कंडोलिया और रांसी स्टेडियम

रांसी का पैनोरमा शॉट 


यात्रा 3 जून 2017 को की 


इस  बार पौड़ी जाना हुआ तो लगा था ये भी आम तरीके का जाना ही होकर रह जायेगा। अक्सर जब भी मैं पौड़ी जाता हूँ तो घर से बाहर निकलना पसंद नहीं करता हूँ। इसका मुख्य कारण ये है कि मैं अक्सर एक दो दिन के लिए ही घर जा पाता हूँ और मेरी कोशिश रहती है है कि इन एक दो दिनों में अपने अभिभावकों के साथ ज्यादा से ज्यादा वक्त बिता सकूं। बाकी पूरे वक्त तो हम इधर उधर घूमते ही रहते हैं। यही कारण है कि जबसे पौड़ी से बाहर निकला हूँ यानी कि दसवी के बाद से तो मेरा पौड़ी के दर्शनीय स्थलों में जाना बंद सा हो गया है। इस बार भी मन में कहीं बाहर जाने की योजना नही थी।

पौड़ी जाने से पहले ही पता लग गया था कि सोनू मामा भी नानी के साथ आ रहे हैं। लेकिन मैं ऑफिस में इतना बिजी था कि कांटेक्ट न कर सका। फिर सोचा पौड़ी में ही मिल लिया जाएगा। हम एक ही दिन पौड़ी पहुँचे थे यानी जून तीसरी को। जहाँ मैंने डायरेक्ट वाली दिल्ली टू पौड़ी गाड़ी पकड़ी थी वहीं उन्होंने पहले कोटद्वार जाना था और फिर उधर से पौड़ी की गाड़ी पकडनी थी। इसका नतीजा ये हुआ कि मैं सुबह सात बजे पहुँच गया और मामा लोग थोड़ा देर में पहुँचे।

फिर खाना पीना हुआ और आराम हुआ। आराम करके उठा तो दिन का खाना खाया गया। उसके बाद शाम का वक्त रहा होगा और मामा को घूमने जाना था। वो काफी वर्षों बाद आये थे। तो मैं भी उनके साथ हो लिया। सोचा इस बहाने मैं भी घूम लूँगा। इस वक्त कंडोलिया में भंडारा चल रहा था। ये दो दिनों का प्रोग्राम था - शनिवार और इतवार। इसलिए  मैंने सोचा उधर चल लेंगे और फिर रांसी भी देखा जायेगा। वैसे भी मुझे काफी वक्त हो गया था उसे देखे हुए। पिछली बार जब गया था, लगभग एक डेढ़ साल पहले, तो उसका पुनर्निर्माण हो रहा था। सरकारी काम वैसे भी घोंघे की गति से ही चलता है।

रांसी के विषय में सोचता हूँ तो मन में दुःख सा होता है। हम जब छोटे थे तो पढ़ते थे कि वो एशिया के सबसे ऊंचे स्टेडियमस में से एक था। शायद दूसरे  नंबर पर। तब गर्व से सीना फूल कर चौड़ा हो जाता था लेकिन इसे सरकार का उदासीन रवैया ही कहा जा सकता है कि उसकी हालत इतनी खस्ता थी कि अंतर्राष्ट्रीय खेल तो दूर कोई राष्ट्रीय खेल भी शायद ही उधर हुआ हो। रांसी के रूप घर की मुर्गी डाल बराबर का जीवंत नमूना हमारे समक्ष था। बच्चे ही सप्ताहंत में उस पर खेलते थे। या नौजवान लोग उस पर गाड़ी चलाना सीखते थे। ये एक अच्छा रिसोर्स था जो सरकारी उदासीनता के कारण पौड़ी के उतना काम नहीं आ रहा था जितना की आ सकता था। अगर इधर अन्तराष्ट्रीय खेल होने लगे तो पौड़ी को आर्थिक रूप से कितना फायदा होगा इसके विषय में शायद सभी को अंदाजा होगा।



इसलिए जब पुनर्निर्माण का कार्य होते देखा था तो मन में एक उम्मीद जगी थी। कि कभी रांसी में भी रौनक होगी। कभी इधर भी कोई अंतर्राष्ट्रीय मैच, कोई आई पी एल या ऐसा ही खेल होगा।

खैर, कहाँ मैं अपनी यादों में खो गया हूँ। अभी आते हैं हमारे वृत्तांत पे। मामा और मैंने निर्णय लिया कि हम घूमने जायेंगे। शाम की चाय हुई और हम निकल पड़े। मौसम में अभी भी गर्माहट थी। वैसे भी पहाड़ों में दिन में धूप तो रहती ही है, भले ही सुबह शाम हड्डियाँ खड़खड़ाने वाली ठंड हो। कुछ दिन पहले पौड़ी में ओले होकर गिरे थे जिन्होंने काफी नुकसान किया था लेकिन अभी इस चीज के कोई आसार नहीं दिखाई दे रहे थे।

हमने चलना शुरू किया। हम धारे से होते हुए ऊपर सडक पर पहुँचे। रास्ते में चाची मिली जो कि कंडोलिया जा रही थीं। उधर आज कीर्तन होने थे लेकिन मुख्य भंडारा कल यानी रविवार को होना था तो आज भीड़ कम होती। उनसे सेवा सौन्ली हुई और फिर हम आगे बढ़ गये। वो धीमे गति से चल रहे थे। हमने धारा पार किया और बुचड़ गली में पहुँचे। छोटे में वो गली सामन्य लगती थी लेकिन इस बार काफी संकरी लग रही थी। दुकानों से बाहर डेकोरेटिव झालर थे जो उस तंग गली को और तंग लेकिन खूबसूरत बना रहे  था।  ज्यादातर बुचड़ की दुकाने भी बदल कर कुछ और बेचने लगी थीं। हम उधर से आगे बढे और शराब के ठेके की बगल वाली सीढ़ी से चढ़कर अप्पर बाज़ार जाने वाली रोड पर पहुँचे।

सोनू मामा ने मुझे कंडोलिया जाने वाले सबसे छोटे रास्ते के विषय में पूछा तो  मैंने उन्होंने बताया कि जो सीढ़ियाँ वहाँ सामने वर्मा बुक डिपो के बगल से जा रही हैं वो ऊपर माल  रोड तक जाएँगी। फिर रोड क्रॉस करके एक सीढ़ी ऊपर हॉस्पिटल के तरफ जाएगी। उससे हम हॉस्पिटल पहुँच जायेंगे जिससे आसानी से हम कंडोलिया जाने वाली रोड पर पहुँच जायेंगे। फिर मैंने उन्हें दूसरे रास्ते के विषय में बताया जिसमे हमे अप्पर बाज़ार से होकर एजेंसी पहुँचना था जहाँ से हम सीधा उस रोड पे पहुँचते जो कंडोलिया ले जाती है। वैसे पौड़ी से कंडोलिया पहुँचने के काफी रास्ते हैं। मामा ने छोटे रास्ते से जाने की हामी भरी लेकिन जब हम चल रहे थे तो उन्होंने पूछा कि इधर कोई घडी ठीक करने वाला होगा। उन्हें अपनी घडी में पिन डलवानी थी। अब मुझे हल्का सा याद आया कि अप्पर बाज़ार वाली रोड पे एक घड़ी वाला तो रहता था। मैं कई वर्षों बाद इस सडक पर जा रहा था तो याद धुंधली ही थी। मैंने उम्मीद की कि उसने अपना व्यापार नहीं बदला होगा और मामा को इस बाबत बताया कि अप्पर बाज़ार वाली रोड से चलते हैं क्योंकि उधर घडी वाला जरूर होगा।

अब हम अप्पर बाज़ार की तरफ चल दिए। हम चलते हुए घड़ी की दुकान देखते जा रहे थे। पहले तो मुझे लगा अब कोई दुकान इधर नहीं होगी लेकिन फिर वो दुकान दिख गयी। हम उसमे गये और मामा ने उधर बैठी युवती को घडी दिखाई और पिन की बाबत पूछा। युवती ने ड्रावर से एक डिबिया सी निकाली और चेक करने लगी। हम ये सब कर रहे थे कि दुकान के बाहर एक गाड़ी लगी। उस गाड़ी में कान फोडू भजन लग रहे थे। वो एक मिनी ट्रक नुमा गाड़ी थी जिसमे राशन के बोरे लगे हुए थे। मुझे ऐसा लगता है वो भी कंडोलिया के भंडारे के लिए  राशन पहुँचाने जा रहा था। लेकिन मुझे आजतक आस्तिकों की अपने धर्म के  इस तरह से प्रदर्शन करने की लालसा का कारण समझ नहीं आया। आस्तिकों के अनुसार भगवान सर्व व्यापी और सर्व ज्ञानी हैं। यानी मनुष्यों के मन में होने वाले सारे ख्याल से वो वाकिफ हैं। इस लॉजिक से अगर आपके मन में आस्था है तो भगवान सर्वज्ञाता होने के कारण उसे भांप लेंगे। फिर आपको धर्म के भौंडे प्रदर्शन करने की कोई जरूरत नहीं है। खैर, वो गाड़ी थोड़ी देर तक कानफोडू भजन बजाती रही। इतने में युवती ने अपने हाथ खड़े कर दिया और बोला कि उसके पास पिन नहीं थी। हमने घडी वापस ली और ऊपर एजेंसी की तरफ निकल गये। कम से कम कानफोडू आवाज़ से हमारा पीछा छूटा।

हम एजेंसी पहुँचे तो उधर मामी भी अपने कजिन के यहाँ आयीं हुई थी। मामा ने उनसे पुछा कि वो कंडोलिया आना चाहती हैं तो उन्होंने मना कर दिया। फिर हम एजेंसी से कंडोलिया की तरफ जाने वाली रोड पर चढ़ने लगे। ये चढ़ाई वाली रोड है और गर्मी थोड़ा बहुत थी तो पसीने आने ही थे। वो आ रहे थे। हम लाइब्रेरी तक पहुँचे तो मैंने मामा को वो रास्ता दिखाया जो नीचे से सीधे लाइब्रेरी तक आता था। हम आराम वाले रास्ते आये थे लेकिन लाइब्रेरी तक आने वाला रास्ता सबसे ज्यादा चढ़ाई वाला था। मैंने उन्हें बताया कैसे बचपन में भंडारे के दिन हम अक्सर इसी रास्ते से आते थे। चढ़ते चढ़ते हांफने लगते थे लेकिन जल्दी पहुँच जाते थे।  उधर थोड़ी बहुत फोटो खींची। अब कंडोलिया जाना था। उसके लिए सीधा सीढ़ियों की तरफ से भी जाया जा सकता था,जो कि सामने रोड पे पार ही बनी थी, लेकिन मैं मामा को पूरा घुमाकर ले जाना चाहता था। इस तरह से हम पार्क होते हुए आते। हम रोड के रास्ते ही कंडोलिया की तरफ बढ़ते रहे।
लाइब्रेरी के निकट से सामने का दृश्य 

कंडोलिया ग्राउंड के नज़दीक पहुँचकर रोड राईट को  मुडती है जो कंडोलिया मंदिर को जाती है। हम उसमे चलने लगे। वही रोड थोड़े आगे जाकर दो में  कटती है - ऊपर की तरफ जाने वाली एक रांसी को चली जाती है और दूसरी नीचे की तरफ जाने वाली  कंडोलिया के गेट तक। जब हम छोटे थे तो पढते थे कि इस रोड को ठंडी सडक भी कहते हैं क्योंकि इधर जंगल ऐसा है कि सर्दियों में काफी ठंड हो जाती थी।

हम कंडोलिया वाली रोड पर थे। जहाँ पर रोड विभाजित होती है उधर गाँधी जी का स्मारक सा बना था। ये मुझे नया एडिशन लगा। मैंने इसके कुछ तस्वीर उतारे। उसके सामने ही एक कमल रुपी फुवारा था जिसकी हालत दयनीय हो रखी थी। वो सूखा तो था ही लेकीन इतना मैला कुचेला हो रखा था जैसे कोई उसे उधर रख कर भूल गया हो। सोचा इसकी तस्वीर लूँगा फिर मन नहीं किया। अब सोच रहा हूँ लेकिन चाहिए थी। फिर हम सीधे मंदिर की ओर निकले।

मंदिर के समक्ष जो पार्क है उसमे मेला सा लगा हुआ था। हमने थोड़ी देर मेले को देखा। हमारे साथ कोई बच्चा होता तो उधर जाने की जिद करता। ऐसा कुछ था नहीं  तो हम कंडोलिया के गेट से अन्दर दाखिल हुए। गेट के सामने मुझे ये देख कर हैरानी हुई की गेट से मंदिर तक के रास्ते में शेड बनाया गया है। बारिश में बिना भीगे ही मंदिर तक पहुंचा जा सकता है। मंदिर के निकट ही एक काउंटर था जहाँ जूते रखने की व्यवस्था थी। ये भी मेरे लिया नया था। हमने जूते उधर दिए और मैंने मामा को बताया कि जब हम छोटे थे और भंडारे में आते थे तो जूते रखने के लिए झाड़ियों में जगह ढूंढते थे। भंडारे में जूते काफी चोरी हो जाते थे इसलिए कांडोलिया पहुँच कर सबसे पहला काम हम सुरक्षित जगह खोजने का करते थे। फिर जूते छुपा कर ही ऊपर मंदिर में दाखिल होते थे।  खैर ये बताते बताते हम ऊपर पहुँच गये। ऊपर लाइन लगी थी। मंदिर के आगे के आंगन  में कीर्तन भी हो रहा था। हमने हाथ वगेरह धोये और लाइन में लग गये। लाइन आगे बढती रही। भीड़ काफी थी। लेकिन ये अगले दिन के मुकाबले कुछ भी न थी। इसलिए मुझे राहत थी।

कन्डोलिया तक जाते हुए ये स्मारक पड़ता है 
















मैंने बातों में इतना मशरूफ था कि गेट की फोटो भी नहीं ले पाया। गूगल से ये मिली है तो उससे साभार। फोटो का स्रोत। अच्छा ब्लॉग है एक बार जाइयेगा इधर भी। 

मंदिर में मामा 
मैं लाइन में लगा अपने ही ख्यालों में खोया हुआ था कि किसी ने मुझे पीछे से जकड लिया और मुझे डोगा की ध्वनि सुनाई दी। मैंने सोचा मुझे डोगा कहने वाला कौन है? बचपन में ही नहीं अभी भी डोगा मेरे पसंदीदा कॉमिक्स किरदारों में से एक है।  मैंने जकड़ने वाले का हाथ थामा और उसकी तरफ मुड़ा तो पता चला कि वो अनुज भाई थे। अनुज भाई के साथ दसवीं तक मैं पढ़ा था। फिर दिल्ली आ गया था। वो अपनी बहन के साथ उधर आये थे। उन्होंने कहा जब मंदिर के काम से निपटू तो उनसे मिलूँ। मैंने हामी भरी। फिर लाइन से होते हुए मंदिर पहुँचे। उधर दक्षिणा चढ़ाई। माता श्री का आदेश था तो ये करना ही था। उधर से निपटा तो अनुज से मिला। थोड़ी बहुत बात हुई। मैंने पूछा कौन कौन पौड़ी में था तो पता चला कि खली सौरभ कुछ दिन पहले तक था लेकिन वो भी चला गया था। फिर मैंने उनसे विदा ली क्योकि मामा के साथ रांसी का भी प्लान था। अनुज ने रविवार के विषय में पूछा तो उस दिन मेरा वापसी की योजना थी तो मैंने उन्हें बताया कि ऐसा मुमकिन न हो पायेगा। थोड़ा दुःख तो हुआ लेकिन क्या कर सकते हैं।

फिर हम मंदिर से बाहर की तरफ निकलने के लिए बढ़े। निकलने का रास्ता दूसरे तरफ से था। उससे पहले मामा की थोड़ी बहुत फोटो मैंने खींची। फिर मंदिर से निकले। जूते लिए और उन्हें पहना। अब  हम रांसी की तरफ बढ़ चले। मंदिर के सामने ही कंडोलिया पार्क है। हम उसमे दाखिल हुए। उधर से ऊपर सडक के लिए रास्ता था तो उधर से रांसी वाली सडक पहुँच गये। अब हम रांसी की तरफ बढ़ने लगे। इधर मौसम ठंडा था क्योंकि ये सड़क पूरी पेड़ों से घिरी हुयी है। सड़क के ऊपर की तरफ घने जंगल हैं। नीचे की तरफ पहले पार्क है और फिर थोड़ी दूर चलने पर जंगल। हम आराम से चल रहे थे तो चलते हुए मजा आ रहा था।

अगर आपको रांसी के विषय में नहीं पता तो आपको एक आंकडा देता हूँ। बचपन में हम पढ़ते थे कि रांसी एशिया का दूसरे नंबर पर सबसे ऊँचा स्टेडियम है। खैर, ये कितना सच है ये नहीं पता। लेकिन विश्व का सबसे ऊँचा क्रिकेट स्टेडियम हिमाचल का छैल है (स्रोत)। ये समुद्र तल से करीब 7000 (2144mt) फीट ऊंचाई पर स्थित है। रांसी की बात करें तो रांसी भी 7000 फीट के करीब ऊँचाई पर ही स्थित है। इसकी समुद्रतल से ऊँचाई 2123mt के करीब है। (स्रोत)    

यानी हम विश्व के सबसे ऊँचाई में स्थित स्टेडियमस में से एक में जा रहे थे।

हमे चलते हुए थोड़ा ही वक्त हुआ होगा बामुश्किल एक मिनट की मुझे सडक के किनारे एक युवक युवती बैठे दिखे। पहाड़ों में अक्सर इस लाइन में कपल्स बैठे रहते हैं। हम उनके निकट पहुँच रहे थे कि युवती ने जगंल की तरफ देखते हुए कहा
'दी और ऊपर जाओ।'
उधर मौजूद लड़की ने कहा - 'अब और कितना ऊपर जाऊँ।'
इस एक्सचेंज से मेरी नज़र ऊपर जंगल की तरफ उठी तो मुझे लड़की के हाथ में सिगरेट सा कुछ दिखा। अब वो नार्मल सिगरेट था या कोई उसमे कुछ विशेष सामान था ये मैं नहीं कह सकता लेकिन सिगरेट पीने के लिए जंगल तक जाना मुझे बड़ा अजीब लगा। ये बात भी मुझे लगी कि दूसरी युवती ने हमको आते हुए देखा तो उसके मन में थोड़ा झिझक जागी। पौड़ी में मुझे पता है जंगल दो कामों के ज्यादा काम आता है। जवान लोगों के द्वारा प्यार करने या शराब और बाकी नशा करने के। हाँ, ये मुझे अटपटा इसलिए लगा क्योंकि भंडारे का दिन था तो भीड़ होना लाजमी था। ऐसे हालात में अगर उन्हें कुछ करना ही था तो कोई एकांत जगह देख सकते थे। थोड़ा और दूर जाकर कई ऐसे बिंदु मिलते हैं जहाँ बिना रोक टोक ऐसे काम कर सकते हैं। मैं होता तो ऐसा ही करता।

छोटे शहर की ये एक खासियत होती है। यहाँ ढके छुपे ही सब कुछ होता है क्योंकि क्या पता कौन आपको नशा करता देख ले और फिर अगले दिन पता लगे वो अंकल या आंटी मम्मी-पापा के पहचान के हों। इसलिए जो दूसरी लड़की ने सतर्कता दिखाई थी उसमे कुछ असामान्य नहीं था। लेकिन फिर भी जानकर ख़ुशी हुई कि शहरों की तरह गिविंग नो फक्स  एटीट्यूड इधर नहीं आया है।

खैर, हम बिना उनकी ओर ध्यान दिए आगे निकल गये।बेचारे सिगरेट पीने के लिए भी इतनी मेहनत कर रहे थे। भले ही मैं सिगरेट नहीं पीता हूँ लेकिन चूँकि जानने वाले पीते हैं तो उसकी तलब क्या होती है इससे वाकिफ हूँ। इसलिए उन्हें उनके जतन के फलप्राप्ति के लिए छोड़ देते हैं और अपन लोग चलते हैं रांसी की ओर।


  जिस सड़क पे हम थे वो सीधे रांसी की तरफ जाती थी। हमने उसमे चलते हुए पाँच दस मिनट में ही उधर पहुँच जाना था इसलिए मैं रांसी तक पहुँचने से पहले थोड़ा बहुत तसवीरें ले रहा था। वैसे भी वापस आते हुए क्या पता अँधेरा हो जाता और फिर तस्वीर न निकलती। खैर, ऐसे ही टहलते हुए हम रांसी पे पहुँच गये।
रस्ते में पोज़ मरते हुए 




रांसी की पहली झलक 

जब मैं उधर पहुँचा तो मुझे एक सुखद आश्चर्य दिखा।  रांसी स्टेडियम जिसकी पहचनान कभी टूटी फूटी दीवारें हुआ करती थीं अब जगमग जगमग कर रहा था। एक बड़ा सा गेट बना था जो उसकी शान में चार चाँद लगा रहा था। वो देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा।

उधर काफी ठंडी हवा चल रही थी और मौसम बड़ा सुहावना हो रखा था। उसके बाहर काफी लोग खड़े थे और बाहर ही फोटो खिंचवा रहे थे। मुझे ये अजीब लगा। भाई, सामने स्टेडियम है और आप इधर ही काम कर रहे हो। हुँह बेवकूफ लोग। मैंने सोचा और फिर आराम से गेट तक पहुँचा तो मेरी सारी दिलेरी काफूर हो गयी। गेट बंद था। इसलिए लोग बाग़ बाहर ही खड़े थे। तभी दो युवक जो बाइक से उधर आये थे मुझसे गेट के विषय में पूछने लगे। मैंने स्थिति से उन्हें अवगत कराया तो उन्होंने कहा ये नया है क्योंकि अक्सर गेट खुला ही रहता है। फिर वो टहलते हुए एक कोने में गये और उधर से दीवार फांद कर रांसी में चले गये। ये सही था। मैंने मामा को देखा तो उन्होंने भी कहा कि अन्दर जाना चाहिए। मेरी कमर में चोट है तो डॉक्टर ने ज्यादा कूद फांद करने को मना किया है। लेकिन अब इतनी दूर आ गये थे तो इतना तो बनता था। इसलिए थोड़ी ही देर में हम रांसी में थे।

रांसी में भी हवा काफी तेज थी। हमने नोटिस किया कि उधर एक रनिंग ट्रैक जैसा बना हुआ था। हम एक कोने से दूसरे कोने तक गये और कम से कम दस पन्द्रह मिनट उधर रहे। फिर बाहर आये और वापस जाने के लिए चल दिए। जब हम एक कोने में थे तो मामा ने उधर से बाहर देखा और बोला कि अरे एक रास्ता इधर से भी है। मैंने कहा रांसी के लिए दो तीन रस्ते हैं। कुछ जंगल से भी आते हैं।


जब हम छोटे थे तो एक कहानी रांसी के पास की जगह के बारे में प्रचलित थी। हमे बताया गया था (किसने? कब? इसका कोई आईडिया नहीं।) कि रांसी के आसपास एक गुप्त गुफा है जो सीधे श्रीनगर खुलती है। हमने कई बार छोटे में उसे खोजने की कोशिश की थी लेकिन गुफा क्या कोई छेद भी नहीं मिला था। लेकिन उस गुफा की कल्पना ने हमे काफी सालों तक रोमांचित किया था। हम चाहते थे वो मिले और हम उस गुफा से होते हुए श्रीनगर पहुँचे।

रांसी से आगे एक सड़क जा रही थी जिसके विषय में मामा ने मुझसे पूछा लेकिन चूँकि मुझे पता नहीं था तो मैंने इस विषय में अपनी अनभिज्ञता जाहिर करी। बाद में मुझे पता चल गया था कि वो रोड किन्कालेश्वर मंदिर की ओर जाती है। किंकालेश्वर ऐसा मंदिर जहाँ मैं आजतक नहीं गया हूँ। लेकिन उम्मीद है जल्द ही आप सब को उधर अपने साथ लेकर चलूँगा। पौड़ी में वैसे भी मंदिरों और एक दो ग्राउंड के सिवा ज्यादा कुछ नहीं है।

खैर, हम नीचे को मुड़े। मैं रांसी में हुए बदलाव से खुश था। अपने उत्साह में मैंने मामा को बताया कि कैसे रांसी के पहले बुरे हाल थे लेकिन अब मुझे उम्मीद थी कि इधर पहेल तो अंतर्राष्ट्रीय नहीं तो राष्ट्रीय खेल होंगे। अगर ऐसा होता है तो पौड़ी के लिए ये काफी लाभदायक होगा।

उतराई के रास्ते ने मुझे बचपन के दिन याद दिला दिए। जब हम मैच खेलकर वापिस आते थे तो इतने थके होते थे कि इस उतराई के रास्ते पे चलते हुए घुटनों के बुरे हाल हो जाते थे। मैंने ये बात मामाजी को भी बतायी। इसके सिवा जंगल की तरफ इशारा करके ये भी बताया कि कई बार हम मैच खत्म होने के बाद चीड के सूखे पत्ते (जिसपे आप कदम रखो तो फिसल जाओ) को इकठ्ठा करते थे और उसका तकिया बनाकर और उस पर बैठकर ऊपर से फिसलते हुए नीचे आते थे। बड़ा मज़ा आता था। मामा ने पुछा कपडे नहीं फटते थे तो मैंने कहा नहीं। ऐसा इसलिए भी था क्योंकि ढलान इतनी ज्यादा नही होती थी कि एक बार फिसलना शुरू करें तो फिसलते जायें। हम रुकते हुए आते थे तो शायद ही किसी को छोट लगती थी। हाँ, अगर संतुलन बिगड़ा तो कोहनी या घुटने छिल जाते थे। ऐसे ही बात करते हुए हम रांसी से कंडोलिया आये। मैंने उन्हें कंडोलिया स्टेडियम की तरफ चलने को बोला लेकिन फिर अँधेरा हो गया था तो कुछ फायदा नहीं होता। इसलिए हम नीचे शहर की तरफ बढ़ गये।

हमारी आज की यात्रा समाप्त हो चुकी थी। मैं रांसी में हुए बदलाव से खुश था। अब उम्मीद करता हूँ कि पौड़ी अपने इस संसाधन का बेहतर प्रयोग करता है और अगली बार जब उधर जाऊँ तो मालूम हो कि उधर अन्तराष्ट्रीय लेवल के खेल हो चुके हैं। इसी उम्मीद और बेहतर भविष्य की कल्पना में खोया मैं  कंडोलिया से एजेंसी के तरफ बढ़ने लगा।

एक छोटी मगर सुखद यात्रा समाप्त हो गयी थी। हमेशा की तरह इससे मुझे स्फूर्ति और आनंद मिला था। अगर कभी पौड़ी की तरफ जाना हुआ तो रांसी और कंडोलिया जाइयेगा। शायद आपको भी मेरी तरह अच्छा लगे। 

4 टिप्पणियाँ

आपकी टिपण्णियाँ मुझे और अच्छा लिखने के लिए प्रेरित करेंगी इसलिए हो सके तो पोस्ट के ऊपर अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा।

  1. बहुत सुन्दर स्थल निकला यह तो,
    कभी उस रुट पर यात्रा करने का मौका लगा तो इन स्थलों पर अवश्य जाया जायेगा।
    कंडोलिया नाम देखकर ऐसा लगा था कि आपने बिहार या बंगाल के किली इलाके की यात्रा पर लेख लिखा होगा।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. शुक्रिया,संदीप भाई। मौका लगे तो उधर जरूर जाइयेगा। मैं बंगाल और बिहार बहुत कम गया हूँ। उम्मीद है जल्द ही उधर जाऊँगा और एक यात्रा लेख उसका भी प्रकाशित करूँगा।

      हटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आपकी टिपण्णियाँ मुझे और अच्छा लिखने के लिए प्रेरित करेंगी इसलिए हो सके तो पोस्ट के ऊपर अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा।

और नया पुराने