कानपुर मीट #२: आ गये भैया कानपुर नगरीया

8th जुलाई 2017,शनिवार
#हिन्दी_ब्लॉगिंग 




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मेरे चारो तरफ सब कुछ हिलने लगा था। मुझे लगा कोई गड़गड़ाहट के साथ तेजी से मेरी तरफ बढ़ रहा था। वो इतना विशालकाय था कि मेरे तरफ बढ़ते हुए उसके कदम जमीन पर कम्पन पैदा कर रहे थे। और शायद यही मेरे हिलने का कारण भी था। तेजी से बढ़ते उसके क़दमों के साथ मुझे अपनी ह्रदय गति भी तेज होती महसूस हो रही थी। मुझे पता था इतना विशालकाय जीव मुझसे टकराएगा तो मेरे बचने की सम्भावना न के बराबर थी। मैंने उसे अपनी तरफ आता महसूस किया और टकराव के लिए दिल पक्का किया। मेरी मिंची हुई आँखें शायद ही अब खुलती। आवाज बढती गयी और साथ में कम्पन भी और मैं ये टकराया और वो टकराया। लेकिन ये क्या? एकाएक आवाज धीमी होने लगी। कम्पन घटने लगा। मेरी आँखें अभी भी बंद थी लेकिन सांसे तेज थी। ये चारो तरफ अँधेरा क्यों था? ओह याद आया। मैं तो ट्रेन में था। और ये कम्पन  इसलिए था कि बगल से ट्रेन गुजरी थी। मैंने राहत की साँस लेनी चाही लेकिन फिर मन में कुछ अन्य ख्यालों की बाड़ सी आ गयी। 

जब आपकी फटी हुई होती है तो आपका अवचेतन मन भी आपकी लेने में उतारू हो जाता है। जिसे ढाढस बांधना चाहिए वही आपकी लेने लगे तो वो अनुभव सच में विलक्षण होता है। आपने भी अनुभव किया होगा।   आप एक दिन हॉरर फिल्म देखने की योजना बनाते हैं और आपकी लग जाती है। बाथरूम जाते हुए खतरनाक ख्याल आने लगते हैं।  खिड़की से बाहर कोई मानव आकृति दिखने लगती है। हो सकता है ये हमारे अंदर बना कोई प्रोटेक्टिव मैकनिसम हो जो सदियों के एवोल्यूशन से हमारे जीन्स में हमारी सुरक्षा के लिए कोड हो गया हो लेकिन उस वक्त इतना कौन सोचता है।
बस मन मस्तिष्क को गरियाया जाता है।
ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ था
मैं अपने सपने के कारण डरा हुआ था। इसके इलावा मैं जगे होने और सोने की बीच की स्थिति में था। और अब मेरे अंतर्मन ने एक स्लाइड शो शुरू कर दिया था। उसमे खबरे चलने लगी। वो खबरे जो मैंने कुछ ही महीनों पहले देखीं थी। मैं अभी भी सोने और जागने के बीच की स्थिति में था। लेकिन मैं साफ़ देख पा रहा था कि एंकर कैसे कानपुर के निकट जाती ट्रेन के पटरी से उतरने के समाचार को दिखा रहे थे। मैं डरा हुआ था और जैसे कोई ट्रेन बगल से गुजरती मन में ये ही ख्याल आता कि अब हम उतरे अब हम उतरे। ऐसे ही कई बार हुआ और  एक ट्रेन के कारण कम्पन इतनी तेज हुआ कि झटके से मेरी आँखें खुल गयी। मैंने अपने अगल बगल देखा। मैं डरा हुआ था। घर में होता तो माँ के बगल में जाकर दुबक जाता। मुझे याद आया कि सामने की साइड लोअर बर्थ पर योगी भाई बैठे थे। अगर मैं कुछ न करता तो डरा ही रहता। मैंने योगी भाई की तरफ देखा।योगी भाई कान में हेडफोन खोंसकर फोन में कोई फिल्म देख रहे थे। मैंने उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। जब उन्होंने मेरी तरफ देखा तो मैंने मैंने उनसे पुछा कि उनका फोन चार्ज है क्या ? मैंने कहा मेरा फोन डिस्चार्ज होने वाला है और इसलिए मुझे चार्जर चाहिए थाउन्होंने अपने फोन से चार्जर निकाला और मुझे थमा दिया। मुझे अभी भी अपने शरीर से हरकत करने में दिक्कत महसूस हो रही थी। शायद डर के कारण ये हुआ था इसलिए मैंने फोन लिया और योगी भाई की तस्वीर ही खींच दी। इससे थोड़ा राहत मिली  और कुछ देर पहले के डर को मैंने अपने शरीर से निकलते हुए महसूस किया।  मैंने किसी तरह उठकर उनसे चार्जर लिया। अभी सुबह के पौने तीन बज रहे थे। सोने के एक डेढ़ घंटे में ही मेरी नींद खुल गयी थी। 


योगी भाई चार्जर देते हुए
चार्जर थामा और फोन पे लगाया तो वो चला ही नहीं। मैं फिर थोडा घबराया। लेकिन फिर हाथ को एक विशेष कोण पर घुमाया कि चार्जर चल गया और फोन चार्ज होने लगा। अब लगता था कि हाथ ऐसे ही रहेगा। मुझे इससे परेशानी नहीं होती क्योंकि मैं अभी जल्दी सोना नहीं चाहता था। और इस वजह से मुझे नींद नहीं आती।  अब मेरा फोन चार्ज होने लगा। 

फिर आधा पौने घंटे बीते होंगे कि एक जंक्शन आया टुंडला जंक्शन और उधर ट्रेन थोड़ी देर के लिए रुकी। मैं उठा और थोड़ी देर के लिए गेट के पास चला गया। डर अभी भी लग रहा था लेकिन अब वो किसी और वक्त की बात लग रही थी। मैंने टुंडला में उतर कर उसकी तस्वीर उतारी। वैसे तो मुझे पता था कि इधर अभी तो कुछ नहीं मिलेगा लेकिन फिर भी मैंने यहाँ वहां नज़र दौड़ाई कि कोई ए एच व्हीलर की दुकान हो तो कोई उपन्यास ही खरीद लूँगा लेकिन सुबह के साढ़े तीन बजे ऐसा होना मुमकिन नहीं था और ऐसा हुआ भी नहीं। 


टुण्डला जंक्शन में अपनी ट्रेन का इतंजार करते यात्री। ये भाई साहब जाने क्या सोच रहे थे। 

मैं अपने डिब्बे में आ गया क्योंकि ट्रेन चलने को तैयार थी। अब घूमकर थोड़ा मन भी हल्का हो गया था। मैंने दुबारा फोन को चार्जर पर कनेक्ट किया। अपने हाथ को फिर उसी विशेष कोण में मोड़ा और फोन को चार्ज करने लगा। 

फोन चार्ज करते करते कब दुबारा नींद आ गयी इसका पता ही नहीं लगा। 

सुबह  साढ़े पाँच-छः  बजे नींद खुली मैं थोड़ी देर ऐसे ही लेटा रहा। फिर उठ गया। मैं थोड़ा जाकर नित्यक्रिया से निवृत्त हुआ और फिर आकर बैठ गया। मैंने बैठे बैठे ही कुछ तस्वीरें खींची। 






बाहर के नज़ारे देख देखकर मैं बोर सा हो गया था। अब उजाला भी हो गया तो मैंने कुछ पढने की सोची। मैंने सफ़र के लिए अपने साथ Manhattan Noir नामक कहानी संकलन लिया हुआ था। मैंने इसकी पहली कहानी Charles Ardai की The Good Samaritan पढना शुरू किया। अगर आप लोगों ने नहीं पढ़ी है तो जरूर पढ़े। मजेदार कहानी थी। कहानी कुछ इस तरह थी। कुछ दिनों से बेघर लोग रास्तों में मरे हुए पाए जा रहे हैं। उनकी मौत जहर के कारण होती है। ये जहर उन्हें कैसे दिया जाता है और कौन दे रहा है? ये एक रहस्य है। इस केस की तहकीकात जो डिटेक्टिव कर रहा है क्या वो इसका पता लगा पायेगा? अगर हाँ तो कैसे? १८ पृष्ठों की ये कहानी मजेदार थी और इसे मैंने एक ही बैठक में पढ़ लिया। तब तक योगी भाई भी जाग चुके थे। अल्मास भाई भी जग चुके थे। मैं ब्रश करने जाने लगा तो अल्मास भाई बोले कि अरे होटल में जाकर कर लेना ब्रश। लेकिन एक कहानी पढने के बाद मैं अभी दूसरी कहानी शुरू नहीं करना चाहता था। इसलिए थोड़ा ब्रश करके ही टाइम पास हो जाता। फिर भूख लग रही थी तो ब्रश के बाद चाय और कुछ खाने का भी सोच रहा था। इसलिए भी ब्रश करना जरूरी था। 

जो ट्रेन रात को हवा से बातें करते हुए चल रही थी वो ट्रेन सुबह घोंघे के समान आगे बढ़ रही थी। हमे यकीन था कि हमे लेट होगी और वही हुआ भी

खैर, जब सब उठ गये तो फिर चाय और बिस्कुट खाने का प्लान बनाया। मैं कुछ तेल वाला नहीं खाना चाहता था इसलिए बिस्कुट से काम चलाना चाह रहा था।  रात को खाया नहीं था तो अब भूख के मारे हालत डाउन हो रही थी। जो अल्मास भाई मुझे होटल में ब्रश करने की सलाह देते पाए गये थे वही चाय बिस्कुट देखकर अपना मन नहीं रोक पाए। उन्हें भी भूख लगने लगी तो उन्होंने भी ब्रश वगेरह निकाल दिया। ये देखकर मुझे हंसी आ गयी। बच्चू मुझे कह रहे थे कि होटल में जाकर करना ब्रश और अब खुद करने जा रहे थे। हा हा। वो ब्रश करके आये और उन्होंने नाश्ते के लिए कुछ सामान ले लिए। साथ में बिस्कुट तो थे ही तो हमने चाय ली और उनपर टूट पड़े।अब कानपुर आने तक चाय और बिस्कुट का ही दौर चलाना था। ट्रेन अपनी गति से आगे बढ़ रही थी

ऐसे ही एक जगह ट्रेन रुक गयी तो अल्मास भाई बोले - 'विकास भाई तुम्हारे यात्रा वृतांत के लिए एक मस्त चीज दिखाता हूँ'
मैं - 'ऐसा क्या करतब कर रहे हो?'
अल्मास भाई - 'अरे देखो तो सही! आओ मेरे साथ' और ये कहकर वो गेट की तरफ बढ़ गये। ट्रेन रुकी हुई थी। सामने हरे भरे खेत दिख रहे थे। वो गेट पर रुके और फिर नीचे उतर गये। नीचे उतारकर उन्होंने एक सिगरेट जला लिया और मेरी तरफ देखकर मुस्कुराने लगे
'बोलो कैसी रही?'
मैने कहा - 'क्या?'
अल्मास भाई- 'देखो हम चलती ट्रेन से उतरकर सिगरेट पी रहे हैं और चलती ट्रेन में वापस चलेंगे'
मैंने अपने कंधे उचका दिया। ट्रेन रुकी हुई थी। अल्मास भाई को कैसे चलते हुए महसूस हुई ये नहीं कह सकता। लेकिन ट्रेन कभी भी चल सकती थी इसलिए मैं उन्हें ऊपर आने के लिए कह रहा था। उन्होंने उधर दो तीन पफ मारे और फिर जब ट्रेन हिलने डुलने लगी तो चढ़ गये। मैं उन्हें हैरानी से देखता रहा। 'चलो अब चाय पीते हैं', मैंने कहा और योगी भाई की तरफ बढ़ गये। ट्रेन आगे बढ़ गयी। 


नाश्ते से पहले ब्रश पे पेस्ट लगाते अल्मास भाई। जब मैं ब्रश कर रहा था तो अल्मास भाई मुझे कह रहे थे कि होटल में कर लिया होता लेकिन जब पेट के चूहे बेकाबू हो गये तो खुद भी पेस्ट करने लगे। 😝😝😝😝

अब ट्रेन कानपुर पहुँचने वाली थी। आधा एक घंटा और रहा होगा कि एक जगह फिर रुक गयी। रेल की पटरी के सामने ही एक गाँव था। उसके सामने एक गन्दा सा नाला था जिसकी गंदगी देखकर ऐसा लग रहा था जैसे वो मच्छरों का स्वर्ग हो।मैंने इस बाबत टिपण्णी भी की। मैं उधर देख ही रहा था कि एक बच्चा एक नेत्रहीन बुर्जुग को लेकर पटरी पर चल रहा था और खिड़की वालों से पैसे की गुहार लगा रहा था। उसके कुछ ही देर बाद गाँव से दो तीन बच्चे और निकले और उनके साथ कुछ और बुजुर्ग दिव्यांग थे और वो रुकी हुई ट्रेन के सामने चलते चलते भीख मांगने लगे।कुछ तो ये तक कह रहे थे कि हम मांग रहे हैं तो नहीं दे रहे हो और अगर हिंजड़े  मांगते तो फट से 10-20 रूपये दे देते। मुझे ये सुनकर हैरानी हुई। ऐसा लग रहा था जैसे उन्हें भीख न देकर हम उनका हक़ मांग रहे हैं। ऐसा क्यों था? ये मेरे समझ के परे था। जब मुंबई में काम करता था तो उधर मेरा दफ्तर गेटवे ऑफ़ इंडिया के बगल में वाइट पर्ल होटल के नज़दीक था।उधर कई अरबी लोग आते थे और इसीलिए कई भिखारी भी घूमते रहते थे। एक बार मैं ऐसे ही खड़ा था और एक बच्चा भिखारी एक महीला से भीख मांग रहा था। वो परेशान दिख रही थी और उसे मना कर रही थी। वो अरबी महिला थी। ऐसे में उसकी नज़र मेरे से मिली और शायद उसमे उसने सहानुभूति देखी तो मुस्कुरा कर बोला- 'ये लोग परेशान कर देते हैं। ' मैंने भी कंधे उचका कर कहा कि क्या किया जा सकता है। यानी कहीं भी हो भिखारी चारों तरफ है और इधर तो गाँव में ही ये मौजूद थे और ये शायद इनका पेशा भी था। थोड़ी ही देर में ट्रेन चलने लगी तो ये विचित्र गाँव पीछे छूट गया

हम फिर कानपुर की तरफ बढ़ने लगे।पुनीत भाई से फोन में बात हो गयी थी और वो हमे लेने आने वाले थे। उन्होंने हमे बताया कि नवल जी भी सुबह ही आने वाले हैं और उनकी ट्रेन के आने का वक्त हमारे ट्रेन के वक्त नजदीक है। हम खुश हुए। नवल जी से पहली बार माउंट आबू में मिला था। बड़े मिलनसार और खुश मिजाज व्यक्ति हैं। हाँ, उन्होंने मुझे कई बार बोला था कि तुम कम बोलते हो और मैंने भी हामी में मुंडी हिला दी थी। अब क्या कर सकते हैं? कोई कम बोलता है कोई ज्यादा बोलता है। सबकी अपनी प्रकृति है। 

हमने फिर चाय पी और बिस्कुट लिए। ट्रेन को ज्यादा देर हो गयी थी। हमे शायद साढ़े छः  बजे कानपुर पहुँच जाना चाहिए था लेकिन पौने आठ हो गये थे। हम कानपुर में आ गये थे।आजकल कानपुर सुनता हूँ तो भाभी जी घर पे हैं के किरदार मन में घूमने लगते हैं। उस वक्त भी लग रहा था कि रेलवे स्टेशन से निकलूंगा तो कोई हप्पू सिंह जैसे व्यक्ति हमे दिख जाएगा। लेकिन ये सब ख्याली पुलाव हैं। मुझे पता था। हमारी ट्रेन रुकी और हम प्लेटफार्म नंबर छः पर उतरे। 

हम पुनीत भाई को फोन मिलाने वाले थे कि योगी भाई ने ओवरब्रिज से आती सीढ़ियों की तरफ इशारा करके बोला कि वो रहे पुनीत भाई।हमे लगा मज़ाक कर रहे हैं लेकिन सच में साक्षात पुनीत भाई थे। मुझे लगा रात के लिए झिडकी न पड़े कहीं। रात के भागा दौड़ी में हमने उन्हें काफी परेशान किया था। लेकिन उन्होंने प्यार से सबको गले लगाया। और फिर हम बाहर को निकलने के लिए ओवरब्रिज की ओर बढ़ने लगे। हम बाहर निकलने के लिए ओवर ब्रिज से उतरे और प्लेटफार्म नंबर एक पर पहुंचे। उधर एक किताबों की रेड़ी सी दिखी तो थोड़ी देर उधर खड़े हो गये उधर ही नवल जी और आजादभारती जी मिले। आज़ाद भारती जी पाठक साहब के सबसे बुजुर्ग फेन और उनके मित्र भी हैं। मैं उनसे पहले भी दिल्ली में एक पुस्तक मेले में मिल गया था। दुबारा उनसे मिले तो अच्छा लगा।  किताबों की रेहड़ी में मुझे कुछ भी रुचिकर नहीं दिखा तो मैंने नहीं लिया। 

अब चाय पीने की तलब लग रही थी। ट्रेन की चाय तो गर्म पानी से थोड़ी ही बेहतर होती है इसलिए एक अच्छी चाय पीना चाहता था। ये बात पुनीत भाई से कही तो उन्होंने कहा कि स्टेशन से बाहर निकलकर पीते हैं। हम बाहर आये। स्टेशन की फोटो ली और अल्मास भाई ने सबके साथ एक सेल्फी ली। 


कानपूर सेंट्रल के बाहर सेल्फी: अल्मास भाई, नवल जी, मैं , योगी भाई, आज़ाद भारती जी और पुनीत भाई 

फिर हम कार में बैठ गये। कार मैं बैठकर ये निर्णय लिया कि अब सीधे होटल की तरफ ही बढ़ा जायेगा और उधर ही चाय का इतंजाम होगा। हमारे दूसरे आयोजक अंकुर भाई उधर ही हमारा इन्तजार कर रहे थे। उनसे भी पहली बार मिलना होगा। फिर हमारी कार होटल की तरफ चल निकली। उधर कुछ और एसएमपीयंस आने वाले थे। मैं उनसे मिलने के लिए उत्सुक था। ये अनुभव कैसा होगा? कौन कौन आएगा? आगे क्या होगा? हम किधर किधर जायेंगे? यही सब प्रश्न मेरे मन में उठ रहे थे। अब तो बस उधर पहुँचने का इंतजार था। 

क्रमशः
कानपुर मीट की कड़ियाँ :
कानपुर मीट #१:शुक्रवार - स्टेशन रे स्टेशन बहुते कंफ्यूज़न
कानपुर मीट #२: आ गये भैया कानपुर नगरीया
कानपुर मीट #3: होटल में पदार्पण, एसएमपियंस से भेंट और ब्रह्मावर्त घाट
कानपूर मीट #4
कानपुर मीट # 5 : शाम की महफ़िल

9 टिप्पणियाँ

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  1. एक ही शब्द वो भी आँग्ल भाषा का
    "मेस्मोराइजिंग"

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  2. शानदार लिखा विकाश जी । अगली कड़ी का इंतजार ।

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  3. Aapki lekhan shaili ka main kayal ho gaya Vikas bhai.Kaise yaad rakh paate ho itni chhoti chhoti details.Yun hi likhte rahiye aur hame upkrat karte rahiye.

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    1. बस आप लोगों की मेहरबानी है, पुनीत भाई। आप लोग मदद कर देते हैं तो कुछ आटा दलिया हो जाता है।

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  4. बहुत शानदार टेलीकास्ट चल रहा है। बढिया लगे रहो विकास भाई

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  5. बहुत शानदार टेलीकास्ट चल रहा है। बढिया लगे रहो विकास भाई

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