जाता था। आप बार बार ऊपर देखते रहते हो लेकिन पानी नहीं गिरता फिर आपका ध्यान भटकता है और इतना सारा पानी आपके ऊपर। उसके गिरते ही रोमांच की लहर आपके भीतर दौड़ जाती है। हमने दो तीन बार ऐसे ही उसका मज़ा लिया।

 उधर घूमने के बाद हम लोग ऐसे ही अलग अलग राइड्स में गए। एक छोटी सी ट्रेन टाइप की थी जो पानी के बीच से गुजरती थी। उसपे ट्रेवल किया। एक लम्बी स्लाइड थी जिसपे फिसल कर एक बड़े पूल में गिरते थे। पहले पहल तो उसमे जाने में डर लगा। लेकिन फिर एक बार कर लिए तो मैंने,पुनीत भाई  और राजीव सिंह जी   ने दो बार, योगी भाई ने तीन बार और अल्मास भाई ने न न करते हुए भी दो बार उसका आनंद लिया।

एक पूल था जिसमे कृत्रिम लहरे उठती थी और लोग बाग़ उनका आनंद ले सकते थे। हमने इसका भी आनंद लिया। लेकिन ये खाली दिन में दो बार किया जाता है। और हम एक ही बार इसका आनंद ले पाए थे।  शाम होते होते हम काफी घूम चुके थे और पानी में इतना वक्त बिताने के कारण काफी थक भी चुके थे।  हमे वापस भी जाना था इसलिए समय की कमी के कारण काफी राइड्स का अनुभव लेने से भी हम वंचित रह गए।

अगर आप कानपुर जाए तो इधर जरूर जाइएगा लेकिन सुबह सुबह जाइएगा क्योंकि वहाँ करने के लिए इतना कुछ होता है कि पूरा पार्क कवर करने के लिए एक दिन भी कम रहेगा। पार्क में जाने के लिए आप रेलवे स्टेशन से डायरेक्ट ऑटो या कैब कर सकते हैं। अगर लोकल जाना है तो घंटाघर साइड से रावतपुर टेम्पो से जा सकते हैं। फिर रावतपुर से मंधना टेम्पो या बस से और मंधना से ब्लू वर्ल्ड टेम्पो से जाया जा सकता है।

पार्क में बिताये लम्हों की कुछ तसवीरें देखिये:


टिकट खिड़की

पार्क की एंट्री 
एक कचरा पेटी 

पार्क का हिस्सा 

वाटर पार्क की तरफ जाता रास्ता 

पार्क में मौजूद एक फव्वारा। उस वक्त चालू नहीं था लेकिन मरमेड के हाथ में मौजूओद मछलियों से जब पानी निकलता होगा तो वो बेहद खूबसूरत लगती होंगी। 

रानी मरमेड और उसकी सेविकाएं। सबसे नीचे उसके अंगरक्षक खड़े हैं। 

वाटर पार्क यहीं से जाया जाता था 

छत पर बनी खूबसूरत कलाकृतियाँ 

पार्क का हिस्सा 

पार्क में मौजूद स्ट्रक्चर जो उसे खूब्सूस्ती प्रदान कर रहा था 

पेड़ो की झुरमुट से झाँकता  स्ट्रक्चर। ऐसा लग रहा था जैसे जापान में खड़े हों। 

वाटर स्लाइड्स 

एक और वाटर राइड 

लहरों का आनंद उठाते लोग

बड़ी बतख के सामने सेल्फी खिंचाते लोग

पार्क में ही कहीं 

पार्क में ही कहीं 

पार्क में ही कहीं 

पार्क में ही कहीं 
पार्क में मौजूद फेरिस व्हील 
मरमैन के साथ मैं 

पूल में एन्जॉय करते हुए 
पूल में सेल्फी: राजीव सिंह जी, पुनीत भाई, मैं, नवल जी, योगी भाई और अल्मास भाई 
रेन डांस के बाद 


अब उधर से निकलने का वक्त था । बाकी लोग तो डायरेक्ट उधर से गेट की तरफ गए लेकिन अल्मास भाई और मैं रास्ता भटक गए थे। इसका फायदा ये हुआ कि हमने पार्क के कुछ अन्य जगह भी देखीं। उन्हें देखकर उधर रुकने का मन तो कर रहा था लेकिन फिर चूंकि हमे अभी वापस होटल जाना था और ट्रेन पकडनी तो हमने अपने मन को मारा और एग्जिट गेट की तरफ बढ़ चले।

ये दिन बेहद अच्छा बीता था। हमने बहुत मजे किये थे। खूब कूदा फांदी भी हुई थी तो हमे भूख भी लग गयी थी लेकिन अभी होटल जाकर सामान भी लेना था। अब हम उधर की तरफ चल दिये। होटल पहुँचकर अपना सामान उठाया। इधर हमने राघव भाई से विदा ली और अगली मीट में मिलने का वादा किया।

अंकुर भाई भी होटल पहुँच चुके थे। हम अब उधर अपने गंतव्य के तरफ निकले। हमे अब जय सिया राम होटल में जाना था। पुनीत भाई ने बताया कि ये होटल खाने के लिए बड़ी प्रसिद्द है। अब बिना किसी देरी के हम उस तरफ बढ़ चले।  हमारी ट्रेन सवा नौ बजे की भी थी तो चाह रहे थे कि हम जल्द से जल्द उधर पहुँचे क्योंकि आठ  से ऊपर वक्त हो ही चुका था। वैसे हम लगातार ट्रेन का टाइम भी चेक करे थे और इस वजह से पता था कि ट्रेन थोड़ा लेट चल रही थी लेकिन फिर भी रिस्क नहीं लेना चाहते थे।  इस वक्त ट्रैफिक भी था तो हमे जाने में देर हो रही थी क्योंकि कई जगह रुकना पड़ रहा था। मेरे मन में अपनी दिल्ली में हुई दौड़ की याद आ रही थी। मैं सोच रहा था कि बस दोबारा न दौड़ना पड़े। हम किसी तरह धीरे धीरे करके अपने गंतव्य स्थल तक पहुँचे। हमने गाड़ी पार्क की। अब साढ़े आठ हो चुके थे। गाड़ी आने में पैंतालीस मिनट ही बचे थे। हम जल्दी से खाना खाना चाहते थे तो इसलिए  खाना खाने की तैयारी करने लगे। हमारे लिए टेबल लगाया जाने लगा और साथ ही मेनू भी निर्धारित किया जा रहा था।  जब तक मेनू निर्धारित होता तब मैं इधर उधर घूम कर फोटो लेने लगा।

जय सियाराम होटल जहाँ रात्रि भोज निर्धारित हुआ था 

मेनू निर्धारित करते अल्मास भाई, पुनीत भाई और राजीव सिंह जी 

होटल के पास की इमारत जिसने मुझे आकर्षित किया 

होटल के पास ही ये फव्वारा था 

पास का खूबसूरत दृश्य 

खाने का इतंजार करते सुमोपाई 

खाने खाते सुमोपाई 

नवल जी देखते हुए कि कोई शर्म के कारण कम न खा रहा हो। :-p 
खाना स्वादिष्ट था।  और हमारी टेबल रोड के बगल में लगी थीं। ऐसे खाने का अपना भी अपना मज़ा है। हमने खाना एन्जॉय किया। हम साथ साथ वक्त पर भी नज़र रख रहे थे। हमारी ट्रेन 9:15 बजे कानपुर से चलने वाली थी। खाना खाते हुए नौ बज गए थे। अब मैं थोड़ा परेशान सा हो गया था। दिल्ली से कानपुर आते ही भाग दौड़ करनी पड़ी थी और मैं दोबारा भागना नहीं चाहता था। लेकिन बाकी लोग खाने पीने में व्यस्त थे। हमने जल्दी खाना निपटाया और डेजर्ट में खीर ली। मैंने खड़े खड़े उसे निपटाया। मुझे परेशान देखकर पुनीत भाई ने कहा कि फ़िक्र की कोई बात नहीं। वैसे भी ट्रेन लेट है। मैंने कहा लेकिन स्टेशन तो पहुँचने में वक्त लगेगा तो वो बोले। अरे वो बगल में तो स्टेशन है। रोड क्रॉस करो और पहुँच जाओ।

अब मुझे थोड़ी शान्ति मिली। ट्रेन स्टेशन बगल में था तो उधर पहुँचा जा सकता था। बाकी लोग निश्चिन्त थे और इससे मैं हैरान था। मैं तो जल्द से जल्द स्टेशन पहुंचना चाहता था।  वो कहते हैं न कि दूध का जला छाँछ भी फूक फूक पर पीता है। वही मेरा हाल भी था। मैंने देखा योगी भाई भी खाकर निपट चुके थे। मैंने उनसे कहा कि योगी भाई हम लोग तो चले। ये आते रहेंगे। फिर भागना न पड़े दिल्ली की तरह। उन्हें भी मेरी बात समझ में आई और हम स्टेशन की तरफ बढ़ चले। स्टेशन की तरफ जाते हुए एक दुकान से योगी भाई ने एक बिछौना ले लिया था। मैंने पूछा क्यों ले रहे तो उन्होंने कहा कि काम आ जाएगा।

अब सवा नौ होने ही वाले थे। हम अब प्लेटफार्म की ओर दौड़ने लगे। जो हमारा प्लेटफार्म था उसपर हमें गाड़ी खड़ी दिख रही थी जो चलने को हो रही थी। ट्रेन की अनाउंसमेंट से भी ये बात सामने आ रही थी कि प्लेटफार्म में गाड़ी लगी है और बस निकलने को तैयार है। मैंने भागते हुए योगी भाई से पूछा कि बाकियों का क्या। तो उन्होंने भी भागते हुए कहा कि हमने थोड़े न लेट करने को बोला। जिस तरह भागते हुए उन्होंने ये बात बोली थी वो सुनकर मुझे हँसी आ गयी । अब मैं या तो भाग सकता था या हँस सकता था। दोनों काम एक साथ करना ज़रा मुश्किल होता है। कभी कोशिश कीजियेगा। इसलिए किसी तरह अपनी हँसी को जब्त किया और ओवरब्रिज की सीढ़ियों से प्लेटफार्म में भागते हुए उतरे। हमारा डब्बा एस  6 था जिसकी 3,5,6 सीट हमारी थी। हम भागते हुए अपने डिब्बे में चढ़े तो हैरानी से हमारा मुँह खुला रह गया। उधर लोग ही लोग थे। सभी सीटों पर बिछे हुए थे। पहले हमने अपनी धौंकनी सी चलती साँसों को काबू में लिया। जब साँस नियन्त्रण में आई तो पसीने के धारे छूटने लगे। रुमाल से उन्हें पोंछते हुए हमने कहा कि ये हमारी सीट है तो वो बोले नहीं हमारी है। हमने उनसे एक बार दोबारा पूछा कि ये डिब्बा एस 6 ही है न तो उन्होंने कहा कि डिब्बा तो वही है। हमने कहा और ये सीट नंबर 3,5,6 हैं। तो इसपर भी वे सहमत हुए। मामला क्या था? हम  हैरत में थे। भाग दौड़ के कारण दिमाग भी थोड़ा कुंद पड़ गया था। अभी थोड़ी देर हुई थी कि योगी भाई ने पूछा कि आपको कहाँ तक जाना है। तो उनमे से एक व्यक्ति ने बोला अहमदाबाद। हम हैरान रह गए कि ये क्या माजरा है। हमने कहा कि ये फराका एक्सप्रेस है क्या? उन्होंने कहा कि नहीं ये वो नहीं है। 'ओहो!' हमने कहा और खुद ही हँसने लगे। हमने कहा माफ़ कीजियेगा। हमे लगा ये हमारी गाड़ी है लेकिन ये तो कोई और है। वो लोग भी हँसी में हमारा साथ देने लगे। हम अब उधर से उतरकर प्लेटफार्म पर आ गये। पुनीत भाई ने सही बोला था कि ट्रेन लेट थी। अब हम लोग उनके आने का इंजतार करने लगे। थोड़ी देर में बाकी के लोग भी आ गए। वो बड़े आराम से आ रहे थे और मैं सोच रहा था कि हमने फ़ालतू में दौड़ भाग की।

अब हम लोग उनसे मिले। आज़ादभारती जी की ट्रेन अगले दिन की थी। वो पुनीत भाई के साथ रुकने वाले थे। नवल जी की टिकेट कन्फर्म नहीं हुई थी लेकिन चूंकि हमारी तीन कन्फर्म सीट थी तो वो हमारे साथ ही आने वाले थे। राजीव जी भी हमे छोड़कर वापिस जाने वाले थे। अब कुछ ही देर में हमारी ट्रेन भी आई और सबसे विदा लेकर  हम उसमें चढ़ गए।

स्टेशन पहुँचने की ख़ुशी

कानपूर सेंट्रल

रेलवे में मिलते हुए। 

ट्रेन में चढ़कर  इस बार मैंने टॉप की बर्थ ली। पिछले बार नीचे वाली में डरावना सपना जो आया था। इस बार कोई चांस नहीं लेना चाहता था। नवल जी के लिए हमने सीट की बात करनी चाही लेकिन चूंकि भीड़ थी तो कोई बात नहीं बनी। नवल जी को योगी भाई ने अपनी सीट दी। मैंने योगी भाई को बोला कि मेरे साथ सो जाओ तो उन्होंने कहा कि हमारे साइज़ के दो व्यक्ति उधर नहीं आ पाएंगे। ये बात सही थी। फिर ग्यारह बजे तक हमने ऐसे ही वक्त काटा। मीट के ऊपर चर्चा की। खुशनुमा पलों को दोबारा याद किया। अब नींद आने लगी थी। योगी भाई ने अपना बिछौना निकाला और बिछा दिया। बाकी लोग भी पसर गए थे। इसके बाद दिन भर के घूमने का ये नतीजा रहा कि मुझे कब झपकी लगी पता ही नहीं चला।

सुबह जब नींद खुली तो दिल्ली आने को कुछ ही वक्त रह गया था। उठकर  एक आध कप चाय पी। फिर दिल्ली आने का इन्तजार किया। सभी लोग जग गए थे। कुछ ही देर में दिल्ली भी आ गया। हम लोग ट्रेन से उतरे लेकिन ट्रेन रुकते ही पूरे प्लेटफार्म में भीड़ ही भीड़ हो गयी थी। हम किसी तरह बाहर निकले तो पता लगा कि मेरे साथ योगी भाई ही थे। नवल जी और अल्मास भाई पीछे ही रह गए थे। हमने थोड़ी देर उनका इन्तजार किया। मेरे को दफ्तर भी जाना था तो थोड़े देर में जब वो लोग न निकले तो मैंने योगी भाई को कहा कि ऑफिस के लिए देरी हो रही है तो मैं निकलता हूँ। उन्होंने कहा ठीक है आप जाइए। तो योगी भाई को इन्तजार करता छोड़ मैं उधर से मेट्रो के गेट की तरफ बढ़ चला।

एक और मीट का सुखद अंत हुआ था। अब अगली मीट का इन्तजार था। खट्टी मीठी यादों की खटाई का दोस्ती की धूप के नीचे जायका लिया था। इससे ज्यादा आनंद की बात क्या हो सकती थी।

समाप्त।

इस यात्रा वृत्तांत की सभी कड़ियाँ :
कानपुर मीट #१:शुक्रवार - स्टेशन रे स्टेशन बहुते कंफ्यूज़न
कानपुर मीट #२: आ गये भैया कानपुर नगरीया
कानपुर मीट #3: होटल में पदार्पण, एसएमपियंस से भेंट और ब्रह्मावर्त घाट
कानपूर मीट #4
कानपुर मीट # 5 : शाम की महफ़िल
कानपुर मीट #6 : ब्लू वर्ल्ड वाटर पार्क और वापसी

6 टिप्पणियाँ

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  1. बहुत बढ़िया वर्णन विकास जी , आपकी एस प्रतिभा के जीतनी तारीफ के जाय कम हैं , मीट में आप सबसे कम बोले परन्तु यहाँ आपने इतना अच्छा और सटीक वर्णन किया जो कि काबिले तारीफ़ हैं और आपकी यादाशत भी बहुत गजब कि हैं मुझे नहीं लगता की कुछ भी और कोई भी घटना वर्णन से रह गयी हो आपने सारी स्मृतयो को कैमरे में ही नहीं बल्कि अपने दिमाग में भी ज्यो का त्यों रिकॉर्ड किया और बहित ही सुंदर और सहज शब्दों में यहाँ उतारा हैं -बहुत बढ़िया

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    1. शुक्रिया, शैलेश जी। आपके शब्द मुझे प्रेरित करते रहेंगे।

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  2. टीवी की आवाज से आपकी नींद टूटी जरा सोचिए उस दिन टीवी की आवाज नहीं निकलती तब तो आप देर हो जाते। केबल टीवी के जमाने में अब कौन रंगोली को पूछता है शहरों में जी, रंगोली तो समझिए कि उपेक्षित जीवन जी रहा है, ठीक वैसे ही जैसे कुछ पुत्रा वृद्धावस्था में माता-पिता को वृद्धाआश्रम पहुंचा देते हैं। आपकी लेखनी पर टिप्पणी करना तो मेरे लिए सूर्य को दीपक दिखाने जैसा होगा, पर आपने जो फोटा लगाए हैं, वो स्वर्गिक अहसास करवा रहा है। नजरें हटने का नाम ही नहीं ले रही बस देखते रहने का मन करता है, पर क्यों करें हटना तो पड़ेगा ही नहीं तो दूसरी पोस्ट कैसे पढ़ पाएंगे, और काम कैसे कर पाएंगे। बहुत दिनों से आपकी कोई पोस्ट नहीं आई, फूलों की घाटी आप गए थे उसका पोस्ट कब तक आएगा।

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    1. शुक्रिया, अभयानंद जी। समूह में घूमने का एक फायदा तो ये रहता है कि अगर मेरी नींद टीवी से न खुलती तो कोई न कोई आकर खुलवा ही देता। हाँ, रंगोली के विषय में आपने सही कहा। मैं तो किसी भी नाटक के लिए इन्तजार करना पसंद नहीं करता अब। नेटफ्लिक्स और अमेज़न प्राइम के बदौलत जो चाहो जब चाहे देख सकते हैं।
      जी बाकी के पोस्ट भी जल्द ही आएँगे। मैं अक्सर सप्ताहंत में लिखता हूँ और आजकल कई बार उस वक्त घूमने निकल जाता हूँ तो लिखने का वक्त नहीं मिल पाता। फूलों की घाटी के बाद भी एक दो जगह जा चुका। वो एक एक दिन के दौरे थे तो वो पहले आपको देखने को मिलेंगी। और फूलों की घाटी की ट्रिप के विषय में इन दिवाली की छुट्टियों में लिख लूँगा तो उसके बाद वाले हफ्ते में एक दिन छोड़कर आपको उस यात्रा के वृत्तांत पढने को मिल सकेंगे।
      ब्लॉग पर बने रहियेगा।

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